Wednesday, January 14, 2009

एनबीए के नियम बड़े या फिर न्यूज चैनलों की टीआरपी?

मुझे याद आता है हीथ्रो हवाई अड्डे पर हमला और ७ जुलाई जब कि लंदन के अंडरग्राउंड ट्रेनों को टारगेट बनाया गया था। लंदन में ७ जुलाई, २००५, पहले खबर ये आई कि ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया है पर बाद में ये पता चला कि ये हादसा नहीं, आतंकवादी हमला है। क्या याद है कि शुरुआत से ही किस तरह की तस्वीरें या रिपोर्ट हमें मिल रहीं थी। सभी जगहों को सील कर दिया गया था। मीडिया को अंदर जाने की इजाजत नहीं थी। दूर से तस्वीरें ली जा रहीं थी। उन जगहों को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया था। ये सारी फुटेज आज भी यू ट्यूब पर आराम से देखी जा सकती हैं कि हमें उस समय मीडिया ने क्या दिखाया था और साथ ही बाद में भी मीडिया ने क्या दिखाया था ये भी हमें याद करना चाहिए। जब तक पुलिस ने उन जगहों को पूरी तरह से साफ नहीं कर दिया तब तक वो तस्वीरें किसी चैनल पर नहीं दिखाई गईं। ऐसे समय पर मीडिया का क्या रोल हो ये बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।
जब हीथ्रों हादसे के समय पर भी वापस हम अपने देश की खबरों पर ३-४ घंटे बाद लौट आए थे। क्यों लौट आए थे, क्योंकि बाहर की कुछ चुनिंदा तस्वीरें हम को मिल रहीं थीं, उनमें एक्शन नहीं था, कोई क्यों देखना चाहेगा उन तस्वीरों को, चाहे उस में हमारे देश के कुछ चुनिंदा लोग क्यों ना फंसे हुए हों। हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता जब सरकार को कुछ फर्क नहीं पड़ता तो देश के कुछ चुनिंदा टीआरपी पसंद चैनलों को क्यों फर्क पड़ेगा। पर बात यहां आकर खत्म नहीं होती यहां से तो वो शुरू होती है कि फिर देश के लिए मीडिया का रोल क्या हो?
जब आपातकाल के समय रिपोर्टिंग करनी हो और जब संवेदनशनील मामले हों तो मीडिया की भूमिका क्या ये ही होनी चाहिए कि अनाप-शनाप, बिना किसी प्रमाण के कुछ भी छाप दे या फिर बात बिना पुष्टी किए लोगों तक पहुंचा दे। साथ ही कितना देश के हित में कहना है या कि कितना भड़काऊ कंटेंट लोगों तक पहुंचाना है इस बात को ध्याना में रखते हुए कि कहीं देश में स्थिति और ना बिगड़ जाए। कुछ तो सरकार को ऐसा करना ही होगा कि देश की बेहतरी के लिए लगाम लगाई जा सके।
अब ये तो और ही साफ हो गया है कि मुंबई हमलों के पीछे मास्टरमाइंड जकीउर्ररहमान लख्वी ने अपने भेजे आतंकियों को फोन पर टीवी देखकर ही दिशा निर्देश दिये थे। ऐसी स्थिति में मीडिया के लिए देश ऊपर होना चाहिए ना कि टीआरपी। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एनबीए याने की न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन में शामिल सभी चैनलों के संपादकों ने मिलकर कुछ अहम दिशा निर्देश बनाए। सरकार नियम बनाए और उसको मीडिया के ऊपर थोंपे इससे बेहतर ये हुआ कि संपादकों ने मिलकर कुछ अपने नियम बना लिए।
