14 अगस्त को पोस्ट डाल के कहीं जाना था तो निकल गया। कंप्यूटर शट डाउन कर चुका था तो सोचा कि चलो आज़ादी की बात कल ही करूंगा। जब अगले दिन कंप्यूटर खोला तो थोड़ी ही देर बाद एक छोटी सी विंडो आई और उसमें एक एर्रर लिखा हुआ था। जब तक उसे एर्रर को पढ़ पाता तब तक स्कैन विंडो खुल गई और उसमें पहला, फिर दूसरा और फिर तीसरा वायरस दिखा और कंप्यूटर बंद। तुरंत रिस्टार्ट किया और जल्दी से स्कैन पर डाल दिया कि एंटी वायरस अपडेट हो ही रहा है तो शायद सारे वायरस मारे जाएं। कंप्यूटर स्टार्ट तो बड़े ही आराम से हो गया लेकिन फिर वो ही प्रकरण और कंप्यूटर बंद।
अपने ऑफिस में सिस्टम(आईटी डिपार्टमेंट) के दोस्तों को अपने कंप्यूटर के लक्षण बताए तो उन्होंने कहा कि बीमार हो गया है तुम्हारा कंप्यूटर। बीमारी का नाम है वायरस। तुम्हारे कंप्यूटर पर शत्रुओं ने हमला कर दिया है और वायरस रूपी मिसाइलें दाग दी हैं जिससे बच पाना किसी भी सूरत में नामुमकिन है। तुम्हारा कंप्यूटर एफेक्टिड हो चुका है और ये स्वाइन फ्लू की तरह है यहां से वहां बहुत जल्दी फैलता है।
कंप्यूटर को सेफ मोड में चलाओ और सी ड्राइव से जो भी डेटा है वो निकाल लो। मैंने तुरंत उन सब चीजों को पेन ड्राइव में सुरक्षित कर लिया। फिर पास के ही एक अस्पताल यानी कंप्यूटर अस्पताल से डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर साहब आए और टूट पड़े इंजेक्शन यानी स्क्रू ड्राइवर लेकर और उतारने लगे कंप्यूटर के कपड़े।
नवज टटोलकर, धड़कन सुनकर डॉक्टर रूपी इंजीनियर ने बताया कि मिसाइलों के एटैक से आप की ’सी’ ड्राइव पूरी तरह छतिग्रस्त हो चुकी है और अब उस हिस्से को बचा पाना हमारे बूते की बात नहीं है। हमने पूछा तो इलाज बताएं डॉक्टर साहब। इलाज, इलाज तो एक ही है, पूरी ’सी’ ड्राइव फोरमेट की जाएगी मतलब नई बनाई जाएगी। गो एहेड (go ahead) हमने परमिशन दे दी।
डॉक्टर साहब ने आधे घंटे बाद माथे का पसीना पोछकर बोले, लीजिए आपकी ’सी’ ड्राइव फिर से जिंदा कर दी है। हैं ना हम कलाकार। हमने मन ही मन सोचा, सच आप कलाकार तो हैं ही। पर तभी कंप्यूटर जी ने आवाज़ लगाई डॉक्टर साहब, दवाई तो देते जाओ। डॉक्टर साहब ने तुरंत एक गोल सी रोटी निकाली और हमारे कंप्यूटर के मुंह में डाल दी।
थोड़ी ही देर में एंटी वायरस इंस्टॉल हो चुका था। पर ये क्या, एर्रर।।। अब डॉक्टर साहब की हालत खराब, हमने छूटते ही कहा अब कलाकारी दिखाइए। कंप्यूटर का नीला चेहरा देख डॉक्टर साहब के चेहरे का रंग ही उड़ गया। दो घंटे की मशक्कत और बीच में कई और डॉक्टरों से फोन पर राय लेने के बाद डॉक्टर साहब ने फैसला सुनाया। पेसेंट को अस्पताल में एडमिट कराना होगा। हम बोले अभी लेकर चलते हैं जल्दी चलेंगे तो शायद रात अपने घर पर कटे।
आदमी जैसा सोचता है वैसा होने लगे तो कहने ही क्या। जिस्म अस्पताल में और घर पर सिर्फ कंप्यूटर का बुझा-बुझा चेहरा। ऐसा लग रहा था दो जिस्म एक जान को जुदा कर दिया गया हैं। कितना काला पड़ गया बेचारे का मुंह।
जो भी हो अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। फिर से दोनों मिले पर वो पहले वाली बात नहीं आई। चेहरे ने जिस्म का साथ छोड़ना शुरू कर दिया। फिर डॉक्टर साहब को बुलाया गया इस बार फिर वो ही इंजेक्शन, वो ही नंगा करने का प्रकरण, बड़ा दुखदाई। फिर से ’सी’ ड्राइव बेचारी शहीद और फिर से जान फूंकी और वाह वाही लूटी गई। इस बार मरीज को पावर का टॉनिक दिया गया यानी कंप्यूटर की रेम बढ़ाई गई।
कंप्यूटर जी फिर दौड़ने लगे, हमने हाथ जोड़े कि वायरस फीवर भी तो 7 दिन खींच ही लेता है। पर यहां डॉक्टर साहब गए और कंप्यूटर जी ने 100 घंटे की रफ्तार को ब्रेक लगाया और हो गए फिर से री स्टार्ट।
हमने तुरंत अस्पताल में फोन लगाया अब तो डॉक्टर भी बचने लगे थे पर फिर भी टाइम मिल गया। आज दिन में किसी भी वक्त डॉक्टर साहब कम इंजीनियर साहब तसरीफ लाएंगे और अपने मरीज को देखेंगे। हमने भी इस बार अस्पताल में कह दिया है कि बहुत बार आप कंपाउंडर कम डॉक्टर को भेज चुके अब एक बार तो रीयल डॉक्टर को भेज दीजिए।
