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Friday, August 1, 2008

पंडित जी, तुसी ग्रेट हो...

हमारे ऑफिस के बाहर एक पान का ठिया है। जहां पर कोई सिगरेट पीने और हम जैसे जो पान के शौकीन हैं वो पान खाने चले जाते हैं। यहीं पर खड़े होकर अधिकतर ऑफिस की राजनीति, खेल, हरियाली सभी तरह की बातें होती हैं। यहां पर एक 45-50 साल के शख्स बैठते हैं जिन्हें लोग पंडित जी कहकर बुलाते हैं। वैसे साथ में उनके दो बेटे भी हैं जो उनका इस काम में बखूबी हाथ बटाते हैं। पंडित जी तो ज्ञान के भंडार हैं। उनसे किसी बात पर भी आप बात कर सकते हैं और वो ज्ञान देने में हैं भी बहुत काबिल हैं। वो अपनी बातों से आप को घंटों उलझाए रह सकते हैं।
आप एक पान बनवाने जाएं और सौ फीसदी गारंटी के साथ ऑफिस की खुफिया से खुफिया जानकारी लेकर वापस ऑफिस में लौट आएं। हम ऑफिस में काम करते हैं जो बात हमें नहीं पता होती वो उनको पता चल होती है। ऑफिस की जो जानकारी आप के पास नहीं हो वो आप उनसे जा कर ले लीजिए और फिर वो ही नमक मिर्ची बनकर ऑफिस के गलियारे में घूमती फिरती हैं। आप को जानना है कि कौन लड़की कब जाती है, किसके साथ जाती है कहां जाती है या किसके साथ कुछ चक्कर चल रहा है। तो जवाब बिना किसी लाग लपेट के हाजिर है जैसे कि एक पान का बीड़ा दे रहे हों। मर्द हो या लड़की फैशनेबल है या नहीं सब पंडित जी की आंखों में चमकते रहते हैं। इस साल किस के साथ ऑफिस में क्या खेल होने वाला है उस तरह की जानकारी के साथ पंडित जी हमेशा हाजिर रहते हैं। आपको पता हो ना हो कि फलां के साथ फलां ने क्या कर दिया लेकिन उनको पता होगा। कौन आज लिफ्ट में किस से टकरा गया। हर किस्म का और हर तरह का मसाला उनके पास होता है। अरे, आप उस लड़की की बात तो नहीं कर रहे जिसका इंजन हमेशा ही चालू रहता है। पंडित जी मतलब? अरे! वही जो खूब सिगरेट पीती हैं।
कई लड़कियों के नाम तो उन्होंने सिगरट के ब्रांड के नाम पर रख रखे हैं। वो विल्स वाली, नेवीकट वाली, मालबोरो वाली, गोल्ड फ्लेक वाली ये तो हुई सिगरेट वालियों के नाम। कोई चपरासी यदि किसी मैडम के लिए सिगरेट या फिर पान लेने आया और आप वहीं खड़े हैं तो बस फिर तो उन मैडम की पूरी हिस्ट्री सुन लीजिए हमारे पंडित जी के मुंह से। कब देखा, कहां देखा, क्या देखा, साथ में कौन था वगैरा-वगैरा।
पानवालियों के नाम भी उन्होंने रख रखे हैं। वो जो 120 नंबर का पान खाती हैं, या 300 नंबर वाली, अरे जिनके पान में यदि चूना थोड़ा भी ज्यादा लग जाए तो बाप रे, क़हर बरपा देती हैं। अरे, वो 300 नंबर पान खाने वाली को क्या होगया है। कई दिनों से देख रहा हूं कि सुबह आ जाती हैं और देर रात तक ऑफिस में रहती हैं। साथ में अब तो क्लासिक की दो -दो डिब्बी खींच जाती हैं। आखिर क्या माजरा हैं? अब इन्हें क्या बताए की आप अपनी दुकान के मालिक हैं जब चाहेंगे, दुकान बंद करेंगे, चल देंगे, कोई भी पूछने वाला नहीं। लेकिन नौकरी करने वाले को ये आज़ादी कहां? नौकरी करते हैं अपनी दुकान तो है नहीं। वैसे जब भी उनकी तरफ से सवाल उछला जाता है तो वहां खड़े लोगों में से कोई भी बात का जवाब देना पसंद नहीं करता। सभी जानते हैं कुछ भी बोलोगे तो बात यहीं पर खत्म नहीं होगी वो तो फिर पूरे ऑफिस में घूमेगी। और एक बार बात निकली तो दूर तलक जाएगी। फिर बात की खिचड़ी बनने में कितनी देर लगती है?
पंडित जी सब जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि आप की उन महाशय से लगती है और वो इस बात का बतंगड़ बनाने से भी नहीं चूकते। आप एक चुटकी (सुपाड़ी का एक ब्रांड) लेने पहुंचिए तो आप के साथ चुटकी लेने से भी वो नहीं चूकेंगे। उनको दूसरे की वॉट लगाने में जरा भी झिझक नहीं होती। यदि उनकी आप से ठन गई है तो फिर प्यार से बातों में खूब गुलुकंद और चटनी मिलाकर के आप के विरोधी की तारीफ करेंगे।