आतंकवादी हमले, सांप्रदायिक हिंसा या इसी प्रकार के अन्य संघर्ष और अपराध की खबरों के कवरेज के समय सदा इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि इसमें से कितना और क्या दिखाना जनहित में है। साथ ही मीडिया को अपनी इस जिम्मेदारी को गंभीरता से लेना चाहिये कि खबर बिल्कुल सही औऱ सिर्फ तथ्यों पर आधारित हो। ये भी ध्यान में रखना होगा कि ऐसी लाइव रिपोर्टिंग नहीं करें जिससे आतंकवादियों, उनके संगठन या विचारधारा का किसी प्रकार प्रचार होता हो या फिर उनके लिये किसी तरह की हमदर्दी पैदा होती हो। साथ में इस बात का भी ध्यान में रखें कि बंधकों को बचाने के लिए चल रही किसी कार्रवाई का अगर लाईव कवरेज हो रहा हो, तो बंधकों की पहचान, उनकी संख्या और उनकी स्थिति के बारे में कोई जानकारी ना दी जाए। साथ ही बचाव अभियान कितना बाकी है या बचाव में लगे सुरक्षा बलों की संख्या कितनी है और उनकी रणनीति क्या है, इसका भी लाईव प्रसारण नहीं होना चाहिये। ये हिदायत एक चैनल के आतंकवादियों से बातचीत के बाद दी गई। किसी हादसे के दौरान पीड़ितों , वहां तैनात सुरक्षा बलों , तकनीकी लोगों या फिर आतंकवादियों से लाइव बातचीत नहीं की जानी चाहिए। साथ ही वैसी पुरानी फुटेज बेवजह बार बार ना दिखायें जिससे दर्शकों की भावनायें भड़कें। पुरानी फुटेज अगर दिखाएं तो उस पर स्पष्ट लिखा हो 'फाइल'। संभव हो तो वक्त और तारीख लिखें। ये भी हिदायत कि मारे गये लोगों का पूरा सम्मान होना चाहिये औऱ शवों को नहीं दिखाना चाहिये। साथ ही विचलित करनेवाली तस्वीरें और ग्राफिक्स दिखाते समय इस बात का खास ख्याल रखें कि उनसे पीड़ित परिवार की तकलीफ ना बढे।
पर देखने की बात तो ये होगी कि क्या मीडिया इन सब नियमों को मानेगा और नहीं मानने पर उस चैनल पर किस तरह की कार्रवाई होगी। अब सरकार भी इन हमलों के बाद से मीडिया के लिए एक पैमाना तैयार कर रही है कि मीडिया आपात समय में किस तरह से कवरेज करेगा। पर सरकारी फरमान के खिलाफ आवाजें अभी से ही उठने लगी हैं। जहां तक मेरा मानना है तो सरकार को सिर्फ आपात स्थितयों को ध्यान में रखते हुए ही नियम बनाने चाहिए वर्ना हर समय के लिए यदि नियम बन गए तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर सरकारी फरमान काफी भारी पड़ेगा।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, January 13, 2009

हमारे न्यूज चैनल कितने परिपक्व?

जो भी न्यूज़ देखता है उनसे पूछा जाए कि न्यूज़ चैनल के लिए क्या जरूरी है खबर या टीआरपी, तो अधिकतर कहेंगे ‘खबर’, पर न्यूज चैनल टीआरपी पसंद करते हैं और अब न्यूज़ कहां। लेकिन कुछ दिनों से ये देखा जा रहा है कि न्यूज़ चैनलों पर न्यूज़ वापस लौटी है। वर्ना पहले न्यूज़ के सिवा हमारे देश के न्यूज़ चैनलों पर सब कुछ होता था। नाग-नागिन, भूत, ज्योतिष, भ्रम फैलाने वाली ख़बरें और इन पर होने वाले लंबी-लंबी चर्चा, एक ही तस्वीर बार-बार दिखाई जाती थी। पर नहीं बदली तो खेल की खबरें पहले भी सिर्फ क्रिकेट होता था और अब भी सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट ही होता है, किसी और खेल को जगह नहीं मिल पाती। क्यों? क्योंकि भारत में क्रिकेट के सिवा कुछ नहीं ‘बिकता’। कुछ अंग्रेजी चैनल खेल की खबरों में सभी खेलों को जगह देते दिख जाएंगे पर हिंदी न्यूज चैनलों पर तो सिर्फ ढाक के तीन पात याने क्रिकेट। दूसरे खेलों के हाल का अंदाजा हम इससे लगा सकते हैं कि पुलेला गोपीचंद को खेल मंत्री एम एस गिल ने नहीं पहचाना था, जबकि गुपीचंद की शागिर्द सायना नेहवाल के कंधे पर हाथ रख कर मंत्री जी खड़े थे। शायद मंत्री जी भी हिंदी न्यूज चैनल ही देखते होंगे।
वहीं गर दूसरे शब्दों में कहें, कि क्या हमारी न्यूज इंडस्ट्री इतनी परिपक्व हो गई है जितने की पश्चिमी देशों की न्यूज़ इंडस्ट्री? हमारे लिए न्यूज़ क्या है? यदि हम ये सवाल अपने आप से पूछें तो हमारे जहन में सबसे पहले ख्याल क्या आएगा? हमारी खबरों का दायरा सिर्फ और सिर्फ हमारे इर्द गिर्द ही घूमता है, आस पास की क्षेत्रीय हलचल पर हम ज्यादा ध्यान देते हैं। देश में क्या चल रहा है राजनीति के स्तर पर थोड़ा बहुत लोग पढ़ भी लेते हैं या जान लेने के इच्छुक होते हैं वर्ना दूसरे प्रदेश, या देश या फिर सात समंदर की खबरों को जानने के इच्छुक हम बहुत ही कम होते हैं।
मुंबई हमलों के दौरान बीबीसी पर पूरे दिन-रात सिर्फ और सिर्फ मुंबई की ख़बरें ही छाई रहीं। क्या ब्रिटेन में २६ से २९ तक कुछ भी ऐसा नहीं घट रहा था कि वो बीबीसी चैनल पर एयर टाइम ले पाता। हमारे देश में तो बहुत से रिएलिटी शो हैं जिन पर हर दिन दो-तीन घंटे आराम से निकल जाते हैं। बीबीसी पर पूरे समय मुंबई हमलों का क़हर ही चलता रहा। सेटेलाइट फोन के जरिए तस्वीरें दिखाई जा रहीं थी। साथ ही विदेशी मीडिया इस बात का भी ध्यान रख रहा था कि कहीं भी विचलित करने वाली तस्वीरें ना दिखाई जाएं, क्षत विक्षप्त शरीर नहीं दिखे या फिर सेना की मूवमेंट भी नहीं दिखाई जा रही थी। बीबीसी पर ब्लॉगर छाए रहे, जो अपने ब्लॉग पर कोई जानकारी दे रहे थे, उनसे वो फोन पर बात भी कर रहे थे।
अब जब कि बहुत हद तक साफ हो गया है कि मुंबई हमलों में पाकिस्तान में मौजूद लश्कर-ए-तैयबा का हाथ है। साथ ही कसाब को भी पाकिस्तानी मान लिया गया है। लेकिन मुंबई हमला भारतीय मीडिया के लिए एक नया अनुभव साबित हुआ। क्या रोल हो मीडिया का इस बारे में बात अगली बार। इस तरह की कमांडों कार्रवाई पहली बार हमारी मीडिया ने देखी। यदि गौर करें तो श्रीनगर या फिर बोर्डर एरिया को छोड़कर कहां पर हमें याद आता है कि कमांडो कार्रवाई की गई जिसे इतने बड़े पैमाने पर कवर किया गया। अमृतसर के स्वर्णमंदिर में कमांडो कार्रवाई हुई थी पर तब कितना सजग था मीडिया। कुछ चुनिंदा अखबार हुआ करते थे लोगों के पास टीवी भी नहीं था। तो किसी शहर में वो भी मैट्रो सिटी में इस तरह आतंकवादियों का क़हर बरपाना और साथ ही सबसे आगे निकलने की होड़ ने इलैक्ट्रॉनिक मीडिया से इतनी बड़ी गलती करवाई जिसका सीधे-सीधे फायद पाकिस्तान में बैठे इन आतंकवादियों के आकाओं को मिला और बिना बाहर देखे वो कमांडो की हर कार्रवाई के बार में आसानी से जान जाते और हमारी सेना को इसका काफी खामियाजा भुगतना पड़ता। लगता तो ये है कि सबसे पहले और आगे निकलने की होड़ ने हमारी इलैक्ट्रोनिक मीडिया और एजेंसियों को कभी परिपक्व ही नहीं होने दिया।