ग्यारह दिन के बाद आज लिख रहा हूं। इसमें भी हर दो-चार शब्द के बाद ’कंट्रोल एस’ करना नहीं भूलता। अभी ये लिखते वक्त भी कंप्यूटर जी बंद हो गए थे पर कंट्रोल एस ने बचा लिया। कंप्यूटर जी गर खराब हो जाएं तो क्या हाल होता है अब पता चल रहा है। इतनी खबरें हुईं कि लिखने को आतुर था पर.....। भगवान से दुआ करता हूं आज कंप्यूटर जी ठीक हो जाएं। जहां तक एर्रर देख लग रहा है कि नई रैम की प्रोब्लम है। यदि ठीक हो गया तो फिर नितीश नित हो जाएगा।
आपका अपना
नीतीश राज
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
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Wednesday, August 26, 2009
Wednesday, August 12, 2009
ट्रैफिक की पों...पों...और मेरा मन गीला-गीला।
ऑफिस से घर पहुंचने की जल्दी, घर के रास्ते पर गाड़ियों का शोर और जगह-जगह से उड़ती धूल। रास्ते में बस...किसी कार....या थ्री व्हीलर का बिना बात बजता हॉर्न, बार-बार बजता हॉर्न लगता कि क्या चालक बहरा है या हमें बहरा समझ रखा है या हमें बहरा करने पर तुला हुआ है। आंखें घर तक पहुंचाने वाली बस के इंतजार में, अपनी उस बस के इंतजार में दूर तक देखती मेरी नजर। पर लगता है कि फिर बस का इंतजार करना व्यर्थ हो जाएगा....इतनी भरी होगी कि चढ़ ही नहीं पाऊंगा। यदि बस टाइम पर आ जाए और मिल जाए तो तीन-चार चेंज करने से बच जाता हूं। पर अब समय बर्बाद करने से बेहतर है कि मेट्रो से चला जाए करेंगे चार बार कसरत।
मेट्रो से मुझे तो ये ही अच्छा लगता है कि सफर कब खत्म हो जाता है पता ही नहीं चलता। जब तक संभलते हैं तो पता चलता है कि आपका गंतव्य आगया। पूरा पसीना सूख गया पर अब शुरू होगी घर तक पहुंचने की जंग। धूल-हॉर्न-चिल्लाहट-धूप-उमस-पसीना-गंदगी और पता नहीं क्या-क्या सब से होगा सामना, वो भी एक साथ। धूप इतनी रहती है पर फीडर बस वालों से लड़ों नहीं तो चलेंगे नहीं। देखो, सभी तो बस के अंदर भिच कर बैठे-खड़े हुए हैं। मैं नीचे ही रहता हूं धूप झेल लूंगा पर पसीना-गर्मी नहीं। ये देखो हम धूप में खड़े हुए हैं और ड्राइवर-कंडेक्टर छांव में हंसी-ठिठोली कर रहे हैं। चलो आज मुझे नहीं जाना पड़ा और कोई गया है लड़ने के लिए। भइया दोनों को लेकर ही लौटना। चलो फतह मिली उठ कर आ तो रहे हैं।
कई बस बदल लेने के बाद अपने अंतिम गंतव्य तक पहुंचने के लिए ऑटो की तरफ बढ़ा।
‘अरे, तुम ही तो थे ना भइया कल भी’।
मैंने उसके जवाब का इंतजार भी नहीं किया और बैठ गया।
‘जी साहब, कल मैं ही था। वहीं छोड़ूं ना जहां पर कल छोड़ा था’।
'भइया मेरा घर उसी सोसायटी में ही है तो वहीं छोड़ोगे ना कहीं और क्यों जाऊंगा मैं'।
’नही, नहीं साहब, कहीं सब्जी वगैरा तो नहीं लेने जानी मैं तो ये ही पूछ रहा था। चलिए छोड़ देता हूं यदि बुरा लगा हो तो साहब, ‘सॉरी’।’
ऐसी बात तो थी नहीं कि इसे सॉरी बोलना पड़े। मुझे लगा मैंने बेकार ही इस बेचारे का मन दुखा दिया, उस सवाल का जवाब ‘हां’ में भी तो दिया जा सकता था पर आजकल मैं क्यों जल्दी इरिटेट हो जाता हूं।
मैं पसीने में पूरा तरबतर थ्री व्हीलर में लग रही हवा से काफी राहत महसूस कर रहा था। ओह हो....रेडलाइट भी अभी होनी थी अब जाकर थोड़ी हवा लगने लगी थी पसीना सूखना शुरू हुआ ही था कि ब्रेक लग गया। ऑटो वाले ने ऑटो बंद कर दिया।
सिग्नल ग्रीन होने पर ऑटो वाले ने स्टार्ट किया तो पहली बार में नहीं हुआ, दूसरी बार फिर नहीं हुआ। पीछे से पों...पों...पों....पीं...पीं....पीं...लोगों ने बुरा हाल कर दिया। कुछ कार वाले बगल से निकलते वक्त गाली देते हुए निकले। रेड लाइट पर गाड़ी रुकने की गंभीरता को समझते हुए तुरंत नीचे उतरा और उसके साथ मिलकर धक्का लगाने लगा। कोने में ऑटो को करवा कर उसमें बैठ गया। जितना पसीना सूखा था उससे दोगुना निकल गया। ऑटो भी स्टार्ट हो गया और हमने उसी ग्रीन लाइट को समय रहते पार भी कर लिया।
ऑटो को दोबारा शुरू करने में महज एक मिनट भी नहीं लगा और रेडलाइट ३ मिनट की थी। फिर लोग क्यों हुए इतने बेचैन कि गालियां देते हुए चले गए, हॉर्न पर हॉर्न बजाने लगे। क्या हमारा अंदर संयम खत्म हो चुका है। इसी संयम खत्म होने की वजह से एक्सीडेंट और खून खराबा होता है। घरों में, बीवी के साथ, भाई के साथ, माता-पिता के साथ लड़ाई होती है। इसी संयम ना रखने की वजह से। क्यों हम इतने बेपरवाह हो गए हैं।
