शादी में लखनऊ जाना हुआ था, वो भी सहयोगी की शादी। साथ में उठना-बैठना, खाना-पीना, तो बनता ही है कि उसकी शादी में जाएं। वैसे दिल्ली से ५०० किलोमीटर दूर सिर्फ शादी में शरीक होने जाना अपने में ही बहुत बड़ी बात है। ऑफिस की तरफ से ही १४-१५ साथी शादी में पहुंचे। इतनी दूर शादी में जाना ये बताता है कि जरूर से सहयोगी में कुछ तो बात होगी कि इतने लोग शादी का हिस्सा बने।
ठाकुर विशाल प्रताप सिंह नाम ही बहुत भारी है दूल्हे मियां का। फिर उसी अंदाज में शादी। जैसा नाम वैसा ही अंदाज दिख रहा था शादी का। अधिकतर घर के सदस्यों ने सूट ना पहनकर शेरवानी, कुर्ता पहना हुआ था और सर पर सभी ने पग या यूं कहें कि हाथ से बांधी गई पगड़ी डाली हुई थी। उस पगड़ी के कारण रौब अलग लग रहा था। दूल्हे मियां का भी हाल वो ही था कि पिंक कलर की पग जिसमें की गोल्डन रंग का सामने फर लगा हुआ था जैसे कि जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर पहना करते थे। पिंक शेरवानी गले में मोतियों की माला। मोतियों की ३-४ माला के ऊपर दो-तीन फूलों की माला। वैसे तो अधिकतर जगह ऐसा होता है कि जब भी दूल्हा पूजा पाठ करके उठता है तो उसके गले में जनेऊ भी होता है और सभी मालाओं के ऊपर धर्म में बंधा सूत का वो धागा जो कि शादी के समय पर आपकी रक्षा करता है बुरी ताकतों से। पर मुझे तो लगता है कि जो शादी करता रहता है उसकी रक्षा तो खुद भगवान भी नहीं कर सकते। कुछ दिन बाद तो बेगम के हाथ में बेलन रहेगा, और शरीर दूल्हे का होगा चाहे वो कहीं पर भी लगे। तो रक्षा बुरी ताकतों से नहीं बेगमों से बचाने के लिए जनेऊ की ताकत का इस्तेमाल किया जाता है। खासकर शुरूआत में तो सब सही चले फिर तो खुदा को भी पता है कि कुछ नहीं हो सकता चलेगी तो गृहमंत्री की ही।
दूल्हे के हाथ में एक भारी भरकम तलवार थी जो कि बाद में पता चला कि पुश्तैनी थी। पता नहीं कितने लोग उस तलवार को लेकर मंडप में जा चुके थे। मुझे तो हाथ में तलवार लिए विशाल काफी जच रहा था। पैरों में चर-चर करने वाली जूती जिसका सिरा आगे से उठा हुआ और मुड़ा रहता है।
जो भी हो सब बहुत ठीक था पर पता नहीं क्यों फैसला ये हुआ कि दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा, गाड़ी से जाएगा। ना तो मुझे समझ आया और ना ही अच्छा भी लगा। बारात लड़की के घर तक या जहां भी मंडप लगा हो आ रही हो और दुनिया दूल्हे को नहीं देख पाए तो लोगों की उत्सुक्ता बढ़ने के बजाए खत्म हो जाती है। आज भी दिल्ली या फिर सभी जगह घोड़ी पर ही दूल्हा चढ़ता है या फिर खुली कार में बंद में तो नहीं। बारात पहुंची और सजावट देखकर हम वाह कहने से पीछे नहीं हटे। बहुत बढ़िया तरह से पूरी जगह को सजा रखा था। मंच, पूजा स्थल, वर माला की जगह, नवविवाहित जोड़े के लिए अलग से स्थान, अच्छा लगा देखकर। कई जगह बल्ब की एक लड़ी से मंच को सजाया गया था जो काफी बेहतर बन चुका था। लेकिन यहां कार से दूल्हा उतरा और वहां उसे पकड़कर बैठा लिया गया वहीं गेट के पास पहले पूजा पाठ। पूजा होती भी बड़ी लंबी है और फिर जाकर लड़का मंच तक पहुंचा। इतनी देर में हम सब ने लॉन में सेब के फ्लेवर का हुक्का पिया।