यहां पर ये गौर करने वाली बात है कि भारत-पाकिस्तान के बीच जंग जैसे हालात बन गए हैं। साथ ही दोनों देशों में साइबर वॉर छिड़ा हुआ है वहीं दूसरी तरफ मीडिया के बीच भी एक तरह की कोल्ड वॉर छिड़ गई है। ये समय होता है कि दोनों देश अपने आप में संयम बरतें पर ऐसा दिख नहीं रहा है। मीडिया की बात है तो कुछ कायदे, कानून, नियम, सरकार को बनाने ही होंगे जो कि ऐसी आपतकाल स्थितियों में मीडिया पर लागू हो। सरकार ही मीडिया को कुछ फुटेज और घंटे दर घंटे ब्रीफिंग करे और हालात से वाकिफ कराए। जब चाहे सरकार आपात स्थितियों में दुनिया के सामने जैसे चाहे हालात दिखाना चाहे वो दिखाए। याने कि जिस तरह की कवरेज से दूसरे समूह याने कि हमलावरों को फायदा नहीं पहुंचे। वैसे सरकार जल्द ही इस मामले में कुछ नियम कानून की व्यवस्था करने में जुट गई है। पर देखना तो ये होगा कि ये नियम आते कितने वक्त में हैं और न्यूज चैनल कितना इन नियमों पर अमल करते हैं। कुछ नियम एनबीए याने न्यूज ब्रॉडकास्ट एसो. ने भी बनाए हैं याने की वो संस्था जो कि मीडिया में रहकर मीडिया पर सख़्त नज़र रखती है। उनपर एक नज़र अगली बार।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, January 9, 2009

वो सफर, जो मुझे हमेशा याद रहेगा। मेरी पहली हवाई यात्रा-2।

आगे...
...इतने बड़े ग्राउंड में अपने प्लेन को ढूंढने की असमंजस में मैं इधर-उधर ताकने लगा। कई बस आजा रही थी इतनी देर में ये तो जान गया था कि ये जगह एयरपोर्ट है ना कि कोई बस अड्डा। लेकिन क्या करूं याद आ रही थी बस अड्डे की जहां पर कोई ना कोई जरूर आवाज़ लगाता रहता है, मैं ये ही सोच रहा था कि कोई आवाज़ लगाए कि मुंबई-मुंबई, कोलकाता-कोलकाता,बैंगलोर-बैंगलोर...और मैं पैदल ही वहां का रुख कर लूं। लेकिन ये जगह है इतनी बड़ी कि पैदल ढूंढना भी बहुत मुश्किल है। दिमाग में सिर्फ और सिर्फ ये ही सब घूम रहा था और लगातार दौड़ रहा था पर पैर थे कि जम से गए थे। सुबह के 5.45 बज रहे थे। ठंड भी बहुत थी लेकिन अब तो पसीना आने लगा था। साथ ही वहां पर अभी तक सिर्फ मैं ही अकेला खड़ा हुआ था तो और घबराहट हो रही थी कि कहीं देर तो नहीं होगई। लेकिन तभी वहां पर टाई पहने एक लड़का आया। उसके हाथ में वॉकी टॉकी भी था और उसने मुझे बताया कि अभी बस आएगी और आपको आपके प्लेन तक ले जाएगी।