मैं घर पहुंच गया और घर पहुंचते-पहुंचते पसीने से मेरी शर्ट सूख चुकी है पर मन गीला-गीला हो रहा है क्योंकि और लोगों की तरह ही मैंने भी तो संयम नहीं बरता था।
आपका अपना
नीतीश राज
मेट्रो से मुझे तो ये ही अच्छा लगता है कि सफर कब खत्म हो जाता है पता ही नहीं चलता। जब तक संभलते हैं तो पता चलता है कि आपका गंतव्य आगया। पूरा पसीना सूख गया पर अब शुरू होगी घर तक पहुंचने की जंग। धूल-हॉर्न-चिल्लाहट-धूप-उमस-पसीना-गंदगी और पता नहीं क्या-क्या सब से होगा सामना, वो भी एक साथ। धूप इतनी रहती है पर फीडर बस वालों से लड़ों नहीं तो चलेंगे नहीं। देखो, सभी तो बस के अंदर भिच कर बैठे-खड़े हुए हैं। मैं नीचे ही रहता हूं धूप झेल लूंगा पर पसीना-गर्मी नहीं। ये देखो हम धूप में खड़े हुए हैं और ड्राइवर-कंडेक्टर छांव में हंसी-ठिठोली कर रहे हैं। चलो आज मुझे नहीं जाना पड़ा और कोई गया है लड़ने के लिए। भइया दोनों को लेकर ही लौटना। चलो फतह मिली उठ कर आ तो रहे हैं।
कई बस बदल लेने के बाद अपने अंतिम गंतव्य तक पहुंचने के लिए ऑटो की तरफ बढ़ा।
‘अरे, तुम ही तो थे ना भइया कल भी’।
मैंने उसके जवाब का इंतजार भी नहीं किया और बैठ गया।
‘जी साहब, कल मैं ही था। वहीं छोड़ूं ना जहां पर कल छोड़ा था’।
'भइया मेरा घर उसी सोसायटी में ही है तो वहीं छोड़ोगे ना कहीं और क्यों जाऊंगा मैं'।
’नही, नहीं साहब, कहीं सब्जी वगैरा तो नहीं लेने जानी मैं तो ये ही पूछ रहा था। चलिए छोड़ देता हूं यदि बुरा लगा हो तो साहब, ‘सॉरी’।’
ऐसी बात तो थी नहीं कि इसे सॉरी बोलना पड़े। मुझे लगा मैंने बेकार ही इस बेचारे का मन दुखा दिया, उस सवाल का जवाब ‘हां’ में भी तो दिया जा सकता था पर आजकल मैं क्यों जल्दी इरिटेट हो जाता हूं।
मैं पसीने में पूरा तरबतर थ्री व्हीलर में लग रही हवा से काफी राहत महसूस कर रहा था। ओह हो....रेडलाइट भी अभी होनी थी अब जाकर थोड़ी हवा लगने लगी थी पसीना सूखना शुरू हुआ ही था कि ब्रेक लग गया। ऑटो वाले ने ऑटो बंद कर दिया।
सिग्नल ग्रीन होने पर ऑटो वाले ने स्टार्ट किया तो पहली बार में नहीं हुआ, दूसरी बार फिर नहीं हुआ। पीछे से पों...पों...पों....पीं...पीं....पीं...लोगों ने बुरा हाल कर दिया। कुछ कार वाले बगल से निकलते वक्त गाली देते हुए निकले। रेड लाइट पर गाड़ी रुकने की गंभीरता को समझते हुए तुरंत नीचे उतरा और उसके साथ मिलकर धक्का लगाने लगा। कोने में ऑटो को करवा कर उसमें बैठ गया। जितना पसीना सूखा था उससे दोगुना निकल गया। ऑटो भी स्टार्ट हो गया और हमने उसी ग्रीन लाइट को समय रहते पार भी कर लिया।
ऑटो को दोबारा शुरू करने में महज एक मिनट भी नहीं लगा और रेडलाइट ३ मिनट की थी। फिर लोग क्यों हुए इतने बेचैन कि गालियां देते हुए चले गए, हॉर्न पर हॉर्न बजाने लगे। क्या हमारा अंदर संयम खत्म हो चुका है। इसी संयम खत्म होने की वजह से एक्सीडेंट और खून खराबा होता है। घरों में, बीवी के साथ, भाई के साथ, माता-पिता के साथ लड़ाई होती है। इसी संयम ना रखने की वजह से। क्यों हम इतने बेपरवाह हो गए हैं।
मैं घर पहुंच गया और घर पहुंचते-पहुंचते पसीने से मेरी शर्ट सूख चुकी है पर मन गीला-गीला हो रहा है क्योंकि और लोगों की तरह ही मैंने भी तो संयम नहीं बरता था।
आपका अपना
नीतीश राज
Monday, April 6, 2009
गर बचा सको, तो बचा लो यारों।
ऐ...ऐ...ऐ भाई....ऐ भाई, क्या सोच रहे हो, यदि यहां पर रुके तो बेकार का दिमाग खराब होगा अपनी कमियों के बार में सोचना होगा, हां, यदि यहां की राह की तो सोचना होगा। जरूर सोचना होगा कि हम क्या कर रहे हैं, दिन-ब-दिन गुजर रहे हैं और हम क्या दे रहे हैं समाज को। हम आखिर दे क्या रहे हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को। कहने को तो रहते हैं हम एक सभ्य, पढ़े लिखे समाज में पर कई बार तो लगता है कि ये बड़े लोगों का समाज हमेशा सोता ही क्यों रहता है।
यहां हर कोई आता है एक अरमान लेकर। एक अरमान, कुछ करने का, कुछ बनने का, और यहां के खोखले आदर्शों में दिवालिया हो जाता है और फिर यहां कि तेज रोशनी तो है ही उसे गर्क में डुबोने के लिए। यहां पर कानून सोता है, ऐसा नहीं कि ये सिर्फ रात में सोता है ये तो दिन से ही उबासियां लेने लग जाता है। दिन से ही हर कोने में कभी किसी की पर्ची तो कभी किसी की जेब कटती रहती है। दिन में दस रुपये और रात में कौड़ियों के भाव बिकता है कानून। विश्वास ना हो तो जाकर देख लो।