वरमाला के लिए एक अलग स्थान बनाया गया था जहां पर दूल्हा-दुल्हन को एक चक्र पर खड़े होना है और वो चक्र स्टेज पर बना हुआ था और लगातार घूमता रहेगा। उसकी रफ्तार तेज नहीं होगी पर फिर भी निरंतर तो रहेगा ही।
पहले दूल्हे ने शुरूआत की और फिर दुल्हन लेकिन इस समय मैं स्टेज पर पहुंच कर दूल्हे को उठाने लगा साथ ही सभी साथियों को भी आना था पर कोई ऊपर नहीं आया और सिर्फ मैं अकेला रह गया। साथ ही कैमरामैन एक लाइव फ्रेम कैच नहीं कर रहा था, हर बार रीटेक पर रीटेक ले रहा था और जहां हम लोग काम करते हैं वहां तो रीटेक का मौका अधिकतर होता ही नहीं है। इस कारण उस कैमरामैन को मेरे सहयोगी ने पार्लियामेंट का कैमरामैन के नाम से नवाजा, जहां हलचल कम और फ्रेम ज्यादा मिलते हैं।
इस शान की शादी में खाना भी अलग तरह का था। ब्रज, दिल्ली, पुरानी दिल्ली, लखनवी, मुगलई सब तरह के खाने का लुत्फ ले सकते हैं। बिल्कुल सादा खाना जो कि उबला हुआ था वो भी था। साथ ही खाना खाने के बाद पान। आह! ऐसे पान
कभी नहीं खाया। यहां पर ये बताना जरूरी है कि ऐसा नहीं ऐसे पान कभी नहीं खाया। भई पान तो बहुत खाए पर खिलाने का अंदाज बिल्कुल निराला था। कभी भी इस अंदाज से मैंने पान नहीं खाया ना ही किसी को खिलाते और खाते देखा। मटकते-मटकते पान की गिलौरी बनाना और फिर हाथ को नचाते हुए खुद अपने हाथ से खाने वाले के मुंह में पान का बीड़ा डालना। अधिकतर लोगों ने इस निराले अंदाज का लुत्फ लिया।
सबसे खुशी की बात ये है कि विशाल ने जिसे चाहा उसी से शादी की और वो भी डंके की चोट पर। और उसकी शादी में हम ऑफिस से पहुंचने वाले भी बहुत खुशनसीब थे, क्यों? क्योंकि सब ने शादी उन्हीं से शादी की है जिन्हें उन्होंने चाहा है या फिर शादी करने जा रहे हैं जिन्हें चाह रहे हैं। तो हमारी बिरादरी में शामिल होने का स्वागत है मेरे दोस्त।
आपका अपना
नीतीश राज
####आजमगढ़ पर लिखे एक शब्द से आहत हैं लखनऊ के लोग,उसकी चर्चा अगली बार।
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
Wednesday, February 25, 2009
सियासत-राजनीति का मिश्रण है नवाबों का शहर 'लखनऊ'
नवाबों के शहर में नवाबी तो लगता है रह नहीं गई है, जो रह गया लगता है वो है राजनीति। एक शहर था पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ जहां पर एक भी पोस्टर नहीं था और यहां, उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में कौन सा कोना बाकि रह गया जहां पर पोस्टर ना चस्पा हों, वो भी सत्तारूढ़ पार्टी का। एक महानुभाव हैं जो कि कांग्रेस से बीएसपी में चले गए हैं यानी कि दलबदलू हैं। उन्होंने पूरे शहर को अपने पोस्टरों से भऱ दिया है, लंबा-चौड़ा नीला पोस्टर। कई जगह तो ये पोस्टर महज़ ३०-४० फुट की दूरी पर भी लगे हुए दिखे। मेरा दिल तो ये कर रहा था कि इस एतिहासिक शहर की खूबसूरती पर प्रहार करने वाले इस नेता को कोई वोट करने वाला ही ना मिले।