अब आई सांस में सांस। लेकिन अब दूसरी चिंता सताने लगी और वो चिंता हमेशा ही गलत समय पर आती है वो है लघुशंका की। अब समझ में नहीं आ रहा था कि कहां फारिग होऊं। ग्राउंड स्टाफ कहां जाता है इसका तो पता नहीं था पर यदि जाऊं और बस फिर छूट जाए तो क्या होगा। इसी द्वंद में फंसा हुआ था कि बस आगई और कुछ सह यात्री भी आगए। बस थोड़ी देर रुक कर तकरीबन 15 यात्री को लेकर बस प्लेन की तरफ चल दी। लघुशंका का निवारण तो अब प्लेन में जाकर ही होगा। ये प्लेन होगा हमारा, बस नहीं रुकी, तो ये होगा, ये भी नहीं। करते-करते तकरीबन आधा किलोमीटर घूमने के बाद हम अपने प्लेन तक पहुंचे। या तो मेरे प्रेशर का मामला था या पता नहीं क्या, पर तुरंत मैं बस से उतर कर सीढ़ियों के पास तक जा पहुंचा और मेरे टिकट को आधा फाड़कर चैकर ने आधा मुझे पकड़ा दिया। ऊपर पहुंचा तो दो ऑटियों ने मेरे इस्तकबाल किया और अंदर की तरफ इशारा किया। पहले बिजनेस क्लास पड़ा और तुरंत ही तकरीबन 186 सीटों का इकॉनमी क्लास। अब कहां बैठूं? कुछ दिन पहले ही एक अंग्रेजी मूवी देखी थी कि एयरहोस्टेस खुद बताती हैं कि कहां बैठना है। पर यहां तो ऐसा नहीं था। मैंने तुरंत बोर्डिंग पास पर नजर डाली तो उसमें सीट नंबर लिखा हुआ था 12A। याने समझते देर नहीं लगी कि मुझे कहां बैठना है।
अरे, ये क्या मुझे तो खिड़की के बगल वाली सीट मिली है। कहीं ए नंबर की सीट कोई और तो नहीं होती, पर ऐसा नहीं था और पूरे इत्मीनान के साथ बैठ गया। बैठते ही लघुशंका की शंका का निवारण करने की इच्छा जाग्रित हुई और मैं चल दिया बाथरुम की ओर। मैं जिस से बड़ी देर से त्रस्त था उस से निजात पा लिया। थोड़ी ही देर में मेरी सीट के आगे लगी स्क्रीन पर जो कि मेरे आगे वाले की सीट की बैक थी उस पर संदेश आने लगे। अधिकतर फिल्मों में देखा है कि पहली बार सफर करने वाले को बेल्ट लगाने में बड़ी दिक्कत होती है पर मुझे नहीं हुई। सीढ़ियां हटा ली गईं थी। एयरहोस्टेस जो कि उदघोषिता भी थी उसने सूचना दी कि थोड़ी देर में फ्लाइट उड़ने के लिए तैयार है और उदघोषणा बंद होगई।
धीरे-धीरे विमान बड़ी आवाज़ करते हुए सरकने लगा और रनवे तक पहुंच गया। विमान थोड़ा रुका और मैंने धरती को जी भरकर पास से देखा क्योंकि मेरे बगल में तो कोई था नहीं लेकिन जो भी सहयात्री आजू-बाजू थे वो अपने दोनों हाथ जोड़कर बैठे हुए थे। उनमें से कुछ पढ़ भी रहे थे और कुछ सिर्फ सामने शून्य में देख रहे थे। मैं अपने बगल में बांयी और की विंग को देखने लगा। विमान रनवे पर चल दिया फिर तेज आवाज़ के जरिए दौड़ने लगा। बस एक छोटे से हल्के झटके के साथ मैं आसमान की तरफ बढ़ गया। धरती पीछे और नीचे छूटती जा रही थी और मैं लगातार नीचे देखता जा रहा था। पर ये क्या, प्लेन की लेफ्ट विंग नीचे की तरफ क्यों झुक रही है। मेरा तो कलेजा मुंह को ही आ रहा था और मैं नीचे देखने से डरने लगा। साथ ही मैं दूसरी तरफ झुकने लगा। ऐसा लगा कि कहीं नीचे ही ना गिर जाएं। वो एहसास बड़ा ही खतरनाक था। लग रहा था कि खड़ा हो जाऊं क्योंकि प्लेन एक तरफ काफी झुक गया था और ठीक मेरे नीचे दिल्ली या फिर उसके आसपास के इलाके रहे होंगे। यदि कोई बाईचांस मुझे देख रहा होता तो वो पहचान जाता कि ये मेरी पहली हवाई यात्रा है। मेरी हवाईयां उड़ी हुई थी।