घूस के लिए सब राजी। मैं राजी, तुम राजी, तुम लेने के लिए, मैं देने के लिए, बस काम हो जाए, यानी घूस के लिए हम सब राजी। थोड़ा मैं नीचे गिरूंगा, पर काम तो हो जाएगा ना, थोड़ा ज्यादा तुम नीचे गिरोगे, पर क्या करें लोग इतना कहते हैं तो ये सब तो करना पड़ता ही है। शाबाश, हमाम में सभी नंगे हैं एक नंगा दूसरे को क्या नंगा करेगा।
नहीं..नहीं, ये डिपार्टमेंट मैं नहीं देखता आप उनसे मिल लो, नहीं ये मैं नहीं देखता, आप उनसे पूछ लो....अरे क्या भई, ये काम तो आपको उस फलां ऑफिस से करा कर लाना होगा। वहां जाओ तो पता चलता है अरे इतनी छोटी बात के लिए यहां भेजा, नहीं...नहीं ये तो वहीं होता है इस तल पर। कभी यहां भटको, कभी वहां? कह किसी से सकते नहीं, हमारे हाथ हैं ही इतने कमजोर कि करा हमसे कुछ जाता नहीं। हर तरफ कामचोरी, करेला वो भी नीम चढ़ा, सरकारी दफ्तर तो अव्वल हैं, कोई नहीं चाहता काम करना, रिएक्ट तो कर ही नहीं सकते, रिएक्शन पावर जैसे खत्म हो चुकी हो। रोड़ पर गाड़ी चलाते वक्त लड़की भी देखेंगे, मोबाइल पर बीवी से बात भी करेंगे और यदि गाड़ी कहीं भिड़ गई तो लड़ने में देर नहीं करेंगे, सारी एनर्जी, एक्शन, रिएक्शन पावर वहां ही लगाएंगे।
हर तरफ भ्रष्ट्राचार, जालसाजी, कामचोरी, घूसखोरी, नाफरमानी, आरामपसंदगी, मारपीट, खून खराबा, नियम कायदे कानून की गैरफरमानी हम लोगों की रगों में बस चुकी है। कैसे निकाले हम क्या है इसका आपके पास कोई जवाब? यदि है तो बताओ, नहीं तो यहां से ही वापस लौट जाओ पूरा पढ़ो ही मत?
अब तो संभल जाओ मेरे प्यारों,
जैसी है अभी हमारी दुनिया,
इससे अच्छी ना कर सको तो भी,
जैसी है उसे उस हाल में बचा लो,
गर बचा सको तो यारों।
हर दिन का सूरज नई आशा लेकर आता है, बस हमें प्रयास करने हैं और हो सके तो आंख खोलकर, कान खोलकर, अपना दिमाग चलाना है, तो इंतजार किस बात का, चलिए कोशिश अभी से शुरू कर लेते हैं, क्योंकि कोशिश तो सिर्फ आपको-हमको ही करनी होगी।
आपका अपना
नीतीश राज
यहां हर कोई आता है एक अरमान लेकर। एक अरमान, कुछ करने का, कुछ बनने का, और यहां के खोखले आदर्शों में दिवालिया हो जाता है और फिर यहां कि तेज रोशनी तो है ही उसे गर्क में डुबोने के लिए। यहां पर कानून सोता है, ऐसा नहीं कि ये सिर्फ रात में सोता है ये तो दिन से ही उबासियां लेने लग जाता है। दिन से ही हर कोने में कभी किसी की पर्ची तो कभी किसी की जेब कटती रहती है। दिन में दस रुपये और रात में कौड़ियों के भाव बिकता है कानून। विश्वास ना हो तो जाकर देख लो।
घूस के लिए सब राजी। मैं राजी, तुम राजी, तुम लेने के लिए, मैं देने के लिए, बस काम हो जाए, यानी घूस के लिए हम सब राजी। थोड़ा मैं नीचे गिरूंगा, पर काम तो हो जाएगा ना, थोड़ा ज्यादा तुम नीचे गिरोगे, पर क्या करें लोग इतना कहते हैं तो ये सब तो करना पड़ता ही है। शाबाश, हमाम में सभी नंगे हैं एक नंगा दूसरे को क्या नंगा करेगा।
नहीं..नहीं, ये डिपार्टमेंट मैं नहीं देखता आप उनसे मिल लो, नहीं ये मैं नहीं देखता, आप उनसे पूछ लो....अरे क्या भई, ये काम तो आपको उस फलां ऑफिस से करा कर लाना होगा। वहां जाओ तो पता चलता है अरे इतनी छोटी बात के लिए यहां भेजा, नहीं...नहीं ये तो वहीं होता है इस तल पर। कभी यहां भटको, कभी वहां? कह किसी से सकते नहीं, हमारे हाथ हैं ही इतने कमजोर कि करा हमसे कुछ जाता नहीं। हर तरफ कामचोरी, करेला वो भी नीम चढ़ा, सरकारी दफ्तर तो अव्वल हैं, कोई नहीं चाहता काम करना, रिएक्ट तो कर ही नहीं सकते, रिएक्शन पावर जैसे खत्म हो चुकी हो। रोड़ पर गाड़ी चलाते वक्त लड़की भी देखेंगे, मोबाइल पर बीवी से बात भी करेंगे और यदि गाड़ी कहीं भिड़ गई तो लड़ने में देर नहीं करेंगे, सारी एनर्जी, एक्शन, रिएक्शन पावर वहां ही लगाएंगे।
हर तरफ भ्रष्ट्राचार, जालसाजी, कामचोरी, घूसखोरी, नाफरमानी, आरामपसंदगी, मारपीट, खून खराबा, नियम कायदे कानून की गैरफरमानी हम लोगों की रगों में बस चुकी है। कैसे निकाले हम क्या है इसका आपके पास कोई जवाब? यदि है तो बताओ, नहीं तो यहां से ही वापस लौट जाओ पूरा पढ़ो ही मत?
