जिंदगी के सफर में ऐसा कभी भी नहीं होता है कि जैसा आप चाहें वैसा ही हो। कई बार जुबान से निकली बात से भारी वो अल्फाज होतें जो जिनको चबा-चबा के कोई आदमी केहता है और जो आदमी सुनता नहीं देखता है, सामने वाले के चेहरे और आंखों में। तो ये एक छोटी और तुच्छ कोशिश हैं मेरी, उन लोगों और रिश्तेदारों को समझाने की। भई, जो पर्दे पर नहीं दिखते तो इसका मतलब ये नहीं कि वो नकारे हैं या काम नहीं करते। मेरे साथ काम करने वाले एक सहयोगी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ, जो मुझे मजबूर कर रहा है कि कुछ लिखा जाए।
मेरे सहयोगी के घर वालो को लगा कि बिटुवा जवान होगया है, कमा-धमा भी अच्छा लेता है तो चलो खूंटे से बांध दिया जाए। मतलब कि बरखुरदार की शादी कर दें, इससे पहले की कोई ‘गुल’ खिलाए। बातें हुई, रिश्ते आए, कुछ ने फोन भी किया, कुछ मिलने पहुंचे। वर तो दिल्ली में लेकिन अम्मा-बाबूजी गांव में। अब फोटो के साथ ऑरिजनल फुटेज की भी मांग होती, मॉरफिंग का खतरा है भई, तकनीक तो चांद पर पहुंच चुकी है। वधु पक्ष ने भी सोचा की चलो इस बहाने बच्चों का दिल्ली भ्रमण हो जाएगा और लड़का भी देख लेंगे। “मिडिल क्लास थिंकिंग” यानि ‘एक पंथ दो काज’। चार दिन तक ऑफिस के बाहर तस्वीर के साथ लड़के का मिलान हुआ।
सहयोगी से फोन पर जानकारी तो पहले ही ली जा चुकी थी। करमचंद जासूस की तरह हाथ में गाजर पर साथ में नो किटि। हमारे सहयोगी भी खेले खाए थे, बहुतों की जासूसी की थी ऐसे वक्त पर। कईयों के रिश्ते बनाए थे तो कईयों के तोड़े भी थे। उसी का पाप था जो बेचारे सहयोगी अभी तक कुंवारों की लिस्ट में खड़े थे। जिसमें की वो अब कतई नहीं रहना चाहते थे। इसलिए उसने कसम खा रखी थी कि एक कमी भी निकाल नहीं पाएंगे। वो चार दिन से छुप-छुप कर सिगरेट के दम भर रहा था। लेकिन ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ जब भी कश लगाता तो उसे लगता कि ‘कहीं
कोई देख तो नहीं रहा’। लड़िकयों से दूर रहने की सहयोगी की आदत ने उसका साथ दिया और पहली ही गुप्त पेशी में सही चाल-चलन का तमगा उसे मिल गया। बाबूजी ने गांव से फोन के जरिए सही चाल चलन की ख़बर जो उनको दी गई थी सभी जगह फ्लेश
करवा दी। अब साफ था दाल काफी गल चुकी है बस तड़का लगना बाकि है।
एक दिन सहयोगी के फोन की घंटी बजी। सहयोगी की शालीन आवाज से ही अंदाजा लग गया कि वधु पक्ष की तरफ से कॉल है। एक मिनट बाद ही हड़बड़ाते हुए फोन रख दिया गया, चेहरे पर हवाइयां उड़ी जा रहीं थी।
हमने पूछा, ‘संब मंगल’?