बहरहाल, सहयोगी की शादी में लखनऊ जाना हुआ। हम चार एक साथ दिल्ली से कानपुर, ट्रेन से और फिर कानपुर से वाया रोड लखनऊ पहुंचे। वैसे तो तीन-चार साल पहले कानपुर जाना हुआ था। तब तो नहीं पर इस बार शहर कुछ छोटा और कुछ भिचा-भिचा याने की कंजस्टेड सा लगा। साथ ही पता नहीं यहां के लोगों को क्या बीमारी है कि हॉर्न बजाते रहते हैं वो भी बेमतलब, जानते हैं कि आगे वाला साइड अभी नहीं दे सकता फिर भी। वहां पर देखने से लगा कि दिल्ली, ट्रेफिक के मामले में बेहतर है। वैसे तो लखनऊ में भी ट्रेफिक दिखा पर ज्यादा घिचपिच नहीं दिखी, फिर भी कानपुर से हाल बेकार, शायद ही १० फीसदी लोगों को ये पता होगा कि गाड़ी कैसे चलाते हैं।
पूरे १० घंटे लगातार सफर के बाद लखनऊ के चारबाग के अंबर होटल पर जाकर हमारा कारवां रुका। बाहर से देखने पर लग रहा था कि होटल बड़ा ही शानदार होगा पर अंदर मामला कुछ और ही था। हमें दो कमरे मिले थे जिसमें से एक तो ठीक था और दूसरा पहले कमरे की पूरी कसर निकाल रहा था। इस होटल की सबसे अच्छी चीज ये लगी कि चाय दिल को छू लेने वाली मिल रही थी और एक बार नहीं हर बार वैसा ही स्वाद। यारों ने कहा कि होटल का कूक अच्छा है। थके हारे को क्या चाहिए एक गरमा गर्म शानदार चाय, थकान उतर गई।
तीन-चार घंटे आराम और कमरे में मस्ती करने के बाद हम सज-धज के निकले बारात के लिए। बारात घर से जब बारात चली तो लगा कि शायद ये ५०-६० मीटर जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा और हुआ भी कुछ यूं ही। नवाबों के शहर में दूल्हा भी नवाबों की तरह ही सजा था हाथ में तलवार, सर पे हाथ से बंधी रसूख वाली पगड़ी। नाच-गाने के बाद दूल्हे को दरवाजे के पास ही रोक कर पूजा कराई गई। और फिर मंच, लोगों के साथ फोटो खिंचवाना, दुल्हन का आना, साथ में सहेली, फिर वर माला, खाना-पीना, शादी खत्म, थैंक्यू बाय बाय। अगले दिन दोपहर तक होटल को बाय बाय। दोस्त के घर जाकर पेट पूजा। अब घूमने के लिए तैयार टोली। पर ये क्या जहां पर जा रहे हैं वहीं पर रास्ता बंद है। दोस्त से पूछा कि माजरा क्या है? आजमगढ़ से दो ट्रेन में भरकर लोग आए हैं, वो ही बाटला एनकाउंटर और आजमगढ़ से एक शख्स की गिरफ्तारी का विरोध। तो अब क्या, चलो दूसरे रास्ते से ट्राई करते हैं। पर सारा जमघट तो उसी जगह पर लगा हुआ है जहां पर हमें जाना है- बड़ा इमाम बाड़ा और भूल भुलैया। पर अफसोस दूसरा रास्ता भी बंद, भीड़ ही भीड़, जाम ही जाम, गाड़ी ही गाड़ी। सबने एक सुर में कहा यहां से निकालों कहीं और चलो। हजरतगंज का रुख किया गया। लखनऊ का सीपी, चंडीगढ़ का सेक्टर १७। दिल्ली में सबसे ज्यादा जहां पर घूमते हैं, अफसोस कि नवाबों के शहर में भी वहीं पर जाकर बैठना, घूमना पड़ा, यानी मॉल में। एक रेस्त्रां में जाकर ४०० रु. की कॉफी पी गए। वहां पर २-३ घंटे बैठे ऑफिस की बातों पर सर मारते रहे एक दूसरे से। जिस जगह से भाग कर गए थे उसी जगह की बातों पर बातें करते रहे।
