Thursday, July 31, 2008

आखिर तुम से पल्ला झाड़ ही लिया

बाबू, यहां पर अलग-अलग तरह के रंग मिलते हैं। इनके रंग भी बिल्कुल अलग हैं, सबसे निराले रंग हैं, अपने में सबसे अनोखे। गिरगिट की तरह रंग बदलना तो कोई इन से सीखे। गिरगिट भी सामने आ जाए तो इनकी रंग बदलने की फितरत से गश खाकर गिर जाए, कहे, मैं चाह कर भी इन जैसा नहीं बन सकता, नहीं बदल सकता इतनी तेजी से रंग। लेकिन कुछ भी हो इनके रंग बदलने की अदा देखकर ही मजा आ जाता है। आज जो सगा है वो कल सौतेला और परसों कोई और, फिर एक दिन दुश्मन या फिर किसी दिन प्रेस ब्रीफिंग में कह देंगे कि, 'याद नहीं, हम नहीं जानते'। याद दिलाने की कोशिश भी करेंगे तो आपके सवालों का जवाब, सवाल बन कर ही सामने आएगा आपके।
बीजेपी ने अपनी नियमित प्रेस ब्रीफिंग में सुषमा स्वराज से, अपना पल्ला झाड़ लिया। कह दिया ये सुषमा जी कि निजी राय है। ये राय बीजेपी की नहीं है। जो भी सुषमा जी ने कहा है वो राय राजग याने एनडीए की भी नहीं है। बीजेपी पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर जब ये कह रहे थे तो पत्रकारों ने सवाल दागा कि आज आप किस अधिकार से बोल रहे हैं क्योंकि यहीं पर बैठकर सुषमा जी ने जो बयान एक दिन पहले दिया था। उस पर आप आकर सफाई भी दे रहे हैं और पूरी तरह से पल्ला भी झाड़ रहे हैं। तब जावड़ेकर जी को बोलना पड़ा कि वो यहां पर पार्टी के प्रवक्ता की हैस्यित से ही आए हैं। इन नेताओं के भी क्या कहने, कभी भी किसी को भी गच्चा दे जाते हैं।
सवाल ये कि क्या पार्टी से बड़ी हो गई हैं सुषमा स्वराज, जो कि बिना पार्टी या फिर घटग दलों से मशवरा करके अपनी राय दे रहीं हैं? नियमित प्रेस ब्रीफिंग क्यों की जाती है? क्योंकि इस समय जब कि देश आतंकवाद से जूझ रहा है और बीजेपी के ही दो शासित प्रदेशों में ये विपदा आई हैं तो सभी जानना चाहते हैं कि आप की पार्टी और राज्य सरकार क्या सोच रखती है और क्या फैसले लिए जा रहे हैं। माना कि वरिष्ठ नेता हैं सुषमा जी बीजेपी की। उनको जो भी बोलना था तो सोच समझकर बोलना चाहिए था। सुषमा जी पर भी दबाव बनाया गया तो सामने आकर उन्होंने कह दिया कि “ये पूरी तरह से मेरी निजी राय है साथ ही मैंने ये नहीं कहा था, केंद्र सरकार ने ये सब करवाया है, मैंने तो ये कहा था कि यूपीए में कुछ लोग ऐसा कर सकते हैं। जो कि वोट-नोट प्रकरण से ध्यान हटवाना चाहते हों”। कितनी अच्छी हैं आप सुषमा जी तुरंत पलट गई। जब ही आपको अपना रोल नेता मानकर आप ही की पार्टी के ८ नेता वोट देते हुए पलट गए। जब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का यही हाल है और इस बयानबाजी में पड़े हुए हैं तो फिर तो पार्टी का अल्लाह ही मालिक है। (मेरे पिछले आर्टिकल 'सुषमा स्वाराज चुप रहो' में पूरा बयान है सुषमा स्वाराज का) ।
कई बार लगता है कि कुछ वरिष्ठ या यूं कहूं कि कुछ बूढ़े नेता सटिया गए हैं तो गलत नही होगा। माना ये जाता है कि उम्र के साथ अकल और तजुर्बा भी बढ़ता है। लेकिन इन नेताओं के साथ तो उल्टा ही है। बुढ़ापे में जोश जोर मार रहा है।
श्री प्रकाश जायसवाल जी को क्या सूझा कि वो पागलों की तरह गोधरा प्रकरण को उछालने लगे। राज्य सरकार पर तोहमत लगानी है तो सुरक्षा के मामलों पर लगाइये। गुजरात में दो जगह सूरत और अहमदाबाद में ४८-५० बम मिल चुके हैं। और आतंकवादियों का साहस तो देखिए जब मोदी सुरक्षा का जायजा लेने सूरत की गलियों में घूम रहे थे तब वो बम को प्लांट कर रहे थे। ऐसे हौसले हो गए हैं दहशतगर्दों के। राज्य सरकार को लताड़ पिलानी है तो इस मुद्दे पर पिलाइये। लेकिन ये क्या आप लगे सांप्रदायिकता को हवा देने। यदि सांप्रदायिक दंगे भड़क जाते हैं तो कांग्रेस इस दंगों पर अपनी राजनीति की रोटियां सेकने लग जाएगी। अगर दंगे फैले तो दिग्विजय सिंह और जायसवाल भी उतने ही जिम्मेदार होंगे जितने की खुद मोदी हैं।
अधिकतर नेता अब राज ठाकरे की तरज पर काम करने लगे हैं या यूं कहें की बनते जा रहे हैं। राज ठाकरे की तरह सिर्फ ऐसी बातें बोलना जिससे अपने पर कैमरे की लाइट पड़े। और वो अगली सुबह हर पेपर और न्यूज़ चैनलों की हेडलाइन बनें। इन कैमरे वालों को भी कुछ मसाला चाहिए होता है तभी वो लोग कुछ सेल्समैनी कर पाएंगे, कुछ बेच पाएंगे (कभी ये सेल्समैन भी निशाने पर आएंगे)। यदि अब नहीं सुधरे तो एक दिन ये ही होगा कि दोनों पछताएंगे।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, July 30, 2008

"भगवान से प्रार्थना है और बम ना मिलें"

सूरत की सूरत को बिगाड़ने का पूरा इंतजाम आतंकवादियों ने कर रखा था। एक दिन में 18 जिंदा बम बरामद हुए, हर समय दिल में डर बना रहा कि कहीं इनमें से कोई भी फट गया तो पता नहीं कितनों की जान जाएगी। सूरत में तो बम मिल रहे हैं वहां की हवा में दहशत है साथ ही साथ ख़ौफ़ तो हमारे दिल में घर करता जा रहा है। इतनी तादाद में जिंदा बम मिलने से लगता तो ये ही है कि अहमदाबाद के बाद सूरत ही था निशाने पर। सूरत में बारूद हर जगह बिछा हुआ था। ऐसा भी नहीं कि अभी और जिंदा बम नहीं हो सकते, हो सकते हैं पुलिस इस से इनकार नहीं कर रही। साफ जाहिर है, कि अभी संकट टला नहीं, बारूद के ढेर पर ही बैठा है सूरत। एक दिन पहले ही दो कारों से विस्फोटक बरामद हुए। उन कारों में भी जिंदा बम मिले। जगह-जगह पर बम मिल रहे हैं। गली में, कूड़ें में, टिफिन में, यहां तक की पेड़ पर भी। पुलिस ने लोगों को आगाह भी किया है कि संदिग्ध वस्तु की सूचना तुरंत पुलिस को करें और सतर्क रहें। वहीं लोगों का साथ पुलिस और प्रशासन के साथ है।
यहां पर मन में सवाल सिर्फ ये उठता है कि किस कारण से यहां पर इतने विस्फोटक मिल रहे हैं। क्या सूरत के साथ-साथ पूरे गुजरात को उड़ाने का प्रोग्राम था इन दहश्तगर्दों का। लेकिन अब आए दिन कई थ्यौरी आ रही हैं कि इसके बाद महानगर जैसे दिल्ली-मुंबई या फिर मध्यप्रदेश निशाने पर थे। ये कयास तो लगते रहेंगे।
दूसरी तरफ, ख्याल ये भी आता है कि अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट के बाद पुलिस और आम लोगों में सतर्कता काफी बढ़ी। इस वजह से अपने मंसूबों में ये अमन के दुश्मन कामयाब नहीं हो पा रहे हों और वो इन बमों का इस्तेमाल सिर्फ दहशत फैलाने के लिए कर रहे हों। आतंकवादियों को भी डर होगा कि गुजरात के दिल पर उन्होंने हमला किया है यदि उनमें से कोई विभीषण पुलिस को ख़बर कर दे या कैसे भी पुलिस को इन के ठिकाने के बारे में पता चल जाए और पुलिस इन तक पहुंच जाए तो, बारूद, बम, विस्फोटकों का जखीरा जो उनके पास है जिससे वो हमारे देश में क़हर बरपाना चाहते हैं वो पुलिस के हाथ लग जाएगा और इनका भंडाफोड़ हो जाएगा। इसलिए ये इन बमों को सिर्फ ठिकाने लगा रहे हैं, अपने पास से निकाल रहे हैं।
इतनी मात्रा में बम और विस्फोटकों के मिलने से तो ये ही लगता है कि पूरे देश पर आतंकवाद के काले बादल मंडर रहे हैं। कब बरस पड़ें कुछ पता नहीं। सूरत के वराछा में एक किलोमीटर के फासले पर ही 7 बम बरामद हुए हैं। वराछा से ही पहले विस्फोटकों से भरी एक लाल रंग की वैगन आर मिल चुकी है और अभी जिंदा बमों के मिलने का सिलसिला थमा नहीं है।
सलाम करना चाहता हूं अपनी जान पर खेलकर उन जिंदा बमों को निष्क्रिय करने वालों को। माना उन को ट्रैनिंग दी जाती है पर क्या भाग्य हमेशा साथ देता है। फिल्मों में जब कभी भी ऐसा दृश्य आता है तो सब देखने वालों की उंगली अनायास ही मुंह की तरफ बढ़ जाती है और जैसे ही पर्दे पर कलाकार अपनी कला का नमूना दिखाते हुए उस बम को नाकाम करने की कोशिश में जुटता है, देखने वाले अपने नाखूनों को कुतरने लग जाते हैं। लेकिन वो पर्दे पर चलता रहता है, रील लाइफ में। जिसमें हमें-आपको सब को पता रहता है कि हीरो को कुछ नहीं होगा। लेकिन ये रील नहीं रियल लाइफ हैं। यहां पर रीटेक नहीं होते। अब आप सोचिए, उस शख्स के जिगरे के बारे में जो उस ओर अपने कदम बढ़ाता है जहां पर शायद उसके शरीर के चिथड़े तक उड़ सकते हैं। सुरक्षा कवच पहनने के बाद भी उसके शरीर के कई अंग-हिस्से हैं जो कि खराब तक हो सकते हैं। लेकिन जिस तरह से राकेश यादव और संदीप ने अपने काम को अंजाम दिया है वो काबिलेतारीफ है।
मैं साथ ही सलाम करना चाहता हूं वहां की जनता को जो संयम और सूझबूझ का परिचय दे रही है। इस कठिन समय में वो अपना हौसला बनाए हुए है और देश का भी हौसला बढ़ा रही है। विश्वास है ये कि ये काले बादल जल्द ही छट जाएंगे और हवा में आतंक का जहर नहीं घुला हुआ होगा। भगवान, अब और नहीं, और बम नहीं मिलें....
बस, दुआ है ऊपर वाले से.....

