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Friday, July 24, 2009

ये दो बयान हैं एक मिट्टी के

अब इस बात को ही आगे बढ़ाता हूं, पिछली पोस्ट (मरवा दी आतंकवादियों से अपनी बेटी, चुप क्यों बैठे हो, क्या वो हत्यारे तुम्हारे भाई हैं?) में कई ब्लॉगर भाइयों ने समझा कि मैं पुरानी बातों पर से पर्दा उजागर कर रहा हूं। पर नहीं मैंने बात छेड़ी थी बिल्कुल नई। क्योंकि कुछ दिन पहले ही शोपियां से महज कुछ किलोमीटर दूर एक लड़की को मार दिया गया और परिवार का कहना है कि लड़की को बेमतलब, बिना वजह मारा गया। और मारने वाले हमारे देश के दुश्मन आतंकवादी हैं। पर किसी भी संगठन ने इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई।

वहीं यदि देखें तो शोपियां केस पर ही दो तरह के बयान पढ़ने को मिले हैं। उसी मसले पर मैंने कुछ पढ़ा है वो आपको भी पढ़ाता हूं.....अब उन से ही मैं ये सवाल पूछना चाहता हूं कि अब क्यों चुप हैं ये अलगाववादी। क्या अब उनकी मां-बहन के साथ अन्याय नहीं हुआ।
"......शोपियां के लोगों को सलाम कि भारतीय व्यवस्था से न्याय की आशा उन्होंने नहीं छोड़ी है। शोपियां में आंदोलन चला रही मजलिस-ए-मुशावरत ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है। हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम और विधि विशेषज्ञ सैयद तसद्दुक हुसैन सीबीआई जांच चाहते हैं। उनकी मायूसी के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। मुशावरत ने चेतावनी भी दे दी है कि इंसाफ के लिए वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक जाएगी। दुनिया के मुस्लिम मुद्दों पर विचार के लिए अमेरिकी प्रशासन की विशेष दूत फारहा पंडित से संपर्क करने की आवाजें उठने लगी हैं।"
वहीं दूसरी तरफ ये भी पढ़ा था....
".....हमारे लिए उससे अधिक चिंताजनक आसिया और नीलोफर केस का अंतरराष्ट्रीयकरण होना चाहिए। किसी भी फौजी तैयारी से हजार गुना ज्यादा असरदार कश्मीरी अवाम का यह यकीन होगा कि भारत का निजाम नाइंसाफी नहीं होने देगी। शोपियां का हादसा एक केस स्टडी है कि हम राष्ट्र राज्य की जड़ों को किस तरह मजबूत करना चाहते हैं। न्याय और अन्याय का अहसास तय करेगा कि रूस के चेचेन्या और चीन के उइगुर सूबे से कश्मीर क्यों और किस तरह भिन्न और भारत का अभिन्न अंग है।"

हैं ना दो अलग-अलग बयान, क्या कहेंगे? ये दोनों बयान कश्मीर से ही निकले हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक जैसे ही लोग वहां पर रहते हैं पर हां अभी वहां को काफी सुधार की गुंजाइश बाकी है।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, July 23, 2009

मरवा दी आतंकवादियों से अपनी बेटी, चुप क्यों बैठे हो, क्या वो हत्यारे तुम्हारे भाई हैं?

क्यों मेरे ब्लॉगर भाइयों, देश की सेना पर सवाल उठाने से तो तुम्हारे हांथ नहीं कांपते पर आतंकवादियों के खिलाफ....।


सभी को याद होगी शोपियां की वो घटना जिसने भारत में एक बहस को जन्म दिया था। कई बार ये भारत कहता रहा है कि जम्मू-कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है फिर भी भारत की अवाम और निजाम दोनों पर ये इल्जाम लगता रहा है कि वो उनके साथ अपनों जैसा व्यवहार नहीं करते। राज्य में घुसपैठियों-आतंकवादियों के कारण हमेशा ही सेना अपनी जान दांव पर लगाकर रक्षा करती रहती है। पर जब शोपियां केस हुआ तो इस इल्जाम ने राज्य में सेना के होने पर ही सवालिया निशान लगा दिया। 29 मई को शोपिया में दो युवतियों के साथ रेप फिर हत्या का मामला सामने आया था। पूरा जम्मू-कश्मीर लामबंद हो गया था। अलगाववादियों ने आह्वान किया कि शोपिया चलो। अलगाववादियों के भड़काने पर तब पूरा कश्मीर सड़कों पर उतर आया। सरकार ने भी एक नहीं दो-दो बार जांच और पोस्टमार्टम करवाए। पहला पोस्टमार्टम करने वालीं डॉक्टर से वहां के लोगों और भाइयों ने कुरान पर हाथ रखवाकर पूछा कि क्या रेप हुआ तो वो फूट पड़ीं और बता दिया कि लगता तो है कि १५-१८ लोगों ने रेप किया था। तो देश भर से आवाज़ उठी कि जिन्होंने भी रेप किया है उन्हें सज़ा जरूर मिलनी चाहिए।