मायावती जहां पर १० हजार करोड़ रु. खर्च कर रहीं हैं उस जगह पर भी गए लेकिन वहां पर काम चल रहा था, अंदर तो जा नहीं सके बाहर से ही देखना पड़ा कि ये पत्थर का पहाड़ आखिर है क्या? इतना पैसा यूपी के विकास, भविष्य पर लगता तो शायद लोगों का भला हो जाता। आगे कभी मुलायम की सरकार आएगी तो जैसे मुलायम के बनवाए राम मनोहर लोहिया पार्क में आज कोई पानी देने वाला नहीं है वैसे ही इसकी दीवारों पर पोस्टर चिपका दिए जाएंगे। राजनीतिक विद्वेष के कारण और खासकर कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई के चलते नुकसान जनता झेलती हैं।
आखिर, लखनऊ से चलने का वक्त हो गया। चलते-चलते भोजन और किसी परिचित से मिलने के लिए हम प्रेस क्लब पहुंचे। कहां चंडीगढ़ का प्रेस क्लब और कहां यूपी का? पर खाने के मामले में वाह भई वाह! लाजवाब। कुछ देख सके या नहीं पर आदमी का दिल जीतना है तो उसका रास्ता पेट से होकर जाता है और वाकई खाने ने हमारा दिल जीत लिया और इसी कारण लखनऊ ने भी। चौक में ठंडाई हो या फिर १० रंग के गोलगप्पे या फिर मियां जी की बिरयानी जिसकी महक चौराहे के पार बनी पुलिस चौकी तक पहुंच जाती है और टुंडे के कवाब। सच खाने में तो लखनऊ का जवाब नहीं।
ट्रेन में यही सोचता रहा कि यदि ये जाम-भीड़ नहीं होता तो शायद ये दिन हमारी जिंदगी के लिए काफी खुशनुमा होता।
#### शादी की शान और आजमगढ़ की खट्टास अगली बार।
आपका अपना
नीतीश राज
बहरहाल, सहयोगी की शादी में लखनऊ जाना हुआ। हम चार एक साथ दिल्ली से कानपुर, ट्रेन से और फिर कानपुर से वाया रोड लखनऊ पहुंचे। वैसे तो तीन-चार साल पहले कानपुर जाना हुआ था। तब तो नहीं पर इस बार शहर कुछ छोटा और कुछ भिचा-भिचा याने की कंजस्टेड सा लगा। साथ ही पता नहीं यहां के लोगों को क्या बीमारी है कि हॉर्न बजाते रहते हैं वो भी बेमतलब, जानते हैं कि आगे वाला साइड अभी नहीं दे सकता फिर भी। वहां पर देखने से लगा कि दिल्ली, ट्रेफिक के मामले में बेहतर है। वैसे तो लखनऊ में भी ट्रेफिक दिखा पर ज्यादा घिचपिच नहीं दिखी, फिर भी कानपुर से हाल बेकार, शायद ही १० फीसदी लोगों को ये पता होगा कि गाड़ी कैसे चलाते हैं।
पूरे १० घंटे लगातार सफर के बाद लखनऊ के चारबाग के अंबर होटल पर जाकर हमारा कारवां रुका। बाहर से देखने पर लग रहा था कि होटल बड़ा ही शानदार होगा पर अंदर मामला कुछ और ही था। हमें दो कमरे मिले थे जिसमें से एक तो ठीक था और दूसरा पहले कमरे की पूरी कसर निकाल रहा था। इस होटल की सबसे अच्छी चीज ये लगी कि चाय दिल को छू लेने वाली मिल रही थी और एक बार नहीं हर बार वैसा ही स्वाद। यारों ने कहा कि होटल का कूक अच्छा है। थके हारे को क्या चाहिए एक गरमा गर्म शानदार चाय, थकान उतर गई।