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना....,
हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूल कर भी कोई भूल हो ना.....।

(एक तरफ तो लोग अपने हौसले का परिचय दे रहे हैं और दूसरी तरफ सुषमा स्वराज के बयान के बाद श्रीप्रकाश जायसवाल का बयान आया। बीजेपी के वार का पलटवार करते हुए श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा, कि "ये राज्य सरकार के बीते दिनों का किया धरा है जिसके कारण उस राज्य सरकार को ये दिन देखना पड़ रहा है, जैसा बोओगे वैसा काटोगे"। क्या ये सही वक्त है ऐसे घटिया वक्तव्य देने का। पलटवार की इतनी भी जल्दी क्या, कि आप इस समय को बीत जाने देना भी नहीं चाहते। यदि इन्हीं वक्तव्यों के कारण गुजरात में सांप्रदायिक दंगे फैल गए तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। तब तो ये पार्टियां खूब रोटी सेकेंगी उन जलते हुए आशियानों पर। क्यों ये नेता चुप नहीं रह सकते। मत करो बयानबाजी, कुछ तो शर्म करो।डायन भी सात घर छोड़ देती है पर ये तो...।बेशर्म हैं।)

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, July 29, 2008

"सुषमा स्वराज चुप रहो..."

कैसा है ये मेरा देश? एक तरफ लोग मर रहे हैं और दूसरी तरफ इन्हीं मरे लोगों पर हमारे द्वारा चुने लोग सियासी चाल चल रहे हैं ये हमारे देश के नेता। सवाल उठता है कि क्या ये ही होती है राजनीति? कोई भी दीन-इमान नहीं। ये देश के राजनेता हैं, हमारे नेता हैं या फिर सिर्फ किसी पार्टी के। राजनीति मैं कोई अपना नहीं होता, सिर्फ होता है तो दल, उनकी अपनी पार्टी। अब तो पार्टी भी अपनी नहीं। उस पार्टी के लिए वो कुछ भी कर सकते हैं। कितने ही झूठे आरोप दूसरों पर लगा सकते हैं। जब से विश्वास मत मनमोहन सरकार ने हासिल किया है तभी से आरोपों का दौर चल निकला है। धमाकों के बाद तो ये और तेज होगया। सूरत अब भी बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है। इसकी शायद किसी को परवाह नहीं। वो तो राजनीति करने में लगे हैं। हर दिन वहां से जिंदा बम मिल रहे हैं। सूरत में विस्फोटकों से भरी कार मिलने के बाद एक चैनल पर केंद्र सरकार के नुमाइंदे और राज्य सरकार के प्रवक्ता कुत्ते-बिल्ली की तरह एक घंटे तक लड़ते रहे। एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगाते रहे। वैसे तो ये आए दिन चल ही रहा है लेकिन अब इसको आगे बढ़ाया बीजेपी की वरिष्ठ नेता सुष्मा स्वराज ने। सुष्मा तो दो कदम आगे ही निकल गईं और केंद्र सरकार को इस घिनौनी वारदात का सरगना ही बता दिया।

सुष्मा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, 'जहां तक इन दो घटनाओं का सवाल है बैंगलोर और अहमदाबाद का मुझे इसमें एक साजिश की गंध आती है और ये बात मैंने कल भी कही थी एक पब्लिक मीटिंग में, और आज भी दोहराना चाहती हूं, कि मुझे इसमें एक मेजर कॉन्सपिरेसी की बू आती है कि ये कैश फोर वोट स्कैंडल से ध्यान बटाने के लिए और अमेरिका परस्ती के कारण जो मुस्लिम वोट इन से छिटक गया है उस को भाजापा का कृतिम भय दिखाकर अपने खेमें में लाने के लिए की गई साजिश है और मुझे लगता है कि इस साजिश का जल्दी ही पर्दाफाश होगा।' फिर आगे कहती हैं, 'दो राज्यों को टारगेट बनाया जाए और दोनों में एक तरह से ब्लास्ट हों और विश्वास मत के चार दिन बाद हों, विश्वास मत जीतने के 4 दिन के अंदर-अंदर दो राज्य सरकारें और दोनों राज्य बीजेपी शासित हों और दोनों जगह पर सीरियल ब्लास्ट हों, कहीं 18 तो कहीं 24 इसके कोई मायनें हैं कि नहीं और इसलिए जो मैंने बात कही है circumstancial avidence से प्रूव होती है।' तो ये है वक्तव्य बीजेपी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज के।

सुष्मा जी ने अपने ब्यान में केंद्र को उन 50 लोगों का क़ातिल करार दे दिया जिनकी इन ब्लास्ट में मौत हुई। क्या ये सच हो सकता है? किस आधार पर वो ये सब कह गईं इस राष्ट्र की जन्ता से? क्या उनके पास कोई भी ऐसे सबूत हैं जिससे ये केंद्र सरकार नंगी हो सके। इस देश की जनता ये जानना चाहती है। आप के माध्यम से बीजेपी ने पूरे दम के साथ इस खून खराबे की जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर थोपी है। यदि आप के पास सबूत हैं और आप नहीं बता रहीं हैं तो फिर आप भी इन्हीं लोगों की श्रेणी में आजाती हैं। और यदि सबूत नहीं है तो चुप हो जाइए सुष्मा जी।।।।। यहां पर अभी सियासत का ये सियासी खेल मत खेलिए। सवाल तो ये भी उठता है कि क्या ऐसे काम आप और आपकी पार्टी ने किए हैं जब वो सत्ता में थी? या जब भी बीजेपी पर कोई भी मुसीबत आती है तो बीजेपी इस तरह से ही निपटती थी इन मुसीबतों से? शायद बीजेपी ही करती थी ऐसा। याद है देश को वो रथयात्रा जो कि एक विध्वंस पर जाकर खत्म हुई थी।

बिना किसी बात के दूसरों पर झूठे आरोप लगाना ही सियासत है। पर शवों पर राजनीति के इस खेल को खेल कर ये राजनीतिक पार्टियां देश की राजनीति को गरक में ले जा रही है। देखना तो अभी ये है कि ऐसे और कितने घिनौने खेल ये लोग हमारे साथ खेलते हैं और राजनीति में लिप्त 'ये' कितने नीचे जाते हैं।

