पूरे देश की नज़र संसद पर टिकी हुई थी। सब जानना चाहते थे कि क्या सरकार ये मैच जीत जाएगी? पूरे दिन संसद कभी भी ठंडी नहीं हुई, जब भी संसद की गतिविधियां देखने के लिए लोकसभा टीवी का रुख किया तो पाया की संसद में घमासान जारी था। सांसद अपने पुराने काम को सही रूप से अंजाम दे रहे थे जो कि वो काफी समय से करते आरहे थे। एक दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला। वैसे भी ये कोई नई बात तो नहीं है। संसद पूरे दिन उबलती रही, गर्म रही। क्या ये कभी सोचा गया कि सरकार इस करार पर अपना करार भी दांव पर लगाने को क्यों राजी होगई। ऐसा इस करार में क्या है कि लेफ्ट से चला आ रहा 4-सवा 4 साल का करार एक ही झटके में तोड़ दिया गया। ये जो देश पर चुनावी संकट आया इस के लिए जिम्मेदार क्या ये दो नेता हैं-मनमोहन और प्रकाश करात। सिर्फ इसलिए कि एक की जिद दूसरी पूरी नहीं कर रहा तो गठबंधन तोड़ दिया गया। क्या करार पर आगे बढ़ना और गठबंधन को तोड़ने के पीछे मनमोहन सिंह ही जिम्मेदार हैं। मेरा इशारा किस ओर है ये आप समझ ही रहे होंगे। वहीं दूसरी तरफ चुनाव सर पर खड़े हैं तो केंद्र नहीं चाहता कि आने वाले चुनाव में विपक्ष महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरे। और सरकार के पास अपने को बचाने के लिए कोईं भी हथियार रूपी घटना नहीं हो। इस समय कोई भी सरकार आ जाए तो महंगाई पर लगाम नहीं लगा सकती। देश के दो सबसे काबिल फाइनेंस को समझने वाले शक्स केंद्र के पाले में ही हैं। लेकिन फिर भी केंद्र महंगाई के ऊपर चुनाव कतई नहीं लड़ना चाहती थी। क्योंकि सोनिया और मनमोहन के साथ में कांग्रेसी जानते हैं कि प्याज पर भी सरकार गिर सकती है तो यहां तो हर चीज के दाम सरकार को नीचे उतारने के लिए तैयार बैठे हैं। यदि इस करार के मामले में सरकार गिर भी जाती तो सरकार को फायदा होता और अब बच गई है तो सरकार इस करार को पूरा करके इस मुद्दे को भुनाना चाहेगी आगामी चुनावों में।
लेकिन.....संसद के काले दिन में एक समय ऐसा भी आया जबकि पूरा देश अवाक रह गया। एक ऐसा वाक्या जिसने की लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोत दी। संसद के इतिहास में 22 जुलाई को काला दिन लिखा जा चुका था। बीजेपी के तीन सांसद सदन में नोटों की गड्डियों को लहराते रहे। उन्होंने ये आरोप लगाया कि सत्ता पक्ष के लोगों ने ये पैसा(1 करोड़) सरकार के पक्ष में वोट करने के लिए दिया हैं। साथ ही, कि ये तो पहली खेंप भर है बाकि के पैसे तो अभी मिलने बाकी हैं। जिसने भी इस प्रकरण को देखा-सुना वो शर्मसार था। ये नहीं पता कि आरोप सच हैं लेकिन सदन की गरिमा पर तो कालिख पुत ही चुकी थी।
इस घटना ने क्रिकेट में मैच फिक्सिंग और साथ ही हॉकी में गिल-प्रभाकरण के प्रकरण की याद ताजा कर दी। तब भी देश अवाक रह गया था। लेकिन इस एपिसोड से देश की गरिमा को ठेस पहुंची है। विदेशी पार्लियामेंट में जूतमपैजार होता है तो पता चलता है कि दूसरे देशों में उस वाक्ये पर किस तरह से थू-थू हो रही होगी।
फिर भी अंत में जब वोटिंग हुई तो खुलकर ये ही सामने आया कि सरकार के पास 253 का आंकड़ा है। सरकार को बधाई देने का सिलसिला शुरू होगया। विपक्ष की संख्या 232 थी। लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा उतर चुका था और पीएम के साथ सोनिया खुश नजर आ रहीं थीं। जैसे कि मैंने कल अपने आर्टिकल में लिखा था कि ‘खेल हो चुका है’ बात तो सही निकली कि ‘खेल हो चुका था’ और सरकार बचने की कगार पर थी। लेकिन तब भी 48 सांसदों की पर्चियां आनी बाकी थीं। और कुछ भी हो सकता था यदि 232 में 48 सांसद जुड़ जाते, तो 280 आंकड़ा सरकार को पीछे छोड़ देता और जो लोग खुशियां मना रहे थे वो गम के समंदर में खो जाते लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अंतिम में फैसला-275 पक्ष और 256 विपक्ष का स्कोर रहा। और सातवें पीएम बन गए मनमोहन सिंह जिन्होंने विश्वास मत पा लिया। वैसे तो कांग्रेस कभी भी विश्वास मत में फेल नहीं हुई है। लेकिन बीजेपी के 7 सांसदों ने क्रॉस वोटिंग की और कुल मिलाकर 15 सांसद ऐसे रहे जिन्होंने क्रॉस वोटिंग की। बीजेपी के लिए भी ये सोचने की बात है कि दो के बारे में तो वो भी जानती थी कि हां, ये बागी हैं लेकिन उन 5 पर नजर क्यों नहीं पड़ी जो कि बागी बन गए। मेरी मानें तो इसी को कहते हैं खेल। इसी को कहते हैं राजनीति।
आपका अपना
नीतीश राज
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