तीन-चार घंटे आराम और कमरे में मस्ती करने के बाद हम सज-धज के निकले बारात के लिए। बारात घर से जब बारात चली तो लगा कि शायद ये ५०-६० मीटर जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा और हुआ भी कुछ यूं ही। नवाबों के शहर में दूल्हा भी नवाबों की तरह ही सजा था हाथ में तलवार, सर पे हाथ से बंधी रसूख वाली पगड़ी। नाच-गाने के बाद दूल्हे को दरवाजे के पास ही रोक कर पूजा कराई गई। और फिर मंच, लोगों के साथ फोटो खिंचवाना, दुल्हन का आना, साथ में सहेली, फिर वर माला, खाना-पीना, शादी खत्म, थैंक्यू बाय बाय। अगले दिन दोपहर तक होटल को बाय बाय। दोस्त के घर जाकर पेट पूजा। अब घूमने के लिए तैयार टोली। पर ये क्या जहां पर जा रहे हैं वहीं पर रास्ता बंद है। दोस्त से पूछा कि माजरा क्या है? आजमगढ़ से दो ट्रेन में भरकर लोग आए हैं, वो ही बाटला एनकाउंटर और आजमगढ़ से एक शख्स की गिरफ्तारी का विरोध। तो अब क्या, चलो दूसरे रास्ते से ट्राई करते हैं। पर सारा जमघट तो उसी जगह पर लगा हुआ है जहां पर हमें जाना है- बड़ा इमाम बाड़ा और भूल भुलैया। पर अफसोस दूसरा रास्ता भी बंद, भीड़ ही भीड़, जाम ही जाम, गाड़ी ही गाड़ी। सबने एक सुर में कहा यहां से निकालों कहीं और चलो। हजरतगंज का रुख किया गया। लखनऊ का सीपी, चंडीगढ़ का सेक्टर १७। दिल्ली में सबसे ज्यादा जहां पर घूमते हैं, अफसोस कि नवाबों के शहर में भी वहीं पर जाकर बैठना, घूमना पड़ा, यानी मॉल में। एक रेस्त्रां में जाकर ४०० रु. की कॉफी पी गए। वहां पर २-३ घंटे बैठे ऑफिस की बातों पर सर मारते रहे एक दूसरे से। जिस जगह से भाग कर गए थे उसी जगह की बातों पर बातें करते रहे।
मायावती जहां पर १० हजार करोड़ रु. खर्च कर रहीं हैं उस जगह पर भी गए लेकिन वहां पर काम चल रहा था, अंदर तो जा नहीं सके बाहर से ही देखना पड़ा कि ये पत्थर का पहाड़ आखिर है क्या? इतना पैसा यूपी के विकास, भविष्य पर लगता तो शायद लोगों का भला हो जाता। आगे कभी मुलायम की सरकार आएगी तो जैसे मुलायम के बनवाए राम मनोहर लोहिया पार्क में आज कोई पानी देने वाला नहीं है वैसे ही इसकी दीवारों पर पोस्टर चिपका दिए जाएंगे। राजनीतिक विद्वेष के कारण और खासकर कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई के चलते नुकसान जनता झेलती हैं।
आखिर, लखनऊ से चलने का वक्त हो गया। चलते-चलते भोजन और किसी परिचित से मिलने के लिए हम प्रेस क्लब पहुंचे। कहां चंडीगढ़ का प्रेस क्लब और कहां यूपी का? पर खाने के मामले में वाह भई वाह! लाजवाब। कुछ देख सके या नहीं पर आदमी का दिल जीतना है तो उसका रास्ता पेट से होकर जाता है और वाकई खाने ने हमारा दिल जीत लिया और इसी कारण लखनऊ ने भी। चौक में ठंडाई हो या फिर १० रंग के गोलगप्पे या फिर मियां जी की बिरयानी जिसकी महक चौराहे के पार बनी पुलिस चौकी तक पहुंच जाती है और टुंडे के कवाब। सच खाने में तो लखनऊ का जवाब नहीं।
ट्रेन में यही सोचता रहा कि यदि ये जाम-भीड़ नहीं होता तो शायद ये दिन हमारी जिंदगी के लिए काफी खुशनुमा होता।
#### शादी की शान और आजमगढ़ की खट्टास अगली बार।
आपका अपना
नीतीश राज
Tuesday, February 24, 2009
रहमान, गुलजार, रेसुल की जय हो...जय हो...