आपका अपना
नीतीश राज

Monday, July 28, 2008

'मेरे पापा कहां गए?' जवाब दो मोदी


एक बच्चा रो रहा है, मासूम सा बच्चा, पूछ रहा है अपनी पूरी मासूमियत के साथ, सब से कि बताओ 'मेरे पापा कहां गए'? क्या जवाब है किसी के पास। मोदी जवाब दो उस रोते हुए बच्चे के इस मासूम सवाल का। क्या जवाब है तुम्हारे पास। तुम्हारे पास तो कतई नहीं है मोदी। नहीं तुम्हारे में इतनी हिम्मत ही नहीं कि पोछ सको उस मासूम के आंसू किसी के भी आंसू और दे सको जवाब। होता तो तुम आतंकवादियों के निशाने पर नहीं होते। क्या किसी के पास भी है उस छोटे से बच्चे के सवालों का जवाब? वो बच्चा कह रहा है कि वो अनाथ हो गया है। पूरी जिंदगी बिना पिता के साये के कैसे काटेगा। 'जवाब दो मोदी, जवाब दो'।
वैसे, अब बात धमाकों के आतंक की, बैंगलोर और अहमदाबाद के बाद रविवार को सूरत को दहलाने की फिराक में थे आतंकवादी। अहमदाबाद के बाद सूरत ही था उनके निशाने पर। हमें अपने ही देश में अपनों से खतरा है। हमारे देश में ही कुछ ऐसे बैठें हैं जो कि हमारी ही जड़ काटे जा रहे हैं। बैंगलोर में 7 ब्लास्ट और अहमदाबाद में सिलसिलेवार 16 धमाके इस बात के गवाह हैं कि आतंकवादियों के हौसले पहले से ज्यादा बुलंद हो रखे हैं। सुबह ही सूरत में एक काले रंग की वैगन आर कार मिली, जो की विस्फोटकों से भरी हुई थी। यदि बम निरोधक दस्ते की बात मानें तो उस में इतना बारूद था कि 25 धमाके तो आराम से किए जा सकते थे। तो खुद सोचिए कि वो २५ जगह कहां-कहां हो सकती थी। मतलब की बारूद के ढेर पर अब भी बैठ हुआ है गुजरात। सूरत से ही एक जिंदा बम भी निष्क्रिय किया गया। यदि इस बम में विस्फोट हो जाता तो इतना नुकसान होता कि आंकलन भी नहीं हो पाता क्योंकि इसमें काफी अधिकमात्रा में विस्फोटक थे। चलिए ये तो शुक्र मनाइए कि उस बम का क़हर ढाने से पहले ही बम निरोधक दस्ते ने उसे निष्क्रिय कर दिया।
अहमदाबाद के साथ-साथ सूरत में भी हलचल बढ़ गई थी। पूरे देश की निगाहें सूरत पर थी। शाम होते-होते एक और कार बरामद की गई। ये कार भी विस्फोटकों से भरी हुई थी। ये एक लाल रंग की वैगन आर कार थी। ये कार भी पिछली कार की सीरीज में ही थी। इन दोनों कारों के नंबर भी फर्जी थे। समय रहते लोगों की सूझबूझ से पुलिस ने इस कार को भी अपने कब्जे में कर इस में से बरामद 4 जिंदा बमों को निष्क्रिय कर दिया और विस्फोटकों से भरी ये कार जिस काम के लिए इसका इस्तेमाल होना वाली थी, नहीं हो सकी। लेकिन इस बात से साफ जाहिर हो गया कि आतंकवादियों के क्या मनसूबे क्या थे। वो पूरे गुजरात को हिला के रख देना चाहते थे। पूरे देश को दिखा देना चाहते थे कि वो क्या कर सकते हैं और साथ ही खुफिया तंत्र कितना लचर हो चला है कि वो कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। वो खुफिया विभाग के मुंह पर तमाचा मारना चाहते थे।
पहले ई-मेल भेज कर धमकी के साथ-साथ सूचना देना कि देखो हम ये करने वाले हैं। हमें रोक सको तो रोक लो। फिर जगह-जगह विस्फोट होते हैं और फिर वो आगे-आगे हमारी खुफिया एजेंसी पीछे-पीछे। वो और आगे निकलते जाते हैं और खुफिया तंत्र और पीछे रहते जाते हैं। वो देश छोड़ कर विदेश में बैठ, अपना नेटवर्क चलाते हैं हम देश में उनकी तलाश जारी रखते हैं। कुछ वक्त के बाद जैसा इनवैस्टिगेशन जयपुर ब्लास्ट में हुआ, कुछ हिरासत में लिए गए, कुछ से पूछताछ चली फिर वो ही हाल 'ढाक के तीन पात'।
क्यों आतंकवादियों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं। यदि देश में सक्रिय देश के विरोधी संगठनों पर भी खुफिया विभाग कुछ कार्रवाई नहीं कर पाती य़ा उन पर नजर नहीं रख
सकती तो फिर मानिए कि देश का ऊपर वाला ही रखवाला है।
वैसे, पूरे देश में अलर्ट घोषित कर दिया गया है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल जैसे शहरों के साथ ही और महानगरों में हाई अलर्ट जारी किया गया है। हमें आतंकवादियों से खतरा है या फिर देश में बैठे कुछ गद्दारों से। लेकिन कुछ भी हो उन मांओं का क्या जिन्होंने अपनी आंख के तारे खो दिए। उन बच्चों का क्या जो की अनाथ हो गए। उस बूढ़े बाप का क्या दोष जिसको अपने ही बेटे की अर्थी को कंधा देना पड़ा। उस मां-बाप का क्या जो बैठे तो थे अपनी बेटी को डोली में विदा करने के लिए, लेकिन विदा कर रहे हैं हमेशा के लिए। क्या इन सबने किसी का कुछ भी बिगाड़ा था? इस खामोश सवाल का जवाब कौन देगा? क्या सरकार में है इतना दम जो जवाब दे सके। या फिर वो जवाब देंगे जिन्होंने इस को अंजाम दिया है। नापाक इरादे वालों क्या है तुम्हारे पास कोई जवाब। तुम्हारे भी तो होंगे कहीं पर कोई
अपने। क्या तुम दे सकते हो इस सब सवालों के जवाब। क्या मोदी दे पाएंगे उस रोते हुए मासूम बच्चे के सवाल का जवाब, 'मेरे पापा कहां गए'?


आपका अपना
नीतीश राज

Sunday, July 27, 2008

बैंगलोर के बाद अहमदाबाद, आज कहां होंगे धमाके?

शुक्रवार को बैंगलोर में हुए 7 धमाके, अगले दिन शनिवार को अहमदाबाद में ब्लास्ट। अहमदाबाद में 13 जगहों पर 16 धमाके। सिर्फ और सिर्फ 36 मिनट के अंतराल में 16 धमाके। इन धमाकों की गूंज से दहल उठा है पूरा देश। देश भर में हाई अलर्ट है। लेकिन आज रविवार है सवाल उठता है कि आज कहां.....? आज कौन सा राज्य होगा निशाने पर?वैसे तो ये सवाल कोई भी नहीं पूछना चाहता लेकिन खुफिया विभाग से ये सवाल अब देश पूछ रहा है। ठीक शाम ६-41 पर खुफिया विभाग को ई-मेल मिलता है कि "रोक सको तो रोक लो हम अहमदाबाद को दहलाने जा रहे हैं"। ये चुनौती भरा ई-मेल था लेकिन जब तक कि इस पर कोई भी कार्रवाई होती तब तक तो धमाके होने शुरू हो गए थे।
शाम 6.49 के करीब पहला धमाका। मैं ऑफिस में अपनी सीट पर था जैसे ही सूचना मिली तो रिएक्शन ये ही था कि कहीं कल की कड़ी तो आज अहमदाबाद में नहीं जुड़ रही? फिर तो ये सिलसिला रुका नहीं। ऑफिस में अफरातफरी मच गई। एक के बाद एक खबर कि धमाकों की संख्या बढ़कर इतनी हो गई है। ये सीरियल ब्लास्ट है। मरने वालों और घायलों की संख्या घटती-बढ़ती रही। दिमाग इस बात को मानने से इंकार कर रहा था कि इतनी जगह पर धमाके होने के बाद भी मरने वालों और घायलों की संख्या इतनी कम कैसे है। जबकि ये ब्लास्ट जहां भी हुए थे सभी भीड़भाड़ वाले इलाके ही थे। साथ ही शनिवार होने की वजह से बाजारों में भीड़ भी ज्यादा होती है क्योंकि यहां पर शनिवार को साप्ताहिक बाजार भी लगते हैं। आतंकवादियों ने फिर से साइकिल का इस्तेमाल विस्फोटों में किया है। वो ही टिफिन में बम रख कर दहलाया है देश को। हिसाब लगाया तो जाना कि जब इंडियन मुजाहिद्दीन ने मेल भेजा था उस मेल के मिलने के 8 मिनट बाद से धमाकों का सिलसिला शुरू हो गया और कुल मिलाकर शाम 7.25 तक 17 धमाके हो चुके थे।
पहले भी आतंकवादियों के निशाने पर गुजरात रह चुका है। अक्षरधाम पर हुए आतंकवादी हमले को कौन भूल सकता है। लेकिन इतने कम समय में 17 धमाके वो भी 13 जगहों पर, ये अब तक का सबसे बड़ा सीरियल ब्लास्ट है। 13 जगहों पर धमाके, इस से साबित होता है कि आतंकवादियों ने कितने दिन पहले से ही होमवर्क करके अपने आप को पुख्ता कर रखा होगा, क्योंकि किसी भी जगह पर कोई भी चूक नहीं हुई। अपने में ही ये आतंकवादियों के लिए एक बड़ी सफलता कही जा सकती है और साथ ही केंद्र सरकार, राज्य सरकार और खुफिया विभाग की नाकामयाबी। इन धमाकों में 29 की मौत हो गई और 90 के करीब घायल हुए।
दो दिन से लगातार हो रहे धमाकों के बाद से इंटेलिजेंस विभाग पर सवाल उठने लगे हैं। एक के बाद एक राज्य में ऐसे धमाके होते रहेंगे तो इसे इस विभाग की विफलता और लापरवाही ही कहा जा सकता है। लेकिन केंद्र ने बताया कि तीन दिन पहले ही राज्य सरकार को इस के लिए चेताया जा चुका था। लेकिन राज्य सरकार ने इस ओर कोई भी ध्यान नहीं दिया। वैसे केंद्र हर हफ्ते राज्य सरकारों को खुफिया रिपोर्ट भेजता है।
अहमदाबाद का मंजर कुछ बैंगलोर के मंजर जैसा ही था। लेकिन ये मंजर काफी भयानक था। जयपुर में भी ये मंजर कुछ इसी तरह का था। जयपुर में सात धमाकों में 63 लोगों की जान चली गई थी। अहमदाबाद के लिए सबसे सुकून की बात ये थी कि ये सारे धमाके उतने तीव्र नहीं थे वरना हालात और भी भयानक हो सकते थे। लेकिन इन धमाकों को जिस तरह से अंजाम दिया गया उससे साफ पता चलता है कि बैंगलोर और अहमदाबाद में विस्फोट करने वाला संगठन एक ही है।
अपने पिछले आर्टिकल में मैंने लिखा था कि 'ब्लास्ट पर राजनीति, थू है इन पर...'। आज इन धमाकों ने अधिकतर राजनेताओं के मुंह पर ताला लगा दिया और आज वो ही अधिकारी मीडिया के सामने आए जिनके अधिकार क्षेत्र में ये आता है। एक-दो नेता राजनीति करने आए भी सामने तो मीडिया या यूं कहें कि लोगों ने भी उनको बोलने नहीं दिया। आज दोषारोपण तो हुआ, छींटाकंशी भी हुई पर छीछालेदार राजनीति नहीं हुई। कोई भी मरने वालों के शव पर राजनीति की गंदी चालें नहीं चल रहा था। अब देखना तो ये है कि रविवार का दिन इन धमाकों की भेंट ना चढ़े....।

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, July 26, 2008

ब्लास्ट पर राजनीति, 'थू' हैं इन पर....