एक हथियार से दो वार करते हैं। एक तो आप सिगरेट से कलेजा जलाइए और फिर उनकी बातें आप को जलाएंगी।
बस, पंडित जी की ये ही बातें ऑफिस वालों को उनके पास लेजाती हैं और ये ही दूर। आप जल्दी कहेंगे लेकिन वो तो अटल बिहारी वाजपेयी जी की बातों की स्पीड से भी धीरे हाथ चलाएंगे। आप उनसे अपना ब्रांड मांगेंगे वो दूसरे से बात करने में मशगूल रहेंगे। उनके पास जाना मतलब 10-15 मिनट एक पान के लिए लगाने होंगे। वैसे भीड़ तो थोड़ी बहुत होती है लेकिन यदि वो खाली भी हैं तब भी वो जल्दी करने वाले नहीं। अब उम्र में इतने बड़े हैं कि कोईं भी उन्हें कुछ कह नहीं पाता। लेकिन इंटरटेनमेंट का पूरा मसाला हैं पंडित जी।
मुझे तो हमेशा कहते हैं कि, 'यार, जब भी तुम्हें देखता हूं तो बड़ा शुकून मिलता है'।
मैं पूछता हूं 'क्यों'?
तो जवाब 5-10 मिनट बाद देते हैं। जब कि उन्हें एक-दो बार टोक नहीं दिया जाए। अरे भई, जवाब तो सुनना ही है।
पान का बीड़ा हाथ में देते हुए बोले, 'तुम मुझसे भी ज्यादा परेशान दिखते हो, बड़ा ही शुकून मिलता है, देखने से लगता है कि भगवान ने मुझसे भी ज्यादा किसी की ले रखी है।'
क्या बात कर रहे हैं। जी में आता है कि कहूं, क्या मेरे चेहरे पर लिखा है कि में 'वो' हूं। अरे, जड़ भी तो आप ही हैं। 15-20 मिनट में निगोड़ा एक पान लगाते हैं, और बात बनाते हैं वो ही पुरानी। ऑफिस की 5 दिन की पुरानी बासी खबरें देते हो, उसका फॉलोअप भी नहीं रखते। शर्म भी नहीं आती। पंडित जी, अब सब बासी होगया है। आप का खूफिया तंत्र किसी काम का नहीं रहा। अगली बार जब आऊं और आप के पास कोईं ताजा खबर नहीं हो तो दो मिनट में पान दे दीजिएगा।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, July 24, 2008