फिर एक लड़की शिकार हुई है वहीं श्रीनगर के शोपियां में। पर इस बार ये बर्बरता पुलिस ने नहीं आतंकवादियों ने मचाई है।


अब अलगाववादियों की बारी थी और ४७ दिन तक कश्मीर की सड़कों पर कोहराम मचा रहा। मजलिस-ए-मुशव्वरात ने हड़ताल का आह्वान किया सभी दुकानें और बिजनेस प्रतिष्ठान पर वो ऐसे हावी हो गए जैसे कि वो खुद सरकार हों और जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।


आप सोच रहे होंगे कि मैं गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहा हूं? क्योंकि फिर एक लड़की शिकार हुई है वहीं श्रीनगर के शोपियां में। पर इस बार ये बर्बरता पुलिस ने नहीं आतंकवादियों ने मचाई है लेकिन हर बार आवाज़ उठाने वाले अलगाववादी इस पर पूरी तरह से खामोश हैं। करीब तीन-चार दिन पहले तीन आतंकवादी रात में एक लड़की के घर में रुके, फिर खाना खाया और जाते-जाते उस लड़की को खाने का नजराना उसकी मौत के रूप में दे गए वो भी बिना वजह। उन्होंने लड़की को गोलियों से भून दिया। और ये सब हुआ महज शोपियां से दस किलोमीटर की दूरी पर। उस दसवीं की छात्रा के जनाजे में कोई नेता, अलगाववादियों की तरफ से कश्मीरियों का रहनुमा, यहां तक कि गांव के लोग भी शरीक नहीं हुए। ना ही किसी पार्टी ने हड़ताल का आह्वान किया ना ही किसी ने कोई पुकार लगाई ना ही कोई सड़कों पर उतरा। क्योंकि वो तीनों आतंकवादी थे।

उस दसवीं की छात्रा के जनाजे में कोई नेता, अलगाववादियों की तरफ से कश्मीरियों का रहनुमा, यहां तक कि गांव के लोग भी शरीक नहीं हुए।


मैं इधर पुलिस वालों को क्लीन चिट देने नहीं बैठा हूं। मैं यहां पर देश के धोखेबाजों से पूछने बैठा हूं कि एक लड़की की मौत पर बवाल तो वहीं दूसरी की मौत पर सौतेली नीति क्यों? यदि एक मौत की कीमत अलगाव है तो दूसरी मौत की कीमत भी अलगाव होनी चाहिए। क्यों अब वहां के कट्टरपंथी आगे नहीं आ रहे हैं उन लोगों को सजा दिलाने के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठा रहे हैं। क्या वो आतंकी उनके भाई है?


ये वो ही शोपियां है ना जहां पर उन दो मासूमों की मौत के बाद बाद सियासत की आग भी खूब लगी थी। अलगाववादियों ने सेना पर निशाना साधा था, राज्य से बाहर निकालने की बात कही थी। लोगो का जीना मुहाल हो गया था। पर अब क्या हुआ कश्मीर के चाहने वाले, मौकापरस्त कौम कहां है? क्यों आगे आकर इसी सरकार से दर्ख्वास्त करती कि इन आतंकवादियों को निकालो यहां से। पर पहले खुद इन्हें पनाह देना बंद करना होगा। अफसोस, इस घटना पर अब कोई आवाज उठानेवाला भी नहीं है।


क्यों मेरे ब्लॉगर भाइयों, देश की सेना पर सवाल उठाने से तो तुम्हारे हांथ नहीं कांपते पर आतंकवादियों के खिलाफ लिखने पर तुम्हें क्या हो जाता है। जनतंत्र है...जनतंत्र.....जवाब दो


आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, July 14, 2009

ऐसा है हमारा कानून और ऐसे हैं हमारे कानून के रखवाले, शर्म आती है।

पहले फिल्मों में देखता था ये सब अब इसे सामने देख रहा हूं। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर सब कहते फिरते थे कि फिल्में हमारे समाज का आइना होती हैं और मैं विश्वास नहीं करता था पर आज मानने को मजबूर हूं।
जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं।

एक घटना है परसों की और दूसरी घटना है बरसों पहले घटी थी पर नतीजा कल आया। दोनों ही हरकतें शर्मनाक हैं। फिल्मों में दिखाते थे कि कानून पर कैसे भारी पड़ते हैं नेता, ये बात सच साबित होगई है। दूसरा, कैसे पुलिस और गुंडों-बदमाशों में होती है साठगांठ। कुछ पुलिसवाले ही होते हैं बदमाशों के इनफोर्मर। कैसे बदले जाते हैं दिए हुए बयान और कोर्ट में खुद कई पुलिसवाले कैसे मुकर जाते हैं अपने दिए हुए बयान से।
याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो।


प्रोफेसर सब्बरवाल हत्याकांड के सभी आरोपी बरी। क्यों?