देश के किसी हिस्से पर यदि ब्लास्ट हो तो देश के लोग चाहेंगे कि पूरा देश एकजुट होकर उसका सामना करे लेकिन ब्लास्ट पर सिर्फ राजनीति और सिर्फ राजनीति हो रही थी। ये कोई और नहीं हमारे द्वारा चुने राजनेता ही कर रहे थे। लेकिन शर्म आनी चाहिए इन राजनेताओं को जो कि धमाकों में मरे लोगों की लाश पर बैठकर राजनीति की रोटियां सेकने लग गए। देश के एक राजनीतिक दल को इससे परवाह ही नहीं थी कि विस्फोट के पीछे किसका हाथ है। उसे तो आरोप लगाते हए इस बात की खुशी मिल रही थी कि वो कैसे दूसरी पार्टी को कठघरे में खड़ा कर पा रही है।
हमारे देश के एक हिस्से बैंगलोर में एक के बाद एक ब्लास्ट हुए जिन्होंने सीरियल ब्लास्ट का रूप ले लिया। एक के बाद एक ब्लास्ट, कुल मिलाकर 7 धमाके। ऐसा नहीं कि यह विपदा देश पर पहली बार आई हो इससे पहले भी हमारा देश एसी आतंकवादी साजिश से दो-चार हो चुका है। मुंबई, दिल्ली, मालेगांव, वाराणसी-लखनऊ-फैजाबाद, जयपुर, हैदराबाद में धमाके हुए और इन धमाकों की गूंज भारत के साथ-साथ पड़ोसी मुल्कों में भी सुनाई दी। इन धमाकों की निंदा एशिया से लेकर यूरोप तक में हुई। पाकिस्तान के हिमायती अमेरिका को भी सामने आकर इन धमाकों की निंदा करनी पड़ी। भारत के दुश्मन देशों ने भी अफसोस जताया और भारत के ऊपर कसते आतंकवाद के शिकंजे को जड़ से खत्म करने की वकालत की।
इस बार इन जहश्तगर्दों के निशाने पर था बैंगलोर। वैसे, आईटी सिटी बहुत पहले से इन आतंकवादियों के निशाने पर थी। ये तो शुक्र मनाना चाहिए कि ये विस्फोट ज्यादा तीव्रता के नहीं थे वरना अभी मरने वाले की तादाद सिर्फ एक है तब कुछ और भी हो सकती थी। उस मरने वाले के परिवार से कोई तो पूछे कि क्या कुछ चंद रुपये जो हम आपको शोक के रूप में देंगे क्या वो काफी हैं उस 'जिंदा' शख्स के बदले। इसे केंद्र सरकार की नाकामयाबी ही कहेंगे कि इससे जुड़ी कोई भी जानकारी वो राज्य सरकार को मुहय्या कराने में नाकामयाब रही। आपको याद होगा कि कैसे जयपुर में हुए सीरियल ब्लास्ट के बाद, राज्य सरकार और केंद्र की सरकार एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगाने में जुट गए थे। ये धमाका कोई पहली घटना नहीं है लेकिन इस बार इन राजनीतिक पार्टियों का रूख कुछ अलग ही रहा। पहले केंद्र में मौजूद सरकार और जिस राज्य में विस्फोट हुआ है दोनों एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत इल्जाम लगाते ही थे। लेकिन आज तो इन पार्टियों ने हद ही कर दी। बीजेपी जैसी पार्टी ने आव देखा ना ताव केंद्र सरकार पर हल्ला बोल दिया। बीजेपी का आरोप था कि 'केंद्र सरकार आतंकवादियों के ऊपर नरमी बरत रही है'। क्या ये कोई वक्त था कि ये दल देश की जनता को संभालने की जगह पर ये टिप्पणियां करें। बेहतर होगा कि ये पार्टियां संसद का बदला संसद में ही उतारें। धमाकों के वक्त अधिकतर देखा गया है कि राज्य सरकार को छोड़कर कोई भी नेशनल पार्टी केंद्र पर आरोपों की झड़ी नहीं लगाती। लेकिन इस बार ऐसा हुआ। अभी वक्त है देश को एकजुट होकर चलने का क्या ये बात भी देश की इन राजनीतिक पार्टियों को बताना होगा, समझाना होगा। पुलिस और आम जनता ऐसे समय के लिए पहले ही इन राजनीतिक पार्टियों से अपील कर चुके है कि ऐसी जगह पर तुरंत ना आया करें।
इन पार्टियों से तो अच्छा एक वो आम आदमी है जो कि विस्फोट में घायल किसी भी एक आदमी को अपना सहारा देकर किसी सुरक्षित जगह पर ले गया होगा या उसकी दवा-दारू पर ध्यान दिया होगा।
राजनीति करने वालों कुछ तो सीखो....देर हुई तो कहीं ऐसा ना हो कि....
जनता एक दिन तुम्हारे साथ ही राजनीति करने पर विवश हो जाए।।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, July 24, 2008

इडियट बॉक्स, बेटा और मेरी बेचारगी


ये तो अब रोज की बात हो गई है कि मेरा दोस्त जो कि अभी 4 साल का भी नहीं हुआ है मुझे टीवी पर अपने प्रोग्राम नहीं देखने देता। इस इडियट बॉक्स पर जो कुछ मेरे मतलब का आता है वो मुझे देखने को कतई नहीं मिलता। मैं अपने प्यार दोस्त की शिकायत नहीं कर रहा हूं। पर अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी ही। वैसे भी शिफ्ट हमारी कुछ ऐसी होती है कि देखना हो भी नहीं पाता लेकिन अवकाश (जिस पर बॉस हमेशा से नजर लगाए रहते हैं) के दिन तो देखने की इच्छा होती ही है। कुछ मूड ही फ्रेश हो जाए। या फिर और चैनल क्या कूड़ा चला रहे हैं वो पता भी चल जाए। क्योंकि ऑफिस में तो हम लोग बहुत कूड़ा दिखाते हैं ही। पर हमारा बेटा हमारे सभी प्रोग्रामों पर कुंडली मारे बैठा रहता है। पिता का नाम, मतलब हमारा, ठीक से याद तक नहीं हो पा रहा है लेकिन कार्टून चैनलों के नाम साहबजादे को कंठस्थ हैं। मिडिल क्लास फैमिली में खाना खाते समय अधिकतर परिवार टीवी पर किसी ना किसी चैनल पर हो रही सास-बहू की लड़ाई देखने का शौक रखते ही हैं। फिर साथ ही साथ देखते समय बहू और सास इस प्रकरण को अकारण ही, उस प्रकरण से जोड़ देती है जिसके कारण, टीवी में खिल रहा गुल घर में खिलने लग जाता है।
बहरहाल, हम बात अपने सुपुत्र की कर रहे हैं। उसे याद रहता है कि अब ये कार्टून खत्म हो रहा है तो किस चैनल पर कौन सा कार्टून उस की पसंद का जिसे की उसे देखना है। पहले से ही बात शुरू कर देता है कि अब मेरा वाला वो कार्टून फलां चैनल पर आ रहा है तो अब वहां पर कर दो। वैसे आप को ये बता दूं कि अभी उसे ठीक से नंबर ज्ञान नहीं हुआ है लेकिन लोगो देख कर बता देता कि पापा ने अपना चैनल लगाया है या फिर कार्टून चैनल। साथ ही अपनी मां की तर्ज पर उसे याद है कि अब तो कार्टून चैनल चला नहीं पाएगा क्योंकि मम्मी का पसंदीदा सीरियल...वो...सिंदूरा आंटी वाला....आ रहा है। फिर स्टाइल से बताएगा कि सिंदूरा आंटी को सीरियल में कैसे बुलाया जाता है सिन...
सिन...सिंदूरा...रा...रा....। यदि ये पूछ लो कि सप्ताह में दिन कितने होते हैं? तो, पता नहीं का जवाब जल्द ही निकल जाता है।
मैंने कुछ दिन से गौर किया है कि कई बातें बेटे को ऐसी पता हैं कि जो कि उसे कोई भी नहीं बताता या सीखाता।
जैसे कि जब भी किसी न्यूज चैनल को लगाऊंगा तो वो सिर्फ लोगो देखकर ही यह बता देता है कि मैं कौन सा चैनल देख रहा हूं। खासतौर पर मैं न्यूज चैनलों की बात कर रहा हूं। डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक और एनिमल, हिस्ट्री चैनल आदि के लोगो पहचानने लगा है। शाहरुख खान को तो देखते ही पहचान लेता है। मेरी याद में नहीं आता कि हमारे घर में शाहरुख, आमिर, अमिताभ या किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री का नाम लिया भी जाता हो। अधिकतर टोन पर यानी कि गाने की तरज पर बने विज्ञापन उसे याद हैं। मतलब कि उनकी धुन याद हैं।
कभी-कभी आश्चर्य भी होता है कि ये सब दिमाग पढ़ाई में लगेगा भी या नहीं। कई बार सोचता हूं कि ऐसे याद रखने के मामले से क्या दिमाग तेज होता होगा?
साथ ही कुछ दिन से ऐसा भी महसूस कर रहा हूं कि जब से स्कूल जाने लगा है वो आक्रामक होगया है। स्कूल का असर है या साथ के बच्चों का या फिर इस इडियट बॉक्स का। मैं पहले एक बात यहां पर साफ कर दूं कि हमारे घर में बहुत ही कम समय के लिए टीवी चलता है। २४ घंटे में अधिक से अधिक २ घंटे। कुछ बदलाव तो बढ़ती उम्र के साथ आते ही रहते हैं लेकिन ऐसा बदलाव जिसमें कि वो रिएक्ट करने लगे और वो भी लड़ने के ढंग से तो समझो कि शुभ समाचार तो ये है नहीं। हर बात पर रिएक्ट करने लग जाना तो ठीक नहीं है। रिएक्ट करना अच्छा है तभी आप सीखते हैं लेकिन लड़ने की भावना से रिएक्ट करना तो ठीक नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि लड़ने की भावना उस में ऐसे आगई है जैसे जन्म जन्मांतर से वो लड़ाकू हो।
मैंने कहीं पढ़ा था कि टीवी पर सबसे ज्यादा मारधाड़ कार्टून चैनलों पर ही होती है। शायद इसलिए चाइल्ड साइकलॉजिस्ट ये कहते हैं कि बच्चों को इस इडियट बॉक्स से दूर रखना चाहिए।
टॉम एंड जैरी शो में तो मुझे भी कई बार लगता है कि सबसे ज्यादा हिंसा होती है और उसी हिंसा या यूं कहें कि मारधाड़ को देख कर हम हंसते हैं। शायद बच्चों को भी उससे लड़ाई करना या फिर तरह-तरह के मुंह बनाना ही सीखने को मिलता होगा। लेकिन क्या ‘कहने’ और ‘करने’ में कुछ अंतर नहीं होता है। कितना आसान होता है जुबान से शब्दों को लपेटकर दांतों के बाहर फैंक देना। लेकिन ‘करने’ में खुदा से लेकर अम्मा-बाबूजी सब याद आ जाते हैं। आज कल स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार देखे, बच्चों ने स्कूल में अपने साथी का क़त्ल कर दिया। ये गुस्सा कहां से आया? ये सब कहां से सीखते हैं ये नन्हे नन्हे बच्चे? ये किसका असर है हमारी आने वाली पीढ़ी पर? टीवी का या फिल्मों का या फिर हमारी व्यस्त जिंदगी का? क्या लगता नहीं कि ये बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं? कहीं ये हमारी नाकामयाबी तो नहीं ...?