अब तो संभल जाओ मेरे प्यारों,
जैसी है अभी हमारी दुनिया,
इससे अच्छी ना कर सको तो भी,
जैसी है उसे उस हाल में बचा लो,
गर बचा सको तो यारों।
हर दिन का सूरज नई आशा लेकर आता है, बस हमें प्रयास करने हैं और हो सके तो आंख खोलकर, कान खोलकर, अपना दिमाग चलाना है, तो इंतजार किस बात का, चलिए कोशिश अभी से शुरू कर लेते हैं, क्योंकि कोशिश तो सिर्फ आपको-हमको ही करनी होगी।
आपका अपना
नीतीश राज
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Thursday, November 20, 2008
‘लिफ्ट याने मदद, पर ऐसी घटना से लगता है ना करो मदद’
ऑफिस की भागदौड़ के बाद जब हम ऑफिस से निकले तो रात के ११ बजने को थे। वैसे भी शाम को कुछ काम और काम से बड़ा उसको सही ढंग से ऑनएयर करने का प्रेशर कुछ ज्यादा ही रहता है। मैं और मेरे सहयोगी एक साथ हम नीचे उतरे सोचा कि चलो कहीं चलकर कुछ खा लें, फिर दोनों घर की तरफ रुखस्त हों। वैसे भी हम दोनों के रास्ते जुदा हैं एक पूर्व रहता है और दूसरा पश्चिम।
सहयोगी ने ऑफर किया कि चलो पहाड़गंज में एक अच्छा होटल है चलो वहीं चलकर कुछ खा पी लेते हैं, और फिर वो मुझे वापिस ऑफिस छोड़ कर घर चले जाएंगे। भूख के कारण मुझे भी ये फैसला उचित लगा। दोनों की हालत लगभगा एक जैसी थी, दोनों ने जल्दी-जल्दी ड्रिंक और खाना खत्म किया और फिर दोनों घर की तरफ निकल लिए।
अगले दिन जब ऑफिस पहुंचे तो फिर काम में हम दोनों जुट चुके थे। बीच में एक ख़बर आई कि लिफ्ट के बहाने दो लड़कियों ने एक आदमी को हजारों का नहीं लाखों का चूना लगा दिया। पैसे, घड़ी, सोने की चेन, सोने की दो अंगूठी, कार सब लेकर गायब होगई। अब वो आदमी पुलिस के धक्के खा रहा था। मेरा सहयोगी कुछ देर तक अपने दोनों हाथ सर के पीछे करके बैठ गया। मैंने पूछा क्या हुआ। वो खबर की तरफ ज्यादा मुखातिब था, मेरी बात शायद उसने ठीक से सुनी नहीं। मैंने दोबारा पूछा। उसने बताया कि ब्रेक पर बताऊंगा।
ब्रेक में उसने बताया कि कल जब वो मुझे छोड़ कर घर जा रहा था तो दो लड़कियों ने उससे भी लिफ्ट मांगी थी। उसने सोचा कि चलो सलवार सूट में सीधी-साधी लड़कियां हैं। उन दोनों लड़कियों को भी वहीं तक जाना था जहां पर मेरे सहयोगी को जाना था। दोनों को लिफ्ट दे दी, यूं ही तीनों में आपस में बात होने लगी। फिर एक लड़की ने पूछा कि क्या उसने खाना खा लिया है। मेरे सहयोगी ने हां में सर हिलाते हुए जवाब के साथ सवाल पूछ लिया कि और आप लोगों ने? दोनों ने ना में सर हिला दिया। फिर लड़कियों ने एक रेस्त्रां में जा कर कुछ खाने की बात कही। सहयोगी को उस रेस्त्रां की पूरी हिस्ट्री पता थी उस को समझने में देर नहीं लगी कि वो शायद किसी जाल में फंसता जा रहा है। क्योंकि उस जगह पर कॉर्ल गर्ल और शराब दोनों देर रात तक आसानी से मुहैया होते हैं।
अब मेरे सहयोगी ने अपना पीछा उन दोनों से छुड़ाने की कोशिश शुरू कर दी और फिर पता चली वो असलियत जिस के लिए मेरे सहयोगी ने अपने आप को तैयार कर लिया था। यदि आप खाना नहीं खा सकते तो दो-दो ड्रिंक ही कर लीजिए। हमें आपकी मनपसंद जगह पर भी जाने से एतराज नहीं हैं। हमसे सस्ते रेट आपको नहीं मिलेंगे। यदि आपके पास जगह नहीं है तो हमारे पास है लेकिन उसका एक्सट्रा लगेगा, पर आपके लिए हम उसमें भी डिस्काउंट करवा देंगे। यदि पैसे कम है तो आप अपने दोस्तों को भी बुला सकते हैं हम उन्हें भी सर्विस दे देंगे पर दाम फिक्स हैं। यदि कहीं नहीं जाना तो हम अपनी सर्विस आपको आपकी कार में भी दे सकते हैं। लंबी और बड़ी गाड़ी में हमको भी दिक्कत नहीं होगी।
मेरे सहयोगी ने दोनों को बड़े ही प्यार से बहला फुसलाकर वहां से चलता किया पर उसको एक काम जरूर करना पड़ा कि जहां से उनको बैठाया था वहां पर वापस छोड़ना पड़ा। क्योंकि पुलिस की धमकी से मेरा दोस्त खुद फंस सकता था और लड़कियों की एक आवाज से सहयोगी अस्पताल और हवालात दोनों जगह बड़े ही आराम से घूम कर आसकता था। सच मेरे सहयोगी ने बहुत ही अक्लमंदी का परिचय देते हुए दोनों से पीछा छुड़ाया।