जय हो, जय हो, जय हो....। जी हां, आज इस गाने की गूंज ने ऑस्कर में धूम मचाई। देश को गर्व हो रहा है कि आज हमारे भारत के संगीत का परचम उस जगह भी गूंजा जहां पर हमेशा से फिल्म इंडस्ट्री चाहती थी कि ऐसा हो। पहले गोल्डन ग्लोब फिर बाफ्टा में सर्वश्रेष्ठ बनने के बाद अब बारी थी ऑस्कर की। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। ऑस्कर में 9 कैटेगरी में 10 नॉमिनेशन, जिसमें से 8 में ऑस्कर अवॉर्ड। रहमान ने भारत के लिए पूरा कर दिया सपना। वो सपना जिसे पता नहीं कितने फिल्मकारों ने देखा, कितनों ने पूरा करने की कोशिश की। ४४ साल के अल्लाह रख्खा रहमान की चर्चा तो १९८० के दशक में बॉम्बे डाइंग के लिए बनाए गए जिंगल से ही शुरू हो गई थी। फिर १९९२ में मणिरत्नम की रोजा में दिए संगीत से भी उनकी पहचान बनी और उन्हें नेशनल अवॉर्ड भी मिला। रंगीला, दिल से, बॉम्बे, जींस, ताल, लगान, साथिया, रंग दे बसंती, स्वदेश, गुरु फिल्मों में अपना संगीत दिया। २००० में ही रहमान को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। अभी तक स्लमडॉग मिलेनेयर के लिए ए आर रहमान को ११ अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड मिल चुके हैं। ए आर रहमान ने इतिहास रच दिया है।
ऑस्कर में स्लमडॉग की धूम रही----
बेस्ट फिल्म – स्लमडॉग मिलेनयर- क्रिसचन कॉल्सन(पहली बार नॉमिनेशन) बेस्ट डायरेक्टर-डैनी बॉयल
बेस्ट म्यूजिक सॉन्ग- संगीतकार-ए आर रहमान, गीतकार-गुलजार(जय हो..)
बेस्ट ओरिजनल स्कोर-ए आर रहमान(तीन नॉमिनेशन)
बेस्ट साउंड मिक्सिंग-रेसुल पोकुट्टी, रिचर्ड प्रायके, इयान टेप (पहली बार नॉमिनेशन)
बेस्ट एडिटिंग- क्रिस डिकेंस (पहली बार नॉमिनेशन)
बेस्ट सिनेमैटोग्राफी-एंथनी डॉड मेंटल (पहली बार नॉमिनेशन)
बेस्ट (राइटिंग)एडैप्टेड स्क्रीनप्ले-साइमन ब्यूफॉय(साइमन का ये दूसरा नॉमिनेशन था। इससे पहले 1997 में द फुल मॉन्टी के लिए)
स्लमडॉग मिलेनेयर को सिर्फ साउंड एडिटिंग में अवॉर्ड नहीं मिला। सिर्फ एक ये कैटेगरी थी जिसमें कि नामांकित होने के बाद अवॉर्ड नहीं मिला।
बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री के लिए ‘स्माइल पिंकी’ को ऑस्कर मिला। इस डॉक्यूमेंट्री को भारत के राज्य उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर में शूट किया गया था। ये एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी जिंदगी एक छोटे से ऑपरेशन के कारण खुशहाल हो जाती है और इस फिल्म की डायरेक्टर ने भी एक सुखद अंत को ही अवॉर्ड का हकदार माना है।
एक लड़की पिंकी जो कि हंसना चाहती है लेकिन उसका होठ कटा हुआ है वो हंसने में असमर्थ है। उस पिंकी की लड़ाई एक सामाजिक संस्था ने लड़ी हक दिलाने की लड़ाई। मेगन माइलन ने जब ये अवॉर्ड लिया तो कहा कि स्माइल पिंकी। ये अवॉर्ड डॉ सुबोध के लिए भी जिन्होंने बिना कोई फीस लिए पिंकी का ऑपरेशन किया।