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, July 23, 2008

खेल तो हो ही गया...ये ही राजनीति है

पूरे देश की नज़र संसद पर टिकी हुई थी। सब जानना चाहते थे कि क्या सरकार ये मैच जीत जाएगी? पूरे दिन संसद कभी भी ठंडी नहीं हुई, जब भी संसद की गतिविधियां देखने के लिए लोकसभा टीवी का रुख किया तो पाया की संसद में घमासान जारी था। सांसद अपने पुराने काम को सही रूप से अंजाम दे रहे थे जो कि वो काफी समय से करते आरहे थे। एक दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला। वैसे भी ये कोई नई बात तो नहीं है। संसद पूरे दिन उबलती रही, गर्म रही। क्या ये कभी सोचा गया कि सरकार इस करार पर अपना करार भी दांव पर लगाने को क्यों राजी होगई। ऐसा इस करार में क्या है कि लेफ्ट से चला आ रहा 4-सवा 4 साल का करार एक ही झटके में तोड़ दिया गया। ये जो देश पर चुनावी संकट आया इस के लिए जिम्मेदार क्या ये दो नेता हैं-मनमोहन और प्रकाश करात। सिर्फ इसलिए कि एक की जिद दूसरी पूरी नहीं कर रहा तो गठबंधन तोड़ दिया गया। क्या करार पर आगे बढ़ना और गठबंधन को तोड़ने के पीछे मनमोहन सिंह ही जिम्मेदार हैं। मेरा इशारा किस ओर है ये आप समझ ही रहे होंगे। वहीं दूसरी तरफ चुनाव सर पर खड़े हैं तो केंद्र नहीं चाहता कि आने वाले चुनाव में विपक्ष महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरे। और सरकार के पास अपने को बचाने के लिए कोईं भी हथियार रूपी घटना नहीं हो। इस समय कोई भी सरकार आ जाए तो महंगाई पर लगाम नहीं लगा सकती। देश के दो सबसे काबिल फाइनेंस को समझने वाले शक्स केंद्र के पाले में ही हैं। लेकिन फिर भी केंद्र महंगाई के ऊपर चुनाव कतई नहीं लड़ना चाहती थी। क्योंकि सोनिया और मनमोहन के साथ में कांग्रेसी जानते हैं कि प्याज पर भी सरकार गिर सकती है तो यहां तो हर चीज के दाम सरकार को नीचे उतारने के लिए तैयार बैठे हैं। यदि इस करार के मामले में सरकार गिर भी जाती तो सरकार को फायदा होता और अब बच गई है तो सरकार इस करार को पूरा करके इस मुद्दे को भुनाना चाहेगी आगामी चुनावों में।
लेकिन.....संसद के काले दिन में एक समय ऐसा भी आया जबकि पूरा देश अवाक रह गया। एक ऐसा वाक्या जिसने की लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोत दी। संसद के इतिहास में 22 जुलाई को काला दिन लिखा जा चुका था। बीजेपी के तीन सांसद सदन में नोटों की गड्डियों को लहराते रहे। उन्होंने ये आरोप लगाया कि सत्ता पक्ष के लोगों ने ये पैसा(1 करोड़) सरकार के पक्ष में वोट करने के लिए दिया हैं। साथ ही, कि ये तो पहली खेंप भर है बाकि के पैसे तो अभी मिलने बाकी हैं। जिसने भी इस प्रकरण को देखा-सुना वो शर्मसार था। ये नहीं पता कि आरोप सच हैं लेकिन सदन की गरिमा पर तो कालिख पुत ही चुकी थी।
इस घटना ने क्रिकेट में मैच फिक्सिंग और साथ ही हॉकी में गिल-प्रभाकरण के प्रकरण की याद ताजा कर दी। तब भी देश अवाक रह गया था। लेकिन इस एपिसोड से देश की गरिमा को ठेस पहुंची है। विदेशी पार्लियामेंट में जूतमपैजार होता है तो पता चलता है कि दूसरे देशों में उस वाक्ये पर किस तरह से थू-थू हो रही होगी।
फिर भी अंत में जब वोटिंग हुई तो खुलकर ये ही सामने आया कि सरकार के पास 253 का आंकड़ा है। सरकार को बधाई देने का सिलसिला शुरू होगया। विपक्ष की संख्या 232 थी। लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा उतर चुका था और पीएम के साथ सोनिया खुश नजर आ रहीं थीं। जैसे कि मैंने कल अपने आर्टिकल में लिखा था कि ‘खेल हो चुका है’ बात तो सही निकली कि ‘खेल हो चुका था’ और सरकार बचने की कगार पर थी। लेकिन तब भी 48 सांसदों की पर्चियां आनी बाकी थीं। और कुछ भी हो सकता था यदि 232 में 48 सांसद जुड़ जाते, तो 280 आंकड़ा सरकार को पीछे छोड़ देता और जो लोग खुशियां मना रहे थे वो गम के समंदर में खो जाते लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अंतिम में फैसला-275 पक्ष और 256 विपक्ष का स्कोर रहा। और सातवें पीएम बन गए मनमोहन सिंह जिन्होंने विश्वास मत पा लिया। वैसे तो कांग्रेस कभी भी विश्वास मत में फेल नहीं हुई है। लेकिन बीजेपी के 7 सांसदों ने क्रॉस वोटिंग की और कुल मिलाकर 15 सांसद ऐसे रहे जिन्होंने क्रॉस वोटिंग की। बीजेपी के लिए भी ये सोचने की बात है कि दो के बारे में तो वो भी जानती थी कि हां, ये बागी हैं लेकिन उन 5 पर नजर क्यों नहीं पड़ी जो कि बागी बन गए। मेरी मानें तो इसी को कहते हैं खेल। इसी को कहते हैं राजनीति।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, July 22, 2008

नहीं बची तो क्या होगा?


आज मनमोहन सरकार की परीक्षा की घड़ी है। सरकार बचेगी या चली जाएगी? ये सवाल हर एक के दिल में उमड़ रहे हैं। लेकिन फैसले की घड़ी आगई है। आज शाम से बहस शुरू हो जाएगी और फिर वोटिंग और फिर परिणाम भी आ जाएंगे। हमें पता चल चुका होगा कि किसके चेहरे पर हंसी है और किसके चेहरे पर ग़म। लेफ्ट-राइट या यूपीए। सोमनाथ और दागी सांसदों का वोट काफी अहम होगा। यदि सोमनाथ दादा स्पीकर रहते हुए सरकार के विपक्ष में वोट डाल कर सरकार को गिरा देते हैं तो फिर वो इस दुनिया के पहले ऐसे स्पीकर हो जाएंगे जिस के वोट से सरकार गिरेगी। लेकिन सोमनाथ दादा पहले ही मन बना चुके हैं कि वो सरकार के साथ जाएंगे। संसद में कुछ ऐसे सांसद भी होंगे कि जिनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही होंगी क्योंकि वो जब संसद में दाखिल हुए होंगे तो इस विश्वास के साथ कि हमने इतनों को तो खरीद ही लिया है, तो जीत हमारी तय है। लेकिन तब तक खेल हो चुका होगा। ये हाल किसी भी पक्ष का हो सकता है। क्योंकि कई सांसद मान चुके हैं कि खरीद-फरोख्त का सिलसिला चला है। ये हम भी जानते हैं कि यह पहला अवसर नहीं है कि जब सांसदों पर ये इल्जाम लगे हैं। राष्ट्रपति चाहतीं तो शायद इस खरीद-फरोख्त के धंधे को कम समय के लिए कर सकतीं थीं, यूपीए को बहुमत साबित करने के लिए कम वक्त देकर। बहरहाल, ये तो हम सभी जानते हैं कि यदि मनमोहन एंड ग्रुप जादुई आंकड़े को पा जाते हैं तो सरकार बच जाएगी। लेकिन यदि जादुई आंकड़ा या यूं कहें कि बहुमत साबित नहीं कर पाते हैं तो क्या होगा। फिर राष्ट्रपति क्या फैसला करंगे। 1) राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के लिए कह सकते है। यदि पीएम मना करते हैं तो सरकार को बर्खास्त (हटाना) कर सकते हैं। लेकिन आज तक ऐसा हुआ नहीं है कि किसी भी पीएम ने विश्वास मत नहीं मिलने के बाद इस्तीफा नहीं दिया हो। 2) थर्ड फ्रेंट सरकार बनाने के लिए आग आ सकती है और बाहर से बीजेपी समर्थन दे सकती है। लेकिन मुलायम का धड़े के बाहर होने के कारण मायावती अंदर तो आगईं है लेकिन बीजेपी किसी भी कीमत में माया का समर्थन नहीं कर सकती। भई, दूध का जला छाज को भी फूंक-फूंक कर पीता है। 3) बीजेपी सरकार बनाने के लिए आगे आ सकती है और यूएनपीए बाहर से समर्थन दे। लेकिन देखने की बात ये होगी कि क्या लेफ्ट बीजेपी को सरकार गिराने के साथ-साथ सरकार बनाने के लिए भी समर्थन दे सकती है। वैसे बीजेपी पहले ही कह चुकी है कि वो चुनाव चाहते हैं। 4) कोई भी सरकार बनाने का दावा नहीं करे और मनमोहन सिंह अगले चुनाव तक केयर टेकर प्रधानमंत्री बन रहेंगे। पीएम की सारी ताकत उनके पास रहेंगी। लेकिन पीएम किसी भी महत्वपूर्ण पॉलिसी से जुड़े निर्णय नहीं ले सकते।
अभी तो कोई भी ये नहीं जानता कि क्या होगा लेकिन संसद अभी गर्म है। संसद में पार्टियां एक दूसरे पर इल्जाम लगा रही हैं सांसदों के खरीद-फरोख्त का। कौन कितने में बिका, कौन कितने में खरीदा गया आज संसद में ये ही सब सवाल रहेंगे और कल अखबारों में।

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, July 19, 2008

चलो, यहां लाज तो बची...