थोड़ा ऊपर जाकर विमान ठीक से चलने लगा। एहसास हो रहा था कि जैसे चढ़ाई में कुछ दिक्कत हुई है और अब वो समतल सड़क पर ठीक से चलने लगा है। पर लगता था कि बीच-बीच में सड़क में बहुत गड़्ढ़े हैं और प्लेन में काफी आवाज़ हो रही थी। लेकिन ऊपस से धरती को देखना का सुख मुझे बहुत ही प्रफुल्लित कर रहा था। साथ ही लग रहा था कि गूगलअर्थ में जो चित्र उभरते हैं वो सचमुच में ही काफी सही और जीवंत लगते हैं।

'बादलों के ऊपर जहां और भी हैं। ऐसा लग रहा था।'

नीचे धरती, उसके ऊपर बादल, उसके ऊपर हमारा विमान और हमारे विमान के ऊपर सिर्फ और सिर्फ साफ आसमान। सूरज ऊगने की फिराक में धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए। बड़ी ही मनमोहक तस्वीर उभरकर सामने आ रही थी। थोड़ी देर बाद नाश्ता आया और पता चला कि हवाई ब्रेकफास्ट कैसा होता है। उस समय हम समुद्र तल से 10700 मीटर की ऊंचाई पर थे और बाहर हवा का तापमान था -46 डिग्री, जी हां, शून्य से 46 डिग्री नीचे। मैं अपने इयरपीस पर गाने सुनता हुआ जा रहा था। चलचित्र और गानों की व्यवस्था भी अंदर थी उसी स्क्रीन पर जहां पर पहले संदेश आ रहे थे। सिर्फ पौने दो घंटे में मैं मुंबई पहुंच गया। पूरी उड़ान के वक्त मैं एक अलग एहसास होता रहा जो कि बिल्कुल अलग था।
जाने में तो वक्त का पता ही नहीं चला। शाम को एक शो करना था शो करके अगले दिन दोपहर की फ्लाइट पकड़कर दिल्ली वापिस हो लिया। लेकिन इस बार की फ्लाइट में कोई दिक्कत नहीं हुई। ऊपर ऐसा लग रहा था कि जैसे सड़क सुधार दी गई हैं जो भी ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे वो पाट दिए गए हैं। लेकिन जैसे ही दिल्ली के करीब पहुंचे और उतरने के लिए उदघोषणा हुई सब ने तैयारी कर ली पर ये क्या, प्लेन तो हवा में ही उड़ा जा रहा है। क्या हुआ कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं। कैप्टन ने बताया कि अभी नीचे ट्रैफिक है तो इंतजार कीजिए। अब लगा प्लेन राउंड-राउंड घूमने और यहां मेरी हालत खराब होने लगी। उस समय ऊंचाई ज्यादा नहीं थी और लेफ्ट साइड पूरी तरफ झुक जाती तो लगता कि अब गिरे और तब। जब कोई हवाई यात्रा के सफर पर जाता था और उसके साथ ऐसी कोई घटना होती थी तो हम बहुत चहकते हुए कहते थे कि पैसे तो दो घंटे के लिए दिए थे और ढ़ाई घंटे की मौज ली है, मजा बहुत आया होगा। अब पता चलता है कि क्या हालत होती है जब हवा में अटके रहते हैं तो। 15 मिनट के बाद हमारी फ्लाइट नीचे उतर गई पर अंतरराष्ट्रीय रनवे पर। और वहां से घरेलू रनवे तक हम विमान में दौड़ते हुए आए जिसकी गति लगभग 30 कि.मी. थी।
पर जो कुछ भी था फ्लाइट में आनंद आ गया बस एक बात थी कि बाईं तरफ प्लेन जब झुकता है तो कलेजा मुंह को आता है।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, January 7, 2009

वो सफर, जो मुझे हमेशा याद रहेगा। मेरी पहली हवाई यात्रा।

मेरी पहली हवाई यात्रा कुछ ऐसी रही जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था और वो हो भी गई यूं ही अचानक। अभी हाल फिलहाल में ही मुंबई हमले के बाद जब कि ये खबर आ रही थी कि अब आतंकवादियों के निशाने पर है एयर रूट याने कि हवा के जरिए आक्रमण। ऑफिस में काम कर रहा था कि तभी हुजूरेवाला ने आदेश के स्वर में पूछा कि कल कौन सी शिफ्ट है। यही, जो आज कर रहा हूं। तो कल तुम्हारी ये शिफ्ट नहीं है। फिर कल सुबह तुमको मुंबई जाना है अपना रिक्रुजेशन भर दो सुबह की ही फ्लाइट है। बहुत दिनों के बाद ये कुछ ऐसा फरमान था जो कि अच्छा लगा। वाह! ऐसे फरमान तो रोज आएं तो सुभानअल्लाह।
जब तक कि एयरपोर्ट के दरवाजे पर नहीं पहुंच गया तब तक मुंह कलेजे को आ रहा था। लग रहा था पता नहीं ऑफिस में कब, कौन से दोस्त रूपी दुश्मन मज़ा बेकार कर दे। क्योंकि कुछ ने तो बहुत प्रयास किए थे, पर भला हो फरमान वाले का कि उस फरमान पर कोई डोरे ना डाल सका। लेकिन कई बार तो ये लगता रहा कि पूरे दिन ये खबर चली है कि अब वायु आक्रमण ही करेंगे आतंकवादी इस लिए लगता है कि ऑफिस के वो लोग जो कि बाज कि तरह ऐसे असाइनमेंट पर नजरें गड़ाए बैठे रहते हैं उन्होंने इस बार मेरे पर नजरें गड़ा दी, और मुझे बनाया है बलि का बकरा। लगातार जगते हुए मुझे करीब २२ घंटे हो चुके थे साथ ही इस सोच के बावजूद मेरी आंखों में नींद का नामो निशान नहीं था। लगातार जगते हुए मुझे करीब २२ घंटे हो चुके थे पर इस खुशी के आगे आंखों में नींद का नामो निशान नहीं था।
दिल्ली एयरपोर्ट पर जैसे ही गाड़ी ने छोड़ा तो लगा कि अब तो पहली बार हवाई यात्रा हो ही जाएगी। लेकिन परेशानी ये थी कि इस से पहले मैं कभी भी एयरपोर्ट नहीं आया था। दो-चार बार दोस्तों को छोड़ने आया था तो बस ये पता था कि यहां पर छोड़ते हैं और इस जगह के आगे आप नहीं जा सकते। मैंने एक हाथ में टिकट रख लिया और गेट पर पहुंचा और लाइन में लग गया। एक सिक्योरिटी गार्ड ने मेरे हाथ में ई-टिकट देखकर उसने कहा कि आप चाहें तो वहां(दूसरे गेट) से भी एंट्री कर सकते हैं। मैं उस राह हो लिया। मेरा आईडी कार्ड और टिकट चैक करने के बाद मैंने पहली बार किसी भी एयरपोर्ट पर पहली बार कदम रखा।
अंदर तो मैं आ गया था पर सबसे बड़ी बात ये लग रही थी कि अब आगे क्या। क्या करना हैं, मुझे कहां जाना होगा? कुछ भी तो पता नहीं था, पर सुना था कि कोई बोर्डिंग पास लेना होता है सिर्फ इस टिकट से काम नहीं चलता। पर ये मिलेगा कहां? तो देखा कि सामान की चैकिंग भी हो रही थी। तो क्या पहले सामान की चैकिंग करवाऊं या कि बोर्डिंग पास लूं। दिमाग का फैसला था कि टिकट ले लिया जाए। वहीं पास में एंट्री काउंटर था जहां पर मैंने पूछा कि क्या ये एयर इंडिया का काउंटर है तो उन्होंने कहा कि पहले आप को यहां से टिकट पर स्टैंप लगवानी होगी फिर आप को वहां जाना होगा और उसका काउंटर वो है किसी में भी लाइन में लग जाइए। वहां से निकलकर बोर्डिंग पास की राह पर चल दिया। इस के बाद मैंने सामान की को रखवाना ही उचित समझा। सामान जहां पर कि बैंड लग रहे थे जैसे पहुंचा तो उसने कहा कि नहीं आप इसे अपने साथ ले जा सकते हैं क्योंकि इसे हम हैंडबैग की तरह ही समझते हैं। ओ.के.। अब बोर्डिंग पास काउंटर की तरफ मैं बढ़ गया, तो किस लाइन में लगूं इकॉनमी या फिर बिजनेस क्लास में? इस ई-टिकट पर तो कुछ भी नहीं लिखा। या कुछ इनीसिएल बनें हों तो मुझे पता नहीं। लाइन में दो शख्स ही थे तुरंत मेरा नंबर आ गया। लेकिन हैंड बैग पर उस शख्स को मैंने एक कार्ड सा लगाते हुए देखा जो कि एयर इंडिया का ही था। मैंने भी उसे अपने बैग के साथ लटका लिया। तुरंत बोर्डिंग पास मिल गया। अब तो मेरा जाना पक्का हो ही गया। काउंटर पर ही बता दिया गया था कि वहां से एंट्री होगी। एक लाइन थी मैं भी लग गया। तुरंत चार-पांच आदमी लाइन से चैक होते-होते वहां पर बढ़े जा रहे थे जहां पर कि हैंड बैग चैक किये जा रहे थे। ये गार्ड सिर्फ आईडी प्रुफ और बोर्डिंग पास चैक कर रहे थे। मेरे आईकार्ड और बोर्डिंग पास चैक होगया और जैसे ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की तभी मुझे एक गार्ड ने रोक दिया।
मुझे लगा कि जरूर से ही कोई बात होगी। पता चला कि नहीं आगे वालों की चैकिंग नहीं हुई है तो मुझे और मेरे पीछे की जनता को रोक दिया गया। मैं देख रहा था कि एक ट्रे में सब मोबाइल और पर्स तक निकाल के रख रहे हैं साथ ही जैकेट भी। मैंने भी पूरी तैयारी कर ली। जैसे ही आगे जाने का आदेश हुआ तुरंत सब चीजें ऐसे रखी जैसे कि रोज आना जाना लगा रहता है, साथ में बैग भी रख दिया। मशीन के अंदर से चैक होता बैग आगे गया। साथ ही मेरे को भी एक ऑफिसर ने चैक किया बारिकी से फिर मैं आगे बढ़ गया। अब सब चैक पूरे हो चुके थे और जो मैंने बैग में कार्ड लटकाया था उस पर सिक्योरिटी चैक की मुहर भी लग चुकी थी। फिर वही समस्या कि जाना कहां है याने कि अब क्या?
देखा कुछ लोगों को एक महिला बड़े ही प्यार से बात करते हुए साथ ही खड़े पुरुष महोदय चैकिंग करते हुए बैग पर लटके उस कार्ड और बोर्डिंग पास की उन्हें आगे भेज रहे थे। लेकिन आगे कहां? अरे वहां पर खड़े हैं विमान तो! ओह हो! मतलब कि चलो जल्दी से लघुशंका भी जाना है हरदम गलत समय पर ही लगती है। मैं हीरो की तरह उस दरवाजे की तरफ बढ़ा। महिला को कार्ड दिखाया तो महिला ने देखा और मुझे दिशा निर्देश देते हुए बताया कि आपको मुंबई के लिए प्लीज उस गेट से जाना होगा। मैं इतने देर में समझ चुका था कि मामला कुछ गड़बड़ है और साथ ही ऊपर लगे प्लाजमा में इस फ्लाइट का नंबर भी नहीं था। ओह हो मुंबई के लिए वो काउंटर है ओ. के.। थैंक्स। कहते हुए मैं आगे बढ़ गया। उस काउंटर पर जैसे ही पहुंचा मेरा सभी सुरक्षा तंत्रों को चैक करने के बाद उस मोटे से आदमी ने मुझे अंदर जाने कि इजाजत दे दी। मैं ये ही सोच रहा था कि बैंगलोर जाने वालों की अगवानी के लिए महिला और मुंबई जाने वालों के लिए ये भैंसा, सांड। इसी सोच में वहां खड़ी बस निकल गई। लगा कि अब तो फ्लाइट जरूर से छूट जाएगी। अब इतनी विशाल जगह पर अपने प्लेन को कहां ढूंढूंगा।
जारी है...
हमें तो आदत रही है ट्रेन और बस की। जहां पर आप खुद के जिम्मेदार स्वंय हैं। यदि गाड़ी छूटी तो टिकट बेकार। पