Wednesday, March 10, 2010

वो पुरानी चौखट की याद


उस दिन धूप अच्छी थी ठंड के दिन जो शुरू हो चुके थे। ठंड की धूप बूढ़े हो चुके जिस्म पर पड़ती तो काली-सफेद चमड़ी सिक कर लाल-काली हो जाती। याद है, उस दिन उम्र के सफर में पक चुके दो जिस्म धूप में चमड़ी काली करने के बाद जैसे ही घर की ड्योढ़ी चढ़े थे उसमें से एक जिस्म ने दूसरे का लगभग साथ छोड़ दिया था। लगा था कि जैसे धूप की गर्मी ने उस पक्के जिस्म में गर्मी भर रखी थी जैसे-जैसे धूप कम हो रही थी पास में रखी लौ बुझने का इशारा कर रही थी। पहले तारे के साथ ही घर का सबसे चहेता तारा टूट गया और पीछे छोड़ गया आंखों में पानी।

ट्रेन में बैठी तारा को धुंधला दिखने लगा था। यादों ने दिल पर अपना कब्जा कर के मन को भर दिया था जो आंखों के रास्ते छलक भी रहा था। आज पूरे एक साल के बाद तारा अपने ननिहाल जा रही है। पता नहीं उस एक जिस्म से मिलने जो कि अभी छत पर बैठा धूप में अपने जिस्म को काला कर रहा था या फिर उस जिस्म के लिए जिसकी यादों ने आंचल को गीला किया था।

स्टेशन की भागदौड़ ने आंखों को सामने देखने का हौसला दिया और एक हाथ में सामान और दूसरे हाथ से अपने पांच साल के बच्चे का हाथ थाम उसने घर का रुख किया। ये शहर बहुत अपना और बहुत पराया दोनों लगता है। ये शहर और घर को जाते रास्ते भुलाए नहीं भूलते पर कभी बिल्कुल अनजाने से लगते हैं। कितनी बार आई हूं यहां पर कभी उन दोनों जिस्मों की गर्मी के साथ तो कभी एक के साथ। पर आज चाह कर के भी दोनों जिस्मों के स्पर्श का एहसास नहीं कर सकती।  

रिक्शे से उतरकर गली में दाखिल होते ही नजरें उस चौखट पर पड़ी जहां वो जा चुका शख्स मेरे आने का इंतजार किया करता था। आज वो चौखट खाली थी, मेरे इंतजार में कोई नहीं खड़ा था। आंखों ने फिर से साथ छोड़ दिया। ऐसा क्यों होता है कि जब हम घर के पास पहुंचने लगते हैं तो पैर भी लड़खड़ाने लगते हैं इस चाहत में कि यहां तो इस दर्द को सहारा मिल ही जाएगा।

तारा ने चौखट से खड़े होकर पहले अंदर का जायजा लिया। आंगन पर धूप खिली हुई थी। तभी छत पर आहट हुई। सिर्फ सर दिख रहा था ऐसा लगा जैसे कि कुर्सी थोड़ी खिसकाई गई हो। तारा ने घर के अंदर कदम रखा। आंगन को पार करते हुए मां-बेटे दोनों ने सामान और फल की पन्नी को कमरे में रखा। बिना घर वालों से दुआ-सलाम किए दोनों छत पर जा पहुंचे।

ठीक से सुनाई नहीं देता, देखने में भी परेशानी पर शरीर अभी भी चुस्त। दोनों मां-बेटे दीवार से लगकर उस शून्य में ताकती आंखों में झांकने की कोशिश करते रहे। बूढ़े जिस्म में हरकत हुई और उसने उठकर आसमान में देखते हुए अपनी कुर्सी को छाया से थोड़ा दूर करके धूप में डाली और जा बैठा शून्य के साथ।

बच्चे के हाथ पर एक बूंद आकर गिरी लड़के ने नजर ऊपर नहीं उठाई वो नीचे देखता रहा, समझ चुका था कि मां की आंखों ने फिर से एक बार साथ छोड़ दिया है। बेटे ने हाथ पर गिरी बूंद को यूं ही बहने दिया और दूसरे हाथ से अपने गालों पर उभर आई लकीरों को पोछ दिया।

दोपहर बाद की धूप धीरे-धीरे खिसक रही थी परछाई लंबी होती जा रही थी। तारा ने आगे बढ़कर उन बूढ़े कंधों को छुआ जो थोड़ा और झुक चुके थे। उन हाथों के एहसास ने सामाजिक तुजुर्बेकार से तारा के वहां होने की चुगली कर दी थी।

आगई तू? सुबह से धूप के साथ चल रहा हूं, वो जहां जाती है उठके साथ हो लेता हूं। तूने देर कर दी, तुझे तो दोपहर तक आजाना चाहिए था अब तो शाम हो चली है।
धूप खत्म होने से पहले पहुंच ही गई मैं। आओ, नीचे चलें।

बूढ़ी सीढ़ियों को जवानी की सीढ़ियों का सहारा मिल गया। कंधे नीचे आते हुए थोड़ा ऊंचे हो गए थे।

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”