इस बार ऑस्कर में और क्या रहा खास--
बेस्ट एक्टर मेल 2008-शियान पेन, फिल्म मिल्क के लिए ऑस्कर, ५वीं बार नामांकित, सबसे पहली बार 1995 में डेड मैन वॉकिंग के लिए नामांकित।
बेस्ट एक्टर फिमेल 2008- केट विंस्लेट, फिल्म द रीडर के लिए ऑस्कर, छठी बार नामांकित, सबसे पहली बार 1995 में सेन्स एंड सेनसिबिलिटी के लिए स्पोर्टिंग रोल के लिए नामांकित।
वैसे जो भी हो स्लमडॉग मिलेनेयर एक भारतीय मूवी ही है। अगली कोशिश तो ये होगी की भारत में भारतीय निर्माता-निर्देशक की मूवी को जल्द ही ऑस्कर मिले। भारत में ऐसी मूवी बन सकती हैं पर तब सोच सिर्फ पैसे कमाने की ना होकर लक्ष्य ऑस्कर हो।
आपका अपना
नीतीश राज
फोटो साभार-ऑस्कर
Wednesday, February 18, 2009
काश! देश के सभी शहर चंडीगढ़ बन पाते।
कुछ दिन पहले ही फिर से अपने मनपसंद शहरों की लिस्ट में से एक, चंडीगढ़, जाना हुआ। सच मायने में मुझे इस शहर के रहन-शहन, हरियाली, धरोहर और साथ ही इस शहर के कायदे कानून को देखकर काफी सुकून मिलता है। इस शहर को देखकर ही लगता है कि देश में चंडीगढ़ जैसे कुछ शहर ज्यादा होने चाहिए। यहां के सेक्टर १७ के मार्केट को देख लें तो लगता है कि दिल्ली के कनॉट प्लेस में आप तफरी कर रहे हैं। सड़कें चौड़ी और साफ सुथरी देखकर ही लगता है कि आप किसी साफ सुथरी जगह याने कि पॉश इलाके में घूम रहे हैं।
मेरे मित्र ने मुझे बताया कि चंडीगढ़ का दूसरा नाम एनआरआई सिटी भी। मैंने उससे जानना चाहा कि ऐसा क्यों कहा जाता है? उसका जवाब था कि, ‘दिल्ली से मात्र २५० किलोमीटर दूर ऐसी सुकून भरी जगह मिलना आसान भी नहीं है। ये जगह एक तरह से देखें तो सेंटर प्वाइंट है ठंडी और गर्म जगह का। साथ ही यहां पर किसी भी सरकार का राज तो चलता नहीं है तो कानून व्यवस्था और साफ-सफाई तो तुम देख ही रहे हो’।
कुछ साल पहले जब सबसे पहली बार मेरा आना हुआ था चंडीगढ़, तब, रास्तों पर रेड लाइट नहीं थी। माना जाता था कि इस शहर के रहने वालों को इस बात का पता है कि सड़कों पर गाड़ी कैसे चलाई जाती है। लेकिन अब
हर चौराहे पर रेड लाइट लगा दी गई है शायद आबादी ज्यादा हो गई है या फिर वहां पर वो लोग पहुंच चुके हैं जो कि गाड़ी चलाना तो जानते हैं पर काबू रखना नहीं। पता नहीं कहां से ट्रैफिक पुलिस का हवालदार आपके पास आएगा और कहेगा कि सर आपने सीट बैल्ट नहीं लगाई है जरा गाड़ी कोने में लगाई। और फिर नियम नियम है आप अकड़े तो कट गई पर्ची, यदि प्यार से सुलटा लिए तो जल्द ही छूट जाएंगे। मोबाइल को हाथ में ले भी नहीं सकते। याने कि जब गाड़ी चला रहे हों तो सिर्फ गाड़ी चलाएं। इस कारण से सबसे ज्यादा चालान दिल्ली और उसके आस-पास से आए लोगों का ही कटता हैं। क्योंकि कायदे मानने में हम दिल्ली वालों का दिल थोड़ा छोटा है। गाड़ी चलाते समय तो अनिवार्य रूप से मोबाइल पर बात करेंगे। सीट बैल्ट के नाम पर बैल्ट को लगाएंगे नहीं सिर्फ ओढ़ लेंगे। हेल्मेट के नाम पर टोपी लगाएंगे। कोई भी पुलिस वाला आप से हरियाणवी लठमार टोन में (सिर्फ ताऊ जी को छोड़कर) बात करता नहीं मिलेगा।
