Friday, May 28, 2010

’हूं...दीज आर फ्रॉम ओल्ड ईरा, विथ द सेम ओल्ड थिंकिंग’।


हर दिन की तरह आज भी दौड़ते-भागते मेट्रो में कदम रखा तो भीड़ होने के बावजूद सीट कब्जाने में मैं कामयाब हो गया। बिना वक्त गंवाए मैं रोज की तरह किताब के काले अक्षरों में गुम हो गया। मैं पन्ने दर पन्ने पलट रहा था, और मेट्रो, स्टेशन दर स्टेशन भागी जा रही थी। अगले स्टेशन पर दो लड़कियां चढ़ीं, लगभग 17-18 की होंगी। आते के साथ ही दोनों ने आंखें दौड़ाई कि महिला आरक्षित सीट कौन सी है और उस पर बैठे एक 55-56 साल के अंकल को ऑन्ली फॉर लेडीज का बोर्ड दिखा कर उठा दिया। मैंने अंकल को सीट दी पर अगले स्टॉप पर सीट वापस मिल गई, अंकल उतर गए।

मुझे याद आया कि उन अंकल जी को महिला आरक्षित सीट लगभग इतनी ही उम्र की एक लड़की ने दी थी। कभी-कभी ये देखने को मिलता है एक साथ सिक्के के दो पहलू। मैं फिर किताब के पन्नों में खो गया। मन को हल्का करने के लिए भारी किताबों से हिंदी हास्य-व्यंग्य संकलन का रुख कर चुका हूं। हरिशंकर परसाई की व्यंग्यात्मक पेशकश इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर में डूब गया। अपने में मजेदार शख्शियत इंस्पेक्टर मातादीन।

मैं जितना भी मातादीन के करेक्टर में डूबने की कोशिश करता मेरे मन को उस लोक पर जाने से पहले ही ब्रेक लग जाता। मन भटकने का कारण थी इस लोक की दो बालाएं। दोनों लड़कियां चैटर बॉक्स की तरह चालू थीं। मेरे कान के पास चैं चैं...पैं पैं....बाप रे। वो आपस में बात नहीं कर रहीं थीं, वो तो दुनिया को सुना रहीं थीं कि वो कितनी बोल्ड और मॉर्डन हैं। उनकी वार्ता की विष्य वस्तु लड़के, सेक्स और समाज।

जिन शब्दों को किसी भी फैमली चैनल पर बीप कर दिया जाता है उन शब्दों का उपयोग और उपभोग वो दिल खोल के कर रही थीं। अब बारी थी एंग्री यंग मैन लुक की पर हुआ कुछ नहीं, दोनों मुसकुराते हुए उस लुक को ओवर लुक कर गईं। मैंने किताब की तरफ ही रुख करना बेहतर समझा।

मैं किताब में डूबा हुआ था इनमें से एक लड़की ने पूछा कि हमें फ्लां-फ्लां जगह पर जाना है। अब मुसकुराने की बारी मेरी थी। दोनों को वहां जाना था जिसके लिए पिछले स्टेशन पर उतरना होता है और वहां से दूसरी मेट्रो पकड़नी पड़ती है। अब भी वैसे कुछ ज्यादा बिगड़ा नहीं था। मैंने उन दोनों का मार्गदर्शन किया। साथ ही अंत में एक मुनियों वाली वाणी में मैंने संदेश दिया जिसे दोनों ने बड़े ही ध्यान से सुना।

मेरी बातें जो दो-चार सुन रहे थे समर्थन कर रहे थे और साथ ही अपनी भड़ास मधुर वाणी में निकाल रहे थे। वहां खड़े हर किसी को पता चल चुका था कि मार्डन दिखने और लगने में बहुत फर्क होता है। मार्डन होने का ये मतलब नहीं कि अक्ल के दरवाजे बंद कर दो।

दोनों वहां से जल्द गेट पर पहुंची और जाते-जाते एक जुमला भी छोड़ गईं हूं...दीज आर फ्रॉम ओल्ड ईरा, विथ द सेम ओल्ड थिंकिंग मेट्रो का दरवाजा खुल चुका था और वो दोनों इस प्रकरण को हंसी में उड़ाते हुए आगे बढ़ गईं और पीछे छोड़ गई वो ओल्ड जनरेशन। मैंने किताब बंद की और बैग के हवाले करते हुए सीट छोड़ दी, मैं अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला था।

आपका अपना
नीतीश राज

4 comments:

  1. मार्डन होने का ये मतलब नहीं कि अक्ल के दरवाजे बंद कर दो। कास ये आज के तथाकथित मार्डन समझ पते !

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  2. यह है मार्डन थिंकिंग...आप ओल्ड एरा के कहलाये. :)

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  3. बहुत बढ़िया संस्मरण ....आभार

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पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”