शादी में लखनऊ जाना हुआ था, वो भी सहयोगी की शादी। साथ में उठना-बैठना, खाना-पीना, तो बनता ही है कि उसकी शादी में जाएं। वैसे दिल्ली से ५०० किलोमीटर दूर सिर्फ शादी में शरीक होने जाना अपने में ही बहुत बड़ी बात है। ऑफिस की तरफ से ही १४-१५ साथी शादी में पहुंचे। इतनी दूर शादी में जाना ये बताता है कि जरूर से सहयोगी में कुछ तो बात होगी कि इतने लोग शादी का हिस्सा बने।
ठाकुर विशाल प्रताप सिंह नाम ही बहुत भारी है दूल्हे मियां का। फिर उसी अंदाज में शादी। जैसा नाम वैसा ही अंदाज दिख रहा था शादी का। अधिकतर घर के सदस्यों ने सूट ना पहनकर शेरवानी, कुर्ता पहना हुआ था और सर पर सभी ने पग या यूं कहें कि हाथ से बांधी गई पगड़ी डाली हुई थी। उस पगड़ी के कारण रौब अलग लग रहा था। दूल्हे मियां का भी हाल वो ही था कि पिंक कलर की पग जिसमें की गोल्डन रंग का सामने फर लगा हुआ था जैसे कि जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर पहना करते थे। पिंक शेरवानी गले में मोतियों की माला। मोतियों की ३-४ माला के ऊपर दो-तीन फूलों की माला। वैसे तो अधिकतर जगह ऐसा होता है कि जब भी दूल्हा पूजा पाठ करके उठता है तो उसके गले में जनेऊ भी होता है और सभी मालाओं के ऊपर धर्म में बंधा सूत का वो धागा जो कि शादी के समय पर आपकी रक्षा करता है बुरी ताकतों से। पर मुझे तो लगता है कि जो शादी करता रहता है उसकी रक्षा तो खुद भगवान भी नहीं कर सकते। कुछ दिन बाद तो बेगम के हाथ में बेलन रहेगा, और शरीर दूल्हे का होगा चाहे वो कहीं पर भी लगे। तो रक्षा बुरी ताकतों से नहीं बेगमों से बचाने के लिए जनेऊ की ताकत का इस्तेमाल किया जाता है। खासकर शुरूआत में तो सब सही चले फिर तो खुदा को भी पता है कि कुछ नहीं हो सकता चलेगी तो गृहमंत्री की ही।
दूल्हे के हाथ में एक भारी भरकम तलवार थी जो कि बाद में पता चला कि पुश्तैनी थी। पता नहीं कितने लोग उस तलवार को लेकर मंडप में जा चुके थे। मुझे तो हाथ में तलवार लिए विशाल काफी जच रहा था। पैरों में चर-चर करने वाली जूती जिसका सिरा आगे से उठा हुआ और मुड़ा रहता है।
जो भी हो सब बहुत ठीक था पर पता नहीं क्यों फैसला ये हुआ कि दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा, गाड़ी से जाएगा। ना तो मुझे समझ आया और ना ही अच्छा भी लगा। बारात लड़की के घर तक या जहां भी मंडप लगा हो आ रही हो और दुनिया दूल्हे को नहीं देख पाए तो लोगों की उत्सुक्ता बढ़ने के बजाए खत्म हो जाती है। आज भी दिल्ली या फिर सभी जगह घोड़ी पर ही दूल्हा चढ़ता है या फिर खुली कार में बंद में तो नहीं। बारात पहुंची और सजावट देखकर हम वाह कहने से पीछे नहीं हटे। बहुत बढ़िया तरह से पूरी जगह को सजा रखा था। मंच, पूजा स्थल, वर माला की जगह, नवविवाहित जोड़े के लिए अलग से स्थान, अच्छा लगा देखकर। कई जगह बल्ब की एक लड़ी से मंच को सजाया गया था जो काफी बेहतर बन चुका था। लेकिन यहां कार से दूल्हा उतरा और वहां उसे पकड़कर बैठा लिया गया वहीं गेट के पास पहले पूजा पाठ। पूजा होती भी बड़ी लंबी है और फिर जाकर लड़का मंच तक पहुंचा। इतनी देर में हम सब ने लॉन में सेब के फ्लेवर का हुक्का पिया।
वरमाला के लिए एक अलग स्थान बनाया गया था जहां पर दूल्हा-दुल्हन को एक चक्र पर खड़े होना है और वो चक्र स्टेज पर बना हुआ था और लगातार घूमता रहेगा। उसकी रफ्तार तेज नहीं होगी पर फिर भी निरंतर तो रहेगा ही।
पहले दूल्हे ने शुरूआत की और फिर दुल्हन लेकिन इस समय मैं स्टेज पर पहुंच कर दूल्हे को उठाने लगा साथ ही सभी साथियों को भी आना था पर कोई ऊपर नहीं आया और सिर्फ मैं अकेला रह गया। साथ ही कैमरामैन एक लाइव फ्रेम कैच नहीं कर रहा था, हर बार रीटेक पर रीटेक ले रहा था और जहां हम लोग काम करते हैं वहां तो रीटेक का मौका अधिकतर होता ही नहीं है। इस कारण उस कैमरामैन को मेरे सहयोगी ने पार्लियामेंट का कैमरामैन के नाम से नवाजा, जहां हलचल कम और फ्रेम ज्यादा मिलते हैं।
इस शान की शादी में खाना भी अलग तरह का था। ब्रज, दिल्ली, पुरानी दिल्ली, लखनवी, मुगलई सब तरह के खाने का लुत्फ ले सकते हैं। बिल्कुल सादा खाना जो कि उबला हुआ था वो भी था। साथ ही खाना खाने के बाद पान। आह! ऐसे पान
कभी नहीं खाया। यहां पर ये बताना जरूरी है कि ऐसा नहीं ऐसे पान कभी नहीं खाया। भई पान तो बहुत खाए पर खिलाने का अंदाज बिल्कुल निराला था। कभी भी इस अंदाज से मैंने पान नहीं खाया ना ही किसी को खिलाते और खाते देखा। मटकते-मटकते पान की गिलौरी बनाना और फिर हाथ को नचाते हुए खुद अपने हाथ से खाने वाले के मुंह में पान का बीड़ा डालना। अधिकतर लोगों ने इस निराले अंदाज का लुत्फ लिया।
सबसे खुशी की बात ये है कि विशाल ने जिसे चाहा उसी से शादी की और वो भी डंके की चोट पर। और उसकी शादी में हम ऑफिस से पहुंचने वाले भी बहुत खुशनसीब थे, क्यों? क्योंकि सब ने शादी उन्हीं से शादी की है जिन्हें उन्होंने चाहा है या फिर शादी करने जा रहे हैं जिन्हें चाह रहे हैं। तो हमारी बिरादरी में शामिल होने का स्वागत है मेरे दोस्त।
आपका अपना
नीतीश राज
####आजमगढ़ पर लिखे एक शब्द से आहत हैं लखनऊ के लोग,उसकी चर्चा अगली बार।
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”
शादी-चर्चा को इतना तफसील से बयान किया। पढ़कर मजा आया।
ReplyDeleteज़ोरदार
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम
ब्यौरे में तो मजा आया, लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि इतने खर्च को किसी और ज्यादा अच्छे कार्य में खर्च किया जाता तो शायद और अच्छा रहता.
ReplyDeleteवाकई निराला अंदाज है ....मीठा था या तमाब्कू वाला ?
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