सभी ने देखा था वो हादसा टीवी पर, पर अंधेकानून को नहीं दिखाई दिया, प्रमाण के अभाव में छोड़ दिए सभी आरोपी। जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं। बेटा फरियाद करता रहा कि पिता के हत्यारों को सज़ा मिले पर कानून इस बार अंधे के साथ-साथ बहरा भी निकला।

अगस्त २००६, उज्जैन के माधव कॉलेज के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रोफेसर सब्बरबार को कथित तौर पर अभियुक्तों कॉलेज कैंपस में क्रूरता से पीटा था और पिटाई में गंभीर चोट के शिकार प्रो।सब्बरबाल ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था। याद आती है वो व्हील चेयर जिसमें प्रो।सब्बरबाल को बैठाकर अस्पताल लेजाया जा रहा था, सभी न्यूज चैनलों ने इस को काफी अहमियत से दिखाया था।

याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो। क्यों कह रहा था वो ऐसा क्योंकि अध्यापकों ने उसे फेल नहीं कर दिया था ब्लकि कॉलेज में छात्रसंघ के चुनाव में धांधली के लगे आरोपों के कारण अध्यापकों ने चुनाव टाल दिए थे। वो युवक बीजेपी की यूथ विंग एबीवीपी का अगुवा था। शायद ही कभी किसी अध्यापक ने अपने छात्र से ऐसे संबोधन सुने होंगे। सारे न्यूज चैनलों ने गोला लगा-लगाकर बार-बार दिखाया था इसे। तो क्या कोर्ट को ये सब नहीं दिखाई दिया। कोर्ट ने ये बात कैसे मान ली कि जब ये हादसा हुआ तो ये ६ अभियुक्त वहां पर मौजूद नहीं थे।

सरकारी वकील पर उठ रही हैं उंगली उसके पीछे का कारण ये है कि जब मध्यप्रदेश में इस केस की सुनवाई होनी थी तब वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पहले ही इसे हादसा घोषित कर दिया था। बीजेपी के हैं तो क्या बीजेपी के युवा छात्रसंघ का साथ नहीं देंगे क्या। साथ नहीं देंगे तो ये बात मुख्यमंत्री साहब भी जानते हैं कि फिर सत्ता में आना उनके लिए मुंगेरीलाल के सपनों की तरह हो जाएगा। कहा जा रहा है कि सरकारी वकील ने इस केस में कई कमियां छोड़ रखी थी। दूसरी बात पुलिस पहले दिए हुए अपने बयान से कोर्ट में मुकर गई। जब ये हादसा हुआ था तो २००६ था उसके बाद अभियुक्तों को पकड़ा गया था तो इतने समय से उनको जेल में क्यों रखा गया। कोर्ट ने भी इस बारे में चुप्पी नहीं तोड़ी। क्यों? वर्ना सवाल तो ये ही खड़ा होता है कि पुलिस ने इन लोगों को किस आधार पर पकड़ा जब सबूत ही नहीं था। चार दिन के अंदर प्रो। सब्बरबाल के बेटे हिमांशु सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रहे हैं। पर इस फैसले से कि ६ के ६ सभी अभियुक्त बाइज्जत बरी कर दिए गए सबको हैरानी जरूर हुई है। और इस बात का पता भी चलता है कि कहां-कहां तक कौन-कौन आपस में मिला हुआ है।
यदि शिकायत करेंगे तो पुलिसवाले बदमाशों को आपका पता दे देंगे और फिर वो आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर देगा और आप मरहूम कहलाए जाएंगे।


मुंह खोलोगे, मरोगे।

जी हां, यदि आप किसी की कंप्लेंट करने जा रहे हैं तो संभल जाइएगा। शिकायत करनी भी हो तो पर्दे के पीछे से कीजिएगा, किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि आप कौन हैं। क्योंकि आज कल रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। पता नहीं कब कौन पुलिसवाला जाकर उस गिरोह को बता दे कि आप हैं शिकायतकर्ता। और फिर वो गिरोह समय देखकर आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर दे और आप मरहूम कहलाए जाएं।