आखिरकार भारत के पास ही रही ट्रॉफी, लेकिन इस बार गिल के चुंगल से निकल कर असली ट्रॉफी खिलाडि़यों तक के हाथ में पहुंच गई। वैसे तो इस ट्रॉफी को लेकर आया हैदराबाद हॉकी संघ। गिल साहब भी महान हैं उन्होंने अपनी तुगलकी फरमान सुना दिया था कि वो एड हॉकी कमेटी को ये ऑरिजनल ट्रॉफी नहीं देंगे। सिर्फ और सिर्फ ये ट्रॉफी सौपेंगे तो हैदराबाद हॉकी संघ को ही। बहरहाल, अंतिम समय में ही ये ट्रॉफी आयोजकों के पास तक पहुंच गई ये ही काफी है।
वैसे तो, फाइनल हम सेमीफाइनल में ही खेल चुके थे। कोच ए के बंसल साहब ने तो पहले ही ये एलान कर दिया था कि अब फाइनल में जीत हमारी होकर ही रहेगी। पाकिस्तान को जैसे भारत ने सेमी में पीटा उस के बाद सभी खिलाड़ियों ने बैठकर कोरिया और जापान के बीच दूसरा सेमी देखा था। उस से कोच की रणनीति साफ जाहिर हो चुकी थी। मैन टू मैन मार्किंग और फारवर्ड लाइन को लेकर चिंता उनकी बनी हुई थी। शायद इसलिए कोच ने ही खिलाड़ियों को खुद फैसला लेने और कोरियन खिलाड़ियों को समझने के लिए पूरा मैच देखने की हिदायत दी। खिलाड़ियों ने इसका भरपूर फायदा उठाया। वैसे देखा जाए तो 53वें मिनट तक या यूं कहें कि 60 मिनट तक भारत 2-0 से पीछे था। ऐसा नहीं था कि भारत ने कोई मूव वगैरा नहीं बनाया लेकिन स्कोर बोर्ड पर खाता खोल नहीं पाया। कोरियन खिलाड़ी जियोन जिन को पीला कार्ड दिखाते के साथ ही भारत ने दस मिनट के बाकी बचे खेल में स्कोर बराबर कर दिया। फिर टीम ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

अतिरिक्त समय में दिवाकर राम ने गोल्डन गोल कर ट्रॉफी पर भारत का नाम लिख दिया। सभी जगह खुशी का माहौल था। लेकिन इस बीच कोच ने अपना एक बयान दिया जिसमें भारत को पेनल्टी कॉर्नर का किंग भी घोषित कर दिया। दिवाकर राम से पहले संदीप सिंह भी अजलान शाह में टॉप स्कोरर रहे थे। लेकिन यदि दो टूर्नामेंट में भारत के खिलाड़ी टॉप गोल स्कोरर रहे तो इसका मतलब ये नहीं होगया कोच साहब कि आप सर्वश्रेष्ठ कहने लग जाएं। अभी जो दाग हम पर लगा है उसका दर्द गया नहीं है। यदि २०१० में होने वाले विश्व कप को जीतता है तो शायद ये गम कुछ कम होसके। लेकिन भलाई इसमें है कि तारीफ कीजिए लेकिन बड़बोलेपन से बचिए, बंसल साहब।
वैसे, भारत-पाक के बीच उस सेमी में हाथापाई ही एक ऐसा मोड़ थी जो कि उस खेल के रोमांच को थोड़ा कम कर गई। वैसे गरमा-गरमी हमेशा से ही होती है खास तौर पर भारत-पाक के मैच में। चाहे खेल कोईं भी क्यों ना हो। जब आप जीत रहे हों तो दूसरा पक्ष आप पर हावी होने के लिए, चाहता है कि कोई भी एक गलती आप से ऐसी हो जाए जिससे कि आपकी टीम 10 खिलाड़ियों से खेले। और कई बार ना चाहते हुए भी आप जोश में कुछ ऐसा कर जाते हैं जैसा कि फीफा वर्ल्ड कप में इटली-फ्रांस के मैच में हुआ। जिदान के ऊपर एक ऐसा दाग लग गया जिसे चाह कर भी वो कभी धो नहीं सकते।


आपका अपना,
नीतीश राज

Friday, July 18, 2008

उन बूढ़ी आंखों के लिए....

मेरी हर भावना कहती है
कर लोगी तुम, करना है तुमको
करनी ही होगा तुमको।
वो बूढ़ीं आंखें जिसे अब
कुछ कम दिखाई देता है
पर देखना है उनको,
तुमको, उस पर्दे पर,

जहां देखने की चाह थी उनको
उन प्यासी आंखों को
जो दूर से बैठी आज भी
देखती है तुमको, तुम्हरी आंखों को।

झिलमिल करता वो सितारा
टिमटिम करता वो सितारा
अब भी आंखों में थकान लिए
पूरी रात का जागा हुआ
विश्वास के साथ देखता
तुम्हारी ओर,
उसी चमक के साथ
उसी विश्वास के साथ
जो मेरी भावनाओं का विश्वास है
उस बूढ़ी आंखों का विश्वास है
उस झिलमिलाते सितारे का विश्वास है
तुम्हारी आंखों के लिए
करोगी ना....,करोगी तुम उस विश्वास को पूरा,
जो है मेरी आंखों में
उस सितारे की आंख में
करोगी तुम उस विश्वास को पूरा
करोगी ना....।

तुम करोगी जानते हैं हम,
यह विश्वास है, हमारा विश्वास
मत झपकाना अपनी पलकों को
किसी भी गलती पर।
देख लेना समझ लेना
हमारी आंखों को, कि
झपक कर ही क्या
बन्द हो रखी हैं वो आंखें
उस विश्वास के लिए,
पल भर के भीतर
उन आंखों के खुलने तक
जिसे करना है तुमको अब पूरा।

आपका अपना
नीतीश राज

अब से आपको मेरी कविता मेरे अन्य ब्लॉग पर मिलेंगी, जिसका यूआरएल(URL) http://poemofsoul।blogspot.com/
और इस ब्लॉग को नए ब्लॉग के साथ लिंक भी कर दिया गया है।
एक बार उधर भी नजर।

Thursday, July 17, 2008

कभी तो, एक बार




देर से हवा का एक झौंका
मुझे बार-बार सहलाता,
झकझोरता हुआ चला जाता है।


कैसे समझाऊं उस झौंके को
कैसे बताऊं उसे मन की कशिश
कि आज, आना है तुमको।


वो आएगी उस झौंके की तरह
जिस ने सुबह से मुझे
कर रखा है परेशान।


यूं...कब से बैठा हुआ हूं,
पड़ा उस झौंके के पशोपेश में
जो मुझे कभी,
ठंडक पहुंचा जाता है,
तो तभी, याद दिला जाता है,
कभी जब, धूप में खड़े होकर मैंने
इंतजार किया था, उस झौंके का।


रोज़...इस जगह पे खड़े होकर
सोचा है उस बेनाम प्यार को।
जो आएगा कभी तो
मेहंदी की तरह...मेरे हाथों पर,
मेरे जिस्म पर,
रच जाएगा, बस जाएगा, बस...
कभी तो, एक बार।।