इडियट बॉक्स, बेटा और मेरी बेचारगी


ये तो अब रोज की बात हो गई है कि मेरा दोस्त जो कि अभी 4 साल का भी नहीं हुआ है मुझे टीवी पर अपने प्रोग्राम नहीं देखने देता। इस इडियट बॉक्स पर जो कुछ मेरे मतलब का आता है वो मुझे देखने को कतई नहीं मिलता। मैं अपने प्यार दोस्त की शिकायत नहीं कर रहा हूं। पर अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी ही। वैसे भी शिफ्ट हमारी कुछ ऐसी होती है कि देखना हो भी नहीं पाता लेकिन अवकाश (जिस पर बॉस हमेशा से नजर लगाए रहते हैं) के दिन तो देखने की इच्छा होती ही है। कुछ मूड ही फ्रेश हो जाए। या फिर और चैनल क्या कूड़ा चला रहे हैं वो पता भी चल जाए। क्योंकि ऑफिस में तो हम लोग बहुत कूड़ा दिखाते हैं ही। पर हमारा बेटा हमारे सभी प्रोग्रामों पर कुंडली मारे बैठा रहता है। पिता का नाम, मतलब हमारा, ठीक से याद तक नहीं हो पा रहा है लेकिन कार्टून चैनलों के नाम साहबजादे को कंठस्थ हैं। मिडिल क्लास फैमिली में खाना खाते समय अधिकतर परिवार टीवी पर किसी ना किसी चैनल पर हो रही सास-बहू की लड़ाई देखने का शौक रखते ही हैं। फिर साथ ही साथ देखते समय बहू और सास इस प्रकरण को अकारण ही, उस प्रकरण से जोड़ देती है जिसके कारण, टीवी में खिल रहा गुल घर में खिलने लग जाता है।
बहरहाल, हम बात अपने सुपुत्र की कर रहे हैं। उसे याद रहता है कि अब ये कार्टून खत्म हो रहा है तो किस चैनल पर कौन सा कार्टून उस की पसंद का जिसे की उसे देखना है। पहले से ही बात शुरू कर देता है कि अब मेरा वाला वो कार्टून फलां चैनल पर आ रहा है तो अब वहां पर कर दो। वैसे आप को ये बता दूं कि अभी उसे ठीक से नंबर ज्ञान नहीं हुआ है लेकिन लोगो देख कर बता देता कि पापा ने अपना चैनल लगाया है या फिर कार्टून चैनल। साथ ही अपनी मां की तर्ज पर उसे याद है कि अब तो कार्टून चैनल चला नहीं पाएगा क्योंकि मम्मी का पसंदीदा सीरियल...वो...सिंदूरा आंटी वाला....आ रहा है। फिर स्टाइल से बताएगा कि सिंदूरा आंटी को सीरियल में कैसे बुलाया जाता है सिन...
सिन...सिंदूरा...रा...रा....। यदि ये पूछ लो कि सप्ताह में दिन कितने होते हैं? तो, पता नहीं का जवाब जल्द ही निकल जाता है।
मैंने कुछ दिन से गौर किया है कि कई बातें बेटे को ऐसी पता हैं कि जो कि उसे कोई भी नहीं बताता या सीखाता।
जैसे कि जब भी किसी न्यूज चैनल को लगाऊंगा तो वो सिर्फ लोगो देखकर ही यह बता देता है कि मैं कौन सा चैनल देख रहा हूं। खासतौर पर मैं न्यूज चैनलों की बात कर रहा हूं। डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक और एनिमल, हिस्ट्री चैनल आदि के लोगो पहचानने लगा है। शाहरुख खान को तो देखते ही पहचान लेता है। मेरी याद में नहीं आता कि हमारे घर में शाहरुख, आमिर, अमिताभ या किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री का नाम लिया भी जाता हो। अधिकतर टोन पर यानी कि गाने की तरज पर बने विज्ञापन उसे याद हैं। मतलब कि उनकी धुन याद हैं।
कभी-कभी आश्चर्य भी होता है कि ये सब दिमाग पढ़ाई में लगेगा भी या नहीं। कई बार सोचता हूं कि ऐसे याद रखने के मामले से क्या दिमाग तेज होता होगा?
साथ ही कुछ दिन से ऐसा भी महसूस कर रहा हूं कि जब से स्कूल जाने लगा है वो आक्रामक होगया है। स्कूल का असर है या साथ के बच्चों का या फिर इस इडियट बॉक्स का। मैं पहले एक बात यहां पर साफ कर दूं कि हमारे घर में बहुत ही कम समय के लिए टीवी चलता है। २४ घंटे में अधिक से अधिक २ घंटे। कुछ बदलाव तो बढ़ती उम्र के साथ आते ही रहते हैं लेकिन ऐसा बदलाव जिसमें कि वो रिएक्ट करने लगे और वो भी लड़ने के ढंग से तो समझो कि शुभ समाचार तो ये है नहीं। हर बात पर रिएक्ट करने लग जाना तो ठीक नहीं है। रिएक्ट करना अच्छा है तभी आप सीखते हैं लेकिन लड़ने की भावना से रिएक्ट करना तो ठीक नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि लड़ने की भावना उस में ऐसे आगई है जैसे जन्म जन्मांतर से वो लड़ाकू हो।
मैंने कहीं पढ़ा था कि टीवी पर सबसे ज्यादा मारधाड़ कार्टून चैनलों पर ही होती है। शायद इसलिए चाइल्ड साइकलॉजिस्ट ये कहते हैं कि बच्चों को इस इडियट बॉक्स से दूर रखना चाहिए।
टॉम एंड जैरी शो में तो मुझे भी कई बार लगता है कि सबसे ज्यादा हिंसा होती है और उसी हिंसा या यूं कहें कि मारधाड़ को देख कर हम हंसते हैं। शायद बच्चों को भी उससे लड़ाई करना या फिर तरह-तरह के मुंह बनाना ही सीखने को मिलता होगा। लेकिन क्या ‘कहने’ और ‘करने’ में कुछ अंतर नहीं होता है। कितना आसान होता है जुबान से शब्दों को लपेटकर दांतों के बाहर फैंक देना। लेकिन ‘करने’ में खुदा से लेकर अम्मा-बाबूजी सब याद आ जाते हैं। आज कल स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार देखे, बच्चों ने स्कूल में अपने साथी का क़त्ल कर दिया। ये गुस्सा कहां से आया? ये सब कहां से सीखते हैं ये नन्हे नन्हे बच्चे? ये किसका असर है हमारी आने वाली पीढ़ी पर? टीवी का या फिल्मों का या फिर हमारी व्यस्त जिंदगी का? क्या लगता नहीं कि ये बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं? कहीं ये हमारी नाकामयाबी तो नहीं ...?

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”