जवाब था, ‘अमंगल रिसेप्शन पर हमारा इंतजार कर रहा है’।
बिना बताए आ गए हैं, एक कॉल कर दिया होता, कुछ ठीक से कपड़ ही पहन आते। बिना बताए आने के कारण सहयोगी को कोफ्त तो बहुत हो रही थी लेकिन घोड़ी पर बैठने की इच्छा ने इस कोफ्त को काफुर कर दिया।
हमने भी जलते पर नमक छिड़का, कहा, ‘ये मौका हाथ से ना जाने पाए वरना...’। मैं अपने सहयोगी के साथ बाहर तक नहीं जा सका क्योंकि हमारी कुर्सी ही ऐसी है, उस कुर्सी को कोई तो ‘मांगता’ ही है।
दस मिनट के अंतराल के बाद आगबबूला सहयोगी आकर हमारी पास वाली खाली आधी टूटी कुर्सी पर धम से आ बैठा। ऐसा लग रहा था कि बुदबुदाने में इनका सानी कोई भी नहीं, क्या रफ्तार थी। पता नहीं कितने ही वचन दूल्हे ने अपने होने वाले ससुर पर उगल दिए। चुटकी लेने में हमारा सानी भी तो कोई नहीं। बिना चिंगारी के आग लगवा दें।
मौके की नजाकत को समझ हमने छेड़ा, ‘गए’।
कटु वचन, ‘नहीं’।
‘अच्छा, लेकिन तुम्हारे शरीर से फ्यूज उड़ने की बदबू क्यों आ रही है? क्या इस बार भी रिजेक्ट हो गए’। यार हमने तो ऐसे ही कहा था, मजाक में।
हमारे पर एक वक्र दृष्टि डाल बड़ी ही रुखाई से (साथ में कई वचनों का उपयोग करते हुए) बोला, ‘बूढ़े ने सबसे पहला सवाल ही ये पूछा कि आपको कभी टीवी पर देखा नहीं’।
पर्दा चाहे छोटा हो या बड़ा पर्दा तो पर्दा ही होता है और उस पर्दे पर नहीं आपाने का दर्द भी कुछ कम नहीं होता। वो भी तब,जब कि माहौल ही कुछ ऐसा हो।
ओह, एक झटके में माजरा समझ आ गया।
पर्दे के पीछे का दर्द मेरे सहयोगी के चेहरे पर साफ झलक रहा था। हमने कुर्सी का थोड़ी देर के लिए त्याग किया और रिसेप्शन का रुख किया। सब बात समझाई गई। छोटे पर्दे की असलियत से उनको दो-चार कराया गया। साथ ही एक-दो चेहरों से भी मिलवाया गया। जब उन चेहरों ने बताया कि सहयोगी जैसे पर्दे के पीछे बैठने वालों की अहमियत क्या है तो उन लोगों को भी पर्दे का सच समझ में आ गया।
लेकिन ये सेगमेंट कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया, कई विज्ञापन गिराने पड़े और फिर अगली बुलेटिन में ही पारी संभल पाई।
कई हमारे भाइयों को भी ये बात कांटे की तरह काटती रहती है कि पर्दे के आगे नहीं आए तो किस बात के पत्रकार। चाहे सूरते-मूरत, उच्चारण, समझ, अदायगी, चाहे जैसा भी हो। मैंने जैसे पहले भी कहा सोच अपनी-अपनी है। दूसरे के कष्ट की किसी को क्या चिंता कि उनके पर्दे पर आने से देखने वालों को रात में भी नींद नहीं आएगी। आएगी तो सिर्फ याद ‘उनकी’।
मीडिया में पद भी भांति-भांति के होते हैं। ‘प्रोड्यूसर’ जिसे भी बताओ तो सुनने वाले के जहन में पहला ख्याल आता है, ये क्या प्रोड्यूसर होगा लगता तो फक्कड़ प्रजाति का है। सोच सीधे फिल्मी प्रोड्यूसर की ओर ही जाती है। वो तो मालदार होते हैं, फिल्में बनाते हैं। सीनियर प्रोड्यूसर मतलब बड़ा मालदार। किसी के पूछने पर ज्ञान देने और समझाने में व्यर्थ ही समय बर्बाद ना करते हुए, अपने को सिर्फ पत्रकार ही बताए। क्योंकि अब तो पत्रकार भी भांति-भांति के होते हैं।
बेहरहाल, कुछ समय बाद मेरे सहयोगी की शादी हो गई। शादी गांव से हुई थी। शरीक तो नहीं हो पाए हम(कुर्सी के कारण), लेकिन मुंह मीठा सहयोगी ने शादी के बाद करवा दिया।
आपका अपना,
नीतीश राज
स्वागत है, मैं हिन्दी का हिन्दीतर ब्लॊगर हूँ ।
ReplyDeleteकेरल के तिरुवनन्तपुरम में रहता हूँ,बीवी-बच्चों के साथ ।