बाद में उसने बताया कि, वो इन सब बातों के दौरान सिर्फ उन दोनों लड़कियों की शक्ल देख रहा था। और सोच रहा था कि क्यों उस समय भगवान ने ये अक्ल दे दी कि भली समझकर लिफ्ट दे दी। सभी राहगीरों पर से उठते अपने विश्वास को अपने अंदर कहीं टूटता हुआ महसूस कर रहा था। और शायद कहीं किसी जगह छोटे से कोने में ये सच भी हमारे अंदर पनप रहा है।
आपका अपना
नीतीश राज
सहयोगी ने ऑफर किया कि चलो पहाड़गंज में एक अच्छा होटल है चलो वहीं चलकर कुछ खा पी लेते हैं, और फिर वो मुझे वापिस ऑफिस छोड़ कर घर चले जाएंगे। भूख के कारण मुझे भी ये फैसला उचित लगा। दोनों की हालत लगभगा एक जैसी थी, दोनों ने जल्दी-जल्दी ड्रिंक और खाना खत्म किया और फिर दोनों घर की तरफ निकल लिए।
अगले दिन जब ऑफिस पहुंचे तो फिर काम में हम दोनों जुट चुके थे। बीच में एक ख़बर आई कि लिफ्ट के बहाने दो लड़कियों ने एक आदमी को हजारों का नहीं लाखों का चूना लगा दिया। पैसे, घड़ी, सोने की चेन, सोने की दो अंगूठी, कार सब लेकर गायब होगई। अब वो आदमी पुलिस के धक्के खा रहा था। मेरा सहयोगी कुछ देर तक अपने दोनों हाथ सर के पीछे करके बैठ गया। मैंने पूछा क्या हुआ। वो खबर की तरफ ज्यादा मुखातिब था, मेरी बात शायद उसने ठीक से सुनी नहीं। मैंने दोबारा पूछा। उसने बताया कि ब्रेक पर बताऊंगा।
ब्रेक में उसने बताया कि कल जब वो मुझे छोड़ कर घर जा रहा था तो दो लड़कियों ने उससे भी लिफ्ट मांगी थी। उसने सोचा कि चलो सलवार सूट में सीधी-साधी लड़कियां हैं। उन दोनों लड़कियों को भी वहीं तक जाना था जहां पर मेरे सहयोगी को जाना था। दोनों को लिफ्ट दे दी, यूं ही तीनों में आपस में बात होने लगी। फिर एक लड़की ने पूछा कि क्या उसने खाना खा लिया है। मेरे सहयोगी ने हां में सर हिलाते हुए जवाब के साथ सवाल पूछ लिया कि और आप लोगों ने? दोनों ने ना में सर हिला दिया। फिर लड़कियों ने एक रेस्त्रां में जा कर कुछ खाने की बात कही। सहयोगी को उस रेस्त्रां की पूरी हिस्ट्री पता थी उस को समझने में देर नहीं लगी कि वो शायद किसी जाल में फंसता जा रहा है। क्योंकि उस जगह पर कॉर्ल गर्ल और शराब दोनों देर रात तक आसानी से मुहैया होते हैं।
अब मेरे सहयोगी ने अपना पीछा उन दोनों से छुड़ाने की कोशिश शुरू कर दी और फिर पता चली वो असलियत जिस के लिए मेरे सहयोगी ने अपने आप को तैयार कर लिया था। यदि आप खाना नहीं खा सकते तो दो-दो ड्रिंक ही कर लीजिए। हमें आपकी मनपसंद जगह पर भी जाने से एतराज नहीं हैं। हमसे सस्ते रेट आपको नहीं मिलेंगे। यदि आपके पास जगह नहीं है तो हमारे पास है लेकिन उसका एक्सट्रा लगेगा, पर आपके लिए हम उसमें भी डिस्काउंट करवा देंगे। यदि पैसे कम है तो आप अपने दोस्तों को भी बुला सकते हैं हम उन्हें भी सर्विस दे देंगे पर दाम फिक्स हैं। यदि कहीं नहीं जाना तो हम अपनी सर्विस आपको आपकी कार में भी दे सकते हैं। लंबी और बड़ी गाड़ी में हमको भी दिक्कत नहीं होगी।
मेरे सहयोगी ने दोनों को बड़े ही प्यार से बहला फुसलाकर वहां से चलता किया पर उसको एक काम जरूर करना पड़ा कि जहां से उनको बैठाया था वहां पर वापस छोड़ना पड़ा। क्योंकि पुलिस की धमकी से मेरा दोस्त खुद फंस सकता था और लड़कियों की एक आवाज से सहयोगी अस्पताल और हवालात दोनों जगह बड़े ही आराम से घूम कर आसकता था। सच मेरे सहयोगी ने बहुत ही अक्लमंदी का परिचय देते हुए दोनों से पीछा छुड़ाया।
बाद में उसने बताया कि, वो इन सब बातों के दौरान सिर्फ उन दोनों लड़कियों की शक्ल देख रहा था। और सोच रहा था कि क्यों उस समय भगवान ने ये अक्ल दे दी कि भली समझकर लिफ्ट दे दी। सभी राहगीरों पर से उठते अपने विश्वास को अपने अंदर कहीं टूटता हुआ महसूस कर रहा था। और शायद कहीं किसी जगह छोटे से कोने में ये सच भी हमारे अंदर पनप रहा है।
आपका अपना
नीतीश राज
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वाक्या,
सहयोगी
Friday, October 24, 2008
मुसलमान की शादी में जाने को आतुर क्यों हो? क्यों?