आपका अपना,
नीतीश राज

Tuesday, July 15, 2008

“WE MUST SHOOT THEM” इनको गोली मार देनी चाहिए

नेताओं को जो राजनीति के नाम पर अपनी रोटी सेकते रहते हैं उनको गोली मार देनी चाहिए। वैसे हर नेता सेकता है, इसलिए अब ये इच्छा कभी-कभी मन में जोर मारने लगी है। ये राजनेता कोई और काम तो कर नहीं सकते सिर्फ राजनीति कर सकते हैं वो भी औछी राजनीति। आज सुबह अखबार में एक साथ कई ऐसी घटना पढ़ने को मिली। तब से ही इन नेताओं की छोटी और औछी राजनीति का शिकार होकर रह गया हूं।
सबसे पहले बात, उस लड़के ‘जीवन’ की जो पात्र ही काल्पनिक है। लेकिन उस के पीछे पड़े हुए हैं ये नेता। कौन नहीं है इस काल्पनिक पात्र के पीछे। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, मुस्लिम लीग, चर्च के बड़े पादरी सभी चाहते हैं कि जीवन का नामोनिशान मिटा दिया जाए। अब आप को बताता हूं कि ये पात्र आखिर है कौन। जिसके पीछे मंदिर, मस्जिद, चर्च सब एकजुट होगए हैं।
इस पात्र का नाम जैसे मैंने बताया जीवन है, इस का उल्लेख कक्षा सात के पाठ्यक्रम की समाजशास्त्र (भाग-१) नामक पुस्तक में किया गया है। इसमें छोटी सी कहानी दी हुई है, जो की काफी नैतिक है, कुछ इस तरह से है वो कहानी(सार में):----
जीवन के माता-पिता उसका दाखिला करवाने के लिए स्कूल जाते है। प्रधानाचार्य उनका प्रवेश फार्म भरते हैं बेटे का नाम पूछते हैं। “जीवन।” ’पिता का नाम?’ “अनवर रशीद”। ‘बच्चे का धर्म क्या है?’
‘कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है कोई धर्म नहीं लिखिए’।
”जाति?” ‘इसकी भी आवश्यकता नहीं है’।‘जब ये बड़ा हो जाएगा और किसी धर्म को अपनाने की इच्छा जाहिर करेगा तो?’
अगर ऐसा होता है तो वह अपनी पसंद का धर्म अपना सकता है।‘
आप भी समझ गए होंगे कि किस बात पर ये बखेड़ा है। सिर्फ अंत के इन दो सवालों पर ही धर्म के ये ठेकेदार इस अध्याय को पाठ्यक्रम से हटवाना चाहते हैं। वहीं लेकिन ये सरकार भी अड़ी हुई है जिसने कि अब तक कोई भी फैसला नहीं लिया है। लेकिन पता नहीं इन नेताओं का कब थूक कर चाट लें।
अब दूसरी बात, राज ठाकरे ये बहुत अच्छी तरह से समझ गए हैं कि बिना जाति, धर्म, भाषा की राजनीति किए मुंबई(महाराष्ट्र) में पैर जमाए नहीं रह सकते। पहले बच्चन पर निशाना, उत्तर भारतियों पर निशाना, अब अंग्रेजी स्कूलों पर राज ठाकरे का तुगलकी फरमान। चेतावनी दी गई है कि पहली कक्षा से ही अनिवार्य रूप से मराठी पढ़ाई जाए। साथ ही कहा गया है कि यदि एक महीने की भीतर ये नहीं किया गया तो स्कूलों पर उनकी पार्टी के गुंडे मराठी सिखाएंगे। जो कि नामुमकिन है। इनके जितने भी गुंडें हैं, उन को पकड़ कर यदि मराठी की पहली-दूसरी क्लास का टेस्ट ले लिया जाए और वो पास कर लें तो पूरा देश मराठी बोलेगा। लेकिन इन सब बातों से मराठियों के खिलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में कुंठा भरती जा रही है। जो कि कभी भी फूट सकती है। एक अलग फरमान में नंबर प्लेट, होर्डिंग, बोर्ड, नेमप्लेट भी मराठी में होने चाहिए नहीं तो उनकी गुंडा पार्टी अपने तरीके से ये सब करवाएगी।
जबकि चैलेंज है ये मेरा राज ठाकरे को कि यदि वो मुंबई की बारिश की समस्या का हल ढूंढ ले तो जानें। लेकिन सारी मुंबई जानती है कि बरसात की समस्या ऐसी है कि जो किसी भी हाल में खत्म नहीं की जा सकती, इसलिए मुद्दे कुछ ऐसे उठाए जाएं जिसमें कुछ करना ना पड़े सिर्फ गुंड़ों को काम मिलता रहे क्योंकि खुद राज ठाकरे की सोच भी तो गुंड़ागर्दी वाली है। यदि इस समस्या का हल निकल जाए राज ठाकरे तो मुंबई का बच्चा-बच्चा मराठी बोलेगा सिर्फ तुम्हारी पार्टी मनसे ही नहीं।
अब तीसरी बात, क्या आडवाणी जैसे नेता को ये शोभा देता है कि वो किसी नेता को दलाल कहें। और वो भी उस जैसे नेता को जिसको कुछ दिन पहले आपने भाई कहा था। याने भाई का भाई क्या कहलाया? मतलब आप क्या कहलाए? खुद सोचिए। क्या आप को ये सब बातें शोभा देती हैं। मेरे हिसाब से तो नहीं।
वैसे नेताओं की जात ही कुछ ऐसी होती है कि जो देश के बारे में नहीं व्यक्ति विशेष के बारे में सोचते हैं। लेफ्ट को भाजापा फूटी आंखें नहीं सुहाती थी लेकिन अब लाल कंपनी भगवा के साथ हो चली है। वहीं दूसरी तरफ बुश को दुश्मन मानते हुए
माया के साथ चलने से भी कोई गुरेज नहीं। व्यक्ति विशेष की राजनीति छोड़ो देश के बारे में सोचो।


आपका अपना
नीतीश राज

तेरा एक पल...

तेरा पास होना ही काफी है
मेरे चमन को महकाने के लिए,
तेरी एक बात ही काफी है
मुझे तेरा बनाने के लिए।

तेरे ख्याल में जी रहा हूं इस कदर,
तेरी याद ही काफी है अपनाने के लिए।
तेरी नराजगी ही काफी है,
मुझे तड़पाने के लिए।
तेरी उखड़ी हुई एक बात ही काफी है,
मुझे अंदर से हिलाने के लिए।
तेरी आंख से छलकता एक आंसू,
काफी है मुझे रुलाने के लिए।

तेरी एक मुस्कुराहट ही काफी है,
मेरे दिन को बनाने के लिए।
इसी उम्मीद पर जी रहा हूं,
तेरी जिन्दगी का,
एक पल काफी है
मुझे, मुझसे मिलाने के लिए।।
आपका अपना,
नीतीश राज

Saturday, July 12, 2008

आरुषि केस- सुलझ गया केस !

आरुषि हत्याकांड में ऐसा क्या था कि देश का हर शख्स, 55 दिन तक, बड़ा हो या छोटा पहले दिन से ही क़ातिल का नाम जानना चाहता था। विदेश में भी ये केस लोगों की उत्सुक्ता का विषय बना रहा। प्रणब जी जब विदेश दौरे पर थे तब उनसे भी ये पूछा गया था कि कौन हो सकता है क़ातिल? चार्ल्स शोभराज ने भी इस केस के बारे में जानना चाहा? सभी को जानने की उत्सुक्ता थी, चाहे वो राजनीतिज्ञ हो या फिर क्रिमिनल।
आखिर कारण क्या था? क्या आपने कभी सोचा है? शायद सोचा भी हो और कई तथ्य या विचार सामने आए हों। एक डेंटिस्ट की 14 साल की लड़की, जो DPS School में पढ़ती थी। उसकी हत्या हो जाने से क्या हो गया? हर दिन दिल्ली और एनसीआर में क़त्ल होते हैं पर कोई जानना नहीं चाहता कि क्या हुआ आस-पड़ोस वालों को छोड़कर। लेकिन इस क़त्ल में कुछ तो ऐसा था जो ध्यान खींचता था। यदि पहले दिन से जो थ्यौरी बनी थी नोएडा पुलिस के सामने कि हेमराज ने क़त्ल किया और नेपाल भाग गया? तो शायद ये केस वहीं दब जाता। लेकिन जब हेमराज का शव बरामद हुआ। तब लगा कि कुछ पंगा है, पेंच है। तब नोएडा पुलिस भी जागी लेकिन तब तक कई तथ्यों से खिलवाड़ हो चुकी थी।

डॉ राजेश तलवार याने कि आरुषि के पिता को पुलिस ने डबल मर्डर के जुल्म में पकड़ा तो सारी दुनिया जानना चाहती थी कि आखिर राज़ क्या है। कौई कैसे अपनी एक मात्र बच्ची का क़त्ल कर सकता है। ये ही थी मुख्य वजह। यदि पहले दिन ही ये पता चल जाता कि कृष्णा, राजकुमार और विजय मंडल ने मिलकर क़त्ल की इस वारदात को अंजाम दिया है तो ये केस वहीं मर जाता, खत्म होजाता। फिर शायद ही कभी हमारे आप के सामने असलियत आपाती।
पुलिस ने अलग-अलग थ्यौरी दी,जिससे तलवार परिवार की भयंकर बदनामी हुई। सबने परिवार का जीना मुहाल कर दिया। मां, पिता, दोस्त सब की बदनामी की पुलिस ने। इल्जाम ऐसे संगीन थे कि अच्छे-अच्छे क्राइम के तोपची बोल नहीं पा रहे थे कि क्या सही है और क्या गलत। इस बीच जो मर गई उसकी इज्जत को भी नोएडा पुलिस ने तार-तार कर दिया। घर के सदस्य समाज में मुंह तक दिखाने से कतराते रहे। यहां तारीफ करना चाहुंगा नूपुर तलवार की जिन्होंने किसी भी कदम पर हौसला नहीं खोया। वहीं सीबीआई ने भी ये साबित कर दिया कि क़त्ल की रात दरवाजा खुला होने के बाद भी आवाज दंपत्ति तक नहीं गई होगी।
पुलिस ने 55 दिन के बाद, वो दाग जो कि इस परिवार के ऊपर लगा था ऑनर किलिंग का धो दिया। तलवार को 50 दिन बाद जमानत तो मिल गई लेकिन शिकंजा अभी भी बरकरार। एक नामी डॉक्टर के साथ पुलिस वालों ने ऐसा क्यों किया? क्या ये 50 दिन कोईं भी डॉ तलवार को लौटा पाएगा। एक तो बच्ची को खो दिया और दूसरी तरफ जेल के ज़ख्म भी। कौन है डॉ तलवार का गुनाहगार? लाचार बाप अब अपनी बेटी के लिए आंसू अपने घर में ही बहा सकेंगे, किसी काल कोठरी में नही।
इस साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री 2008 को सीबीआई ने सुलझाने का दावा किया है। सीबीआई ने अपनी डेढ़ घंटे की प्रेस कॉन्फ्रेंस में क़ातिलों के नाम बता दिए। तीनों नौकर है। याने नौकरों को आप डांट भी नहीं सकते, यदि उससे कोई गलती हो तब भी। साथ ही नौकरों को इतनी आजादी नहीं देनी चाहिए कि वो आपके घर में सेंध मार दे और आप को पता भी नहीं चले। मैंने अपने पुराने आर्टिकल (आरुषि केस-पेंच ही पेंच) में लिखा था कि कहीं कृष्णा सीबीआई को गुमराह तो नहीं कर रहा है और बात सच थी, हुआ भी यही। सीबीआई की मानें तो कृष्णा ने दो गलतियां की:--
पहली, 3 पल की वो कॉल। यदि नहीं उठाता तो शायद ही चुंगल में आ पाता।
दूसरी, दूसरे नार्को में उसने राजकुमार का नाम ले दिया और बताया कि राजकुमार की आरुषि पर गंदी नजर थी। राजकुमार दो नार्को में टूट गया, नहीं तो कृष्णा तो पूरा ही महेश भट्ट का चेला था जो पूरी स्किप्ट लिख कर बैठा हुआ था।
लेकिन पेंच अभी भी कई हैं। नार्को को कोर्ट चार्जशीट तक तो इस्तेमाल कर सकती है लेकिन यदि फोरेंसिक रिपोर्ट में कुछ पुख्ता नहीं निकला तो सीबीआई की भी किरकिरी हो सकती है। वहीं, कृष्णा के घरवाले कह रहे हैं कि क़त्ल की रात कृष्णा घर पर था। इस बहुचर्चित केस के बाद लोगों की आंखें तो खुलेंगी कि नौकरों पर कितना भरोसा करना चाहिए। वर्ना ये घर के फूल तक का क़त्ल करने से नहीं हिचकते।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, July 11, 2008

सांप्रदायिकता






मों का संसार फैला है
आग का अंबार फैला है,
आज फिर किसी शहर में
सांप्रदायिकता का बुखार फैला है।


फिर जल रहा है एक शहर
उलझ के धर्मों के आडंबर में,
देखो, मेरे देश का एक राज्य
धधक रहा है शोलों में।