दिल्ली के अशोक विहार में एक शख्स पार्क में चल रहे सट्टे के धंधे की शिकायत करने पुलिस थाने गया। वहां पर और लोगों के साथ मिलकर शिकायत लिखवाई जो कि पहले भी कई बार लिखवाई जा चुकी थी पर हुआ कुछ नहीं था। इस बार कुछ ऐसा हुआ जो कोई सोच भी नहीं सकता था। तीन पुलिसवालों ने इस शिकायत को जगजाहिर कर दिया और भी किस के सामने उनके जिनके खिलाफ शिकायत हुई थी। इस बात से साफ जाहिर हो गया कि पुलिसवालों की साठगांठ थी गोरखधंधा चलाने वालों से।

फिर क्या था रात के अंधेर में जब वो अपनी राशन की दुकान बंद करके आ रहा था तो उस शख्स को तलवार से काट दिया गया। मृतक के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। कोई अमीर आदमी नहीं था जिसे मारा गया। यतीम हो चुके बच्चों का क्या था कसूर? वैसे तो चार लोगों को नामजद कराया गया है पर माना जा रहा था कि उसने काटने वाले सिर्फ चार नहीं थे दर्जन थे। उन तीन पुलिसवालों को फिलहाल तो सस्पेंड कर दिया गया है।

क्या अब किसी गलत काम की शिकायत करना भी गुनाह है? क्या किसी पर भी अब विश्वास नहीं किया जा सकता खासकर कि कानून से जुड़े लोगों पर? दोनों वारदातों के बाद तो कानूनवालों पर शर्म आई और अपने कानून पर भी।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, June 4, 2009

अपनी मां का क़त्ल, २४ वार, तब तक मारा जब तक मर नहीं गई वो। क्या नैतिक पतन हो रहा है महिलाओं का?

क्या हवस-वासना के आगे हम अंधे हो जाते हैं? क्या हवस इतनी बड़ी चीज होती है कि कोई उस पर काबू नहीं रख पाए? ‘लस्ट’ याने काम भोग की इच्छा करना और यदि इस इच्छा के बीच में कोई आए तो उस को रास्ते से हटा देना। क्यों बरसात के समय में जानवरों के इलाकों में जाने की मनाई होती है। उसका कारण है कि जानवर जब संभोग करता रहे तो गर कोई उसे इस बीच तंग करे तो वो हमला कर देता है। क्या इंसान फिर से जानवर की तरह ही बनता जा रहा है?

एक मां सारे कष्टों को सहते हुए अपने बच्चों को अपना रूप देने की कोशिश करती है, सही इंसान बनाने की कोशिश करती है। पर क्या गलती हो गई थी उस मां से, जिसने अपनी बेटी को वो करने से रोका जो कि मां को गलत लगा था। शायद उस मां ने भी सोचा होगा कि बस बहुत हो चुका, अब आगे नहीं। बेटी को गलत करने से रोकना ही होगा। मां ने रोका और बेटी ने मां पर तब तक वार किए जब तक की वो मर नहीं गई।

एक, दो, तीन नहीं दर्जन से ज्यादा ब्वॉयफ्रेंड थे साक्षी के। वो अधिकतर अपने घर पर ही उनको बुलाती थी जब कि परिवार वाले घर पर नहीं होते थे। ऐसे ही उसने अपने एक ब्वॉयफ्रैंड को बुलाया और दोनों लिप्त हो गए उस कांड में जिसे की उसकी मां सत्संग से थोड़ा जल्दी वापस आने पर देख नहीं सकी। पर हवस-वासना की आग ने बेटी और उस लड़के से वो करवा दिया जो वो होश में नहीं कर सकते थे। पहले सर पर बीयर की बोतल, फिर सर पर प्रैस से चोट, फिर चाकू और पेचकस से वार। पूरा कमरा खून से लथपथ। उसके बाद लूटपाट की प्लानिंग। पुलिस ने अब तक ये ही जानकारी दी है। पर वहीं दूसरी तरफ पिता और पड़ोसियों की मानें तो ये कि साक्षी पढ़ने में अच्छी थी साथ ही अब वो पढ़ा भी रही थी। और कभी भी कोई शिकायत किसी के सामने नहीं आई थी।

क्या ये मानें कि २६ साल की जवान लड़की गर घर में अविवाहित होगी तो ऐसा होना स्वाभाविक है? क्या ये नारी का नैतिक पतन है? इस एक वाक्ये के कारण ही नहीं कई और भी वाक्ये सामने आए हैं पिछले कुछ समय में जो इस सवाल पर सोचने को मजबूर करते हैं।

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”