मेरे एक सहयोगी की हाल ही में शादी थी। शादी में जाने का पूरा प्लान मैंने बना लिया था। जब छुट्टी की बात आई तो जैसे की सभी के ऊपर दायित्व होते हैं वैसे ही मेरे ऊपर भी हैं। ऑफिस के साथ-साथ मैं अपनी सोसायटी में भी काफी एकटिव हूं। ऑफिस की बात बाद में पहले सोसायटी की बात करता हूं। जिस दिन मेरे सहयोगी की शादी थी उस दिन सोसायटी में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तो मेरा वहां पर भी होना जरूरी था। मैंने अपनी बात सभी सोसायटी मैंबर्स के सामने रखी। इस बार मेरे बिना ही ये आयोजन करना होगा। और ऐसा भी नहीं था कि मेरी अनुपस्थिती में इतने बड़े आयोजन में कोई भी व्यवधान या दिक्कत आ सकती थी। सोसायटी के एक एक्टिव मैंबर ने मुझसे जाने का सबब पूछा कि आखिर जाना कहां हो रहा है। मैं टाल गया। फिर बात आई कि दो दिन बाद बिजली विभाग के कमर्चारियों के साथ मीटिंग है। तो उस मीटिंग की अगुवाई मेरे को करनी है। मैं बैकफुट पर था मैंने तुरंत मना कर दिया क्योंकि जिस सहयोगी की शादी में मुझे जाना था उस सहयोगी का रिसेप्शन शादी के दो दिन बाद रखा गया था और ऑफिस के कुछ सहयोगियों के साथ मेरा पहले ही प्लान इन दो दिनों के लिए तय हो चुका था। मेरा इनकार करना वाजिव था। मैंने अपनी बात दोहराई कि इन दो दिन तो मैं उपलब्ध नहीं हूं।
उसी मैंबर ने जिसने की पहले पूछा था कि क्य़ा काम है फिर से सवाल दोहरा दिया। इस बार मैंने बिना झिझक के ये बता दिया कि ऑफिस में मेरे एक सहयोगी.........(नाम) की शादी है। जो नाम मैंने लिया जिसको कि मैं यहां बता नहीं रहा हूं सुनकर उन सब के कान खड़े हो गए। तुरंत जो रिएक्शन था वो मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। क्यों जाना चाहते हो यार, हमें तो लगता है कि कोई जरूरी तो होगा नहीं तुम्हारा जाना, ना भी जाओगे तो चलेगा। मैंने बोला ये आपने कैसे सोच लिया। जवाब था, अरे उस शख्स का धर्म अलग है तो हम ये तो कह ही सकते हैं कि वो आपका भाई-बंधु तो है नहीं, तो सोसायटी के इस आयोजन में तो आपकी तरफ से भागीदारी हो ही सकती है।
मैं चुपचाप सुनता रहा। सब के अपने-अपने तर्क थे। कोई कुछ बता के मुझे रोकना चाह रहा था कोई कुछ बता के। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये लोग मुझे काम के कारण रोकना चाहते हैं या कि कोई और वजह है। मैंने जानने के लिए एक सवाल दोहराया। अरे बिना मेरे भी तो कार्यक्रम आयोजित हो सकता है और फिर ऐसा कोई पहली बार तो हो नहीं रहा है। मैंने पिछले आयोजन का हवाला देते हुए बताया कि काफी मैंबर्स पिछली बार नहीं थे। एक-दो बिना तर्क के कुतर्क सामने रखे गए। तभी एक ने बोला एक मुसलमान की शादी में जाने को इतना आतुर क्यों हो? पहली बार तो मुझे लगा कि ना जाने ये इन्होंने क्या कह दिया? भई, मेरे सहयोगी की शादी और इसमें भी धर्म को सामने रखकर क्यों देखा जा रहा है।
वैसे ये पहली बार ही नहीं था जब कि किसी ने हाल के दिनों में मेरे से ये सवाल पूछा हो। ऑफिस और ऑफिस के बाहर भी इन सवालों से दो चार हो चुका था। लेकिन मैंने कभी भी इन सवालों पर तबज्जो नहीं दी। हाल ही में ऑफिस में ही एक सहयोगी ने ही ये सवाल उठाया था। तब मेरा जवाब था कि यदि वो शख्स तुमको कैफे से कॉफी पिलाता है तो तुम दौड़े-दौड़े चले जाओगे। फिर यदि सवाल उस शख्स की शादी का आता है तब तुम पीछे क्यों हट जाते हो। पहली बात तो वो हमारा साथी है फिर बाद में आता है कि शादी कहां है। उसके बाद भी मेरे ख्याल से तो ये सवाल आता ही नहीं है कि शादी किस धर्म के शख्स की है। और क्या शादी में जाने से दूसरा शख्स उस धर्म का हो जाता है।
अफसोस ये रहा कि जिस दिन उसकी शादी थी उस दिन खबर इतनी ज्यादा आगई कि ऑफिस से हम कई शख्स जा भी नहीं सके। पर रिसेप्शन में हम सभी गए। और इतने लोग गए कि दूल्हे ने पूरा वक्त हमारे साथ ही बिताया और साथ में वो बहुत खुश हुआ। ये एक ऐसी शादी थी कि जिसमें हम सभी धर्म के लोग गए और खूब मजा किया। सवाल करने वालों के मुंह पर ये ऐसा तमाचा था कि फिर अभी तक कोई सामने नहीं पड़ता है मेरे। जब भी मेरी सोसायटी के उन लोगों में से कोई मिलता है तो मैं उन्हें शादी की बात बताना नहीं भूलता और वो वहां से कन्नी काटना नहीं भूलते। ऑफिस में भी बढ़ा चढ़ा कर बताता हूं कि अच्छा है जलने वालों को और जलाओ।