धूं-धूं कर जल रहा है, घर मेरा,
भेंट चढ़ा राजनीति की।
मेरे घर के सामने जल रहा
उस नेता का भी घर
जिसने धधकाई थी चिंगारी दिल में।


इस पाक भूमि को,
किया है नापाक
अपने इरादों से
छिड़का है जहर जिसमें
अब,
जल रहा है खुद,
आज, उसका भी, अपना कोई
उसी कूंचे में,
जहां जला था कुछ देर पहले
मेरा कोई।

आपका अपना,


नीतीश राज




आज जरा हालचाल ठीक नहीं है, रात से बुखार और जुखाम ने तड़पा रखा है। बड़ी ही मुश्किल से ऑफिस से छुट्टी मिली तो सोचा कि चलो कुछ पुराने पन्ने खंगाले जाएं। देखे तो काफी कविता लिखी हुईं है कुछ खुद पर तो कुछ समाज पर। तो कुछ दिन पहले के हालात को देख कर सोचा कि आज ये पेश करूं। सोच भी रहा हूं कि कविता को पन्नों तक ही सीमित नहीं रहने दूं। कविता का संग्रह बना ही दूं। कैसी लगी, बताएं जरूर? विश्वास ही पूंजी है।


इस कविता में कुछ जुल्म दिखेगा, कुछ मेरे साथ होगया अभी, ऑफिस से बुलावा आगया, आजाओ, सिर्फ बैठे रहना, कुछ करना नहीं, लेकिन आजाओ। हद है...




Thursday, July 10, 2008

…ये तो सौदे का खेल है

बहुमत साबित करना है मनमोहन सरकार को। सब जानते हैं कि ये महज आंकड़ों का खेल है। कोई कहता है कि सरकार साबित कर देगी और कोई कहता है कि साबित तो दूर की बात औंधे मुंह गिर जाएगी सरकार। कुछ दिग्गज मानते हैं कि चुनाव बस चंद कदम दूर हैं। आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। कांग्रेस, भाजपा और वाम दल पर निशाना साधे हुए है तो वहीं वाम दल के निशाने पर पीएम, प्रणब और समाजवादी पार्टी के हीरो अमर सिंह हैं। वैसे देखा जाए तो अमर सिंह जैसे दिखते हैं शख्सियत भी उनकी वैसी ही है। गोलमोल से हैं किस करवट बैठ जाएं खुद उनके आका मुलायम सिंह को भी नहीं पता। आज कह रहे हैं कि सोनिया-मनमोहन के साथ चलो। यदि कांग्रेस ने एक भी केस खुलवा दिया तो लगेंगे रोने कि सोनिया तो विदेशी महिला है।
लेफ्ट इसलिए रो रहा है कि जी-8 का सम्मेलन अभी क्यों हुआ। हाथ तो खींच लिया लेकिन उस का फायदा लेफ्ट को मिलता दिखाई नहीं दे रहा। पीएम देश में होते तब समर्थन वापस लिया होता तो मसौदे की कॉपी वितरित नहीं हो पाती। आईएईए में जाने से सरकार को लेफ्ट कुछ समय के लिए तो और रोक ही पाती।
जैसे ही लेफ्ट ने हाथ खींचा, कांग्रेस को दर्दनिवारक गोली मिल गई और समाजवादी पार्टी ने समर्थन की चिट्ठी राष्ट्रपति को सौंप दी। लेकिन पेंच तो यहीं हो गया। 272 के जादुई आंकड़े को छूने के लिए यूपीए के पास हैं 224, तो 39 समाजवादी पार्टी के पास हैं। इनको मिलाकर होते हैं 263 तो बाकी बचते हैं 9, सिर्फ 9। लेकिन समाजवादी पार्टी के 8 सांसद अभी वोट दे पाएंगे या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता। इनमें से कुछ बागी हैं तो कुछ जेल में। तो कुल मिलाकर 17 वोट की और जरूरत होगी यूपीए को। लेकिन 272 के जादुई आंकड़े को पाने के लिए ये 17 वोट आएंगे कहां से?
तो अब शुरू होता है खरीद-फरोख्त का सिलसिला। बाते मनवाने और नंबर गिनती को बढ़ाने का काम, वादे देने और वादे मनवाने का सिलसिला। अब सबसे ज्यादा जिस पर निगाह होगी वो हैं अन्य दल। अन्य दल की संख्या है 35। याने की इनके तो वारे-न्यारे होगए। जो भी आंकड़ा आएगा वो इनमें से ही आएगा। इनमें से कुछ ने कहा है कि वो फ्लोर पर जाकर ही पक्ष-विपक्ष की बात पर गौर करेंगे। लेकिन कुछ पार्टी तो सीधे ही मोलभाव पर उतर आई हैं। एक पार्टी ने तो साफ कह दिया कि यदि हमारी मांग पूरी होगी तब ही हम पक्ष में वोट करेंगे नहीं तो हम लेफ्ट के साथ हैं। इसका मतलब ये हो गया कि जिसके पीछे लेफ्ट ने सरकार से हाथ खींचा याने कि परमाणु करार उससे इन पार्टियों को कुछ भी मतलब नहीं। वो तो सिर्फ ये जानते हैं कि इस समय बहती गंगा में हाथ धोना ही बेहतर।
वैसे, इस नंबर गेम में जोड़-तोड़ करके सरकार को अपने नंबर साबित कर पाने में शायद ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। लेकिन इस करार से एक ये बात तो साबित हो गई कि राजनीतिक पार्टियां चाहें जो कुछ भी कहें या करें लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो सही और अपनी राह पर चलना ही पसंद करते हैं। पूर्व राष्ट्रपति कलाम जी ने साफ कर दिया कि ये करार देशहित में हैं और कुछ ऐसा ही कहना है कुछ और वैज्ञानिकों का भी। करार के पक्ष में एक कदम सरकार तो आगे बढ़ गई है लेकिन दूसरा कदम है बहुमत साबित करना। क्या मनमोहन सरकार कर पाएगी बहुमत साबित?
आपका अपना,
नीतीश राज

Monday, July 7, 2008

सबसे ख़तरनाक होता है...

(चे ग्वेरा)
सबसे ख़तरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर
घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।।
-अवतार सिंह पाश

‘MIND IT, MR. DHONI’



क्या हुआ धोनी जी, फिर फाइनल फिसल गया? कोई कटाक्ष नहीं कर रहा हूं मैं आप पर। लेकिन ये क्या बत्ती क्यों बुझ गई फाइनल में? इस मैच को खेलते हुए सोचा भी था कि ऐसा होगा, हार हाथ लगेगी। जिस विपक्षी टीम के 12 ओवर में 4 खिलाड़ी सर झुकाए वापस पवेलियन लौट गए हों, वो १०० रन से हरा देगी। उनके खिलाड़ी आउट होने पर आप बहुत खुश थे। चेहरे से साफ झलक रहा था कि मन ही मन आप कह रहे हों कि भई इस फाइनल में तो बत्ती गुल नहीं हो पाएगी लेकिन अफसोस, गलत जवाब, बत्ती गुल होगई। सोचा होगा चलो कि जीत गए तो भी अच्छा, नहीं जीते तो भी। तब भी आप मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे जब मुल्तान के सुल्तान सहवाग (जो पाकिस्तान में करिशमा ही दिखा देते हैं) बल्ले से आग बरसा रहे थे। मैंने ऊपरनहीं जीते तो भीइस लिए लिखा क्योंकि नहीं जीतने पर सारा ठीकराज्यादा खेल, कम आरामपर फोड़ने वाले हैं? लेकिन जो भी हो, यहां भी आप की टीम फाइनल तक पहुंची ये काबिलेतारीफ है।
धोनी, लेकिन अब ये वक्त आगया है कि आप सोचें कि गलती कहां है? सीरीज के सभी मैच अच्छे खेले जाते हैं. फिर फाइनल को क्यों इतना हौवा मानकर खिलाड़ी, अपना बेहतरीन नहीं दे पा रहे हैं। या आप को अपनी सोच में कुछ परिवर्तन लाना होगा। क्या कारण है, भारत को गेंद और बल्ले दोनों से इतना अच्छा स्टार्ट मिला लेकिन हम उसे कैश नहीं कर पाए। हमने शुरुआत में गेंद से कमाल दिखाया। १२ ओवर में ही खिलाड़ियों का पत्ता काट दिया और वो भी मात्र ६६ के स्कोर पर। माना कि डेंजर मैन तब भी क्रीज पर था। वो पूरे मैच का रुख बदलने के लिए अकेला ही काफी है और शायद ये ही हुआ भी। पर हमें ये याद रखना होगा कि सनथ का कैच ५६ रन के स्कोर पर आरपी सिंह ने छोड़ दिया था, जो कि बहुत महंगा पड़ गया। पांचवें विकेट के बीच १३१ रन की साझेदारी हुई। डेंजर मैन अपना काम करके जा चुका था। फिर भी २७३ का लक्ष्य अंतिम के पुछल्लों ने दिया वो काफी होता है। यदि २५० का भी टार्गेट मिलता तो भी दबाव में हम कुछ सोचा सकते थे।
हम सही खेल रहे थे, जहां तक बल्ले का सवाल आता है। ४२ गेंदों पर हमारे ५० रन हो चुके थे। गंभीर की वापसी हो चुकी थी। सहवाग २६ गेंदों पर ५० बना चुके थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि हम १०० रन से हार गए। फाइनल में इस तरह घुटने टेकना अच्छा नहीं लगता। वहीं, यदि दूसरी तरफ देखें ५९ वीं गेंद पर श्रीलंका ने अपने ५० रन पूरे किए थे और उनके दो खिलाड़ी आउट भी हो चुके थे। लेकिन ऐसा क्या हुआ जो मैच हम....
अब जो दूसरी बात समझ आती है, इन हारों से बचने के लिए, घर आकर फाइनल के लिए पूजा पाठ कीजिए। दूसरों के बारे में कुछ भी बोलने से पहले जरा सोचिए। आपका फाइनल का सितारा बुझा हुआ है उसे जलाने के लिए हवन करवाएं। एंड....माइंड इट धोनी......बैटर....माइंड इट।
आपका अपना,
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”