साथ ही शहर ज्यादा बड़ा भी नहीं है और अधिकतर जगह पर जाने के लिए हर शख्स के पास अपना वाहन है। चंडीगढ़ और बैंगलोर ही शायद दो शहर हैं जहां पर सबसे ज्यादा स्कूटी चलती हैं।
हर चौराहे पर बना गोल चक्कर और उन गोल चक्कर की सजावट देखते ही बनती है। हर गोल चक्कर याद दिलाता है कि हम दिल्ली के चाणक्यपुरी में घूम रहे हों। वैसे आप सब को बता दूं कि चंडीगढ़ में जितने भी गोल चक्कर हैं उनको किसी ना किसी प्राइवेट कंपनी ने गोद ले रखा है। इसलिए वहां की साज सजावट निराली होती है साथ ही हर साल सबसे अच्छे और व्यवस्थित गोल चक्कर को ईनाम भी दिया जाता है।
इस शहर में यदि कभी आप आएं तो अपने साथ पॉलीथिन (पन्नी) नहीं लेकर आएं तो बेहतर वर्ना देखते के साथ ही पुलिस उसे जब्त कर लेगी और साथ ही जुर्माना भी लगा सकती है। नो टू पॉलीथिन इन चंडीगढ़। नो टू स्मोकिंग भी। पब्लिक प्लेस पर तो आप नहीं पी सकते, देखते ही चालान है। ५ की सिगरेट १००० में पड़ेगी, काफी महंगी, कई महीनों का कोटा। कोई भी आम आदमी आप की कंप्लेंट कर सकता है जिसका खामियाजा अजय देवगन अभी भी भुगत रहे हैं। अपनी गाड़ी से आए हैं तो नियम रट कर आइए यदि गलती हुई तो चालान, सीट बैल्ट हमेशा बांधें। प्रेस क्लब अगर जाना हो रहा है जो कि किसी भी थ्री स्टार होटल से कम नहीं है तो ध्यान रहे कि चप्पल, कुर्ता ना पहन कर जाएं वर्ना अंदर आप को जगह मिलेगी नहीं।
नेक चंद रॉक गार्डन घूमने के लिए काफा अच्छी जगह है साथ ही उसके पास ही सुखना लेक है जो कि बाकायदा चंडीगढ़ की सुंदरता को बढ़ाने और टूरिस्टों को खींचने के लिए काल्पनिक याने कि आर्टिफिसिएल बनाई गई। सेक्टर १६ का स्टेडियम और मोहाली स्टेडियम होसके तो देखने ही चाहिए और हम तो सेक्टर १६ के स्टेडियम में मैच खेलने गए थे। यूनिवर्सिटी भी अच्छी जगह है जहां पर आप घूम सकते हैं।
हरियाणा और पंजाब की राजधानी एक यूनियन टैरिटरी चंडीगढ़ है। इस कारण से इसके अपने काफी नुकसान और फायदे भी हैं पर देखकर लगता है कि हर शहर को अव्वल बनाने में यहां का प्रशासनिक तबका काफी मेहनत से लगा रहता है। हां, एक बात तो बताना भूल ही गया था कि चंडीगढ़ में और दिल्ली से चंडीगढ़ के रास्त में आपको ढाबे कम और ठेके (दारू की दुकान) ज्यादा मिलेंगे।
आपका अपना
नीतीश राज
# अब नवाबों के शहर जाना हो रहा है देखते हैं कि वो शहर हमें कैसा दिखता है।
फोटो साभार—गूगल
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मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”