रिसेप्शन का काफी अच्छा इंतजाम किया गया था। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। जो नॉन वेज नहीं खाते थे उनके लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन की भी व्यवस्था थी, और वो भी अलग से। वहां देख कर के लगा कि ऐसा नहीं है कि सभी लोग नॉन वेज खाते हैं, बहुत थे जो कि शाकाहारी थे। उसने हम सब का शुक्रिया किया कि हम लोग इतनी दूर उसके यहां पर हाजरी लगाने पहुंच गए थे। लेकिन कुछ भी हो सवालों के बीच इस रिसेप्शन में जाने का आनंद ही कुछ और आया।
आपका अपना
नीतीश राज
उसी मैंबर ने जिसने की पहले पूछा था कि क्य़ा काम है फिर से सवाल दोहरा दिया। इस बार मैंने बिना झिझक के ये बता दिया कि ऑफिस में मेरे एक सहयोगी.........(नाम) की शादी है। जो नाम मैंने लिया जिसको कि मैं यहां बता नहीं रहा हूं सुनकर उन सब के कान खड़े हो गए। तुरंत जो रिएक्शन था वो मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। क्यों जाना चाहते हो यार, हमें तो लगता है कि कोई जरूरी तो होगा नहीं तुम्हारा जाना, ना भी जाओगे तो चलेगा। मैंने बोला ये आपने कैसे सोच लिया। जवाब था, अरे उस शख्स का धर्म अलग है तो हम ये तो कह ही सकते हैं कि वो आपका भाई-बंधु तो है नहीं, तो सोसायटी के इस आयोजन में तो आपकी तरफ से भागीदारी हो ही सकती है।
मैं चुपचाप सुनता रहा। सब के अपने-अपने तर्क थे। कोई कुछ बता के मुझे रोकना चाह रहा था कोई कुछ बता के। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये लोग मुझे काम के कारण रोकना चाहते हैं या कि कोई और वजह है। मैंने जानने के लिए एक सवाल दोहराया। अरे बिना मेरे भी तो कार्यक्रम आयोजित हो सकता है और फिर ऐसा कोई पहली बार तो हो नहीं रहा है। मैंने पिछले आयोजन का हवाला देते हुए बताया कि काफी मैंबर्स पिछली बार नहीं थे। एक-दो बिना तर्क के कुतर्क सामने रखे गए। तभी एक ने बोला एक मुसलमान की शादी में जाने को इतना आतुर क्यों हो? पहली बार तो मुझे लगा कि ना जाने ये इन्होंने क्या कह दिया? भई, मेरे सहयोगी की शादी और इसमें भी धर्म को सामने रखकर क्यों देखा जा रहा है।
वैसे ये पहली बार ही नहीं था जब कि किसी ने हाल के दिनों में मेरे से ये सवाल पूछा हो। ऑफिस और ऑफिस के बाहर भी इन सवालों से दो चार हो चुका था। लेकिन मैंने कभी भी इन सवालों पर तबज्जो नहीं दी। हाल ही में ऑफिस में ही एक सहयोगी ने ही ये सवाल उठाया था। तब मेरा जवाब था कि यदि वो शख्स तुमको कैफे से कॉफी पिलाता है तो तुम दौड़े-दौड़े चले जाओगे। फिर यदि सवाल उस शख्स की शादी का आता है तब तुम पीछे क्यों हट जाते हो। पहली बात तो वो हमारा साथी है फिर बाद में आता है कि शादी कहां है। उसके बाद भी मेरे ख्याल से तो ये सवाल आता ही नहीं है कि शादी किस धर्म के शख्स की है। और क्या शादी में जाने से दूसरा शख्स उस धर्म का हो जाता है।
अफसोस ये रहा कि जिस दिन उसकी शादी थी उस दिन खबर इतनी ज्यादा आगई कि ऑफिस से हम कई शख्स जा भी नहीं सके। पर रिसेप्शन में हम सभी गए। और इतने लोग गए कि दूल्हे ने पूरा वक्त हमारे साथ ही बिताया और साथ में वो बहुत खुश हुआ। ये एक ऐसी शादी थी कि जिसमें हम सभी धर्म के लोग गए और खूब मजा किया। सवाल करने वालों के मुंह पर ये ऐसा तमाचा था कि फिर अभी तक कोई सामने नहीं पड़ता है मेरे। जब भी मेरी सोसायटी के उन लोगों में से कोई मिलता है तो मैं उन्हें शादी की बात बताना नहीं भूलता और वो वहां से कन्नी काटना नहीं भूलते। ऑफिस में भी बढ़ा चढ़ा कर बताता हूं कि अच्छा है जलने वालों को और जलाओ।
रिसेप्शन का काफी अच्छा इंतजाम किया गया था। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। जो नॉन वेज नहीं खाते थे उनके लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन की भी व्यवस्था थी, और वो भी अलग से। वहां देख कर के लगा कि ऐसा नहीं है कि सभी लोग नॉन वेज खाते हैं, बहुत थे जो कि शाकाहारी थे। उसने हम सब का शुक्रिया किया कि हम लोग इतनी दूर उसके यहां पर हाजरी लगाने पहुंच गए थे। लेकिन कुछ भी हो सवालों के बीच इस रिसेप्शन में जाने का आनंद ही कुछ और आया।
आपका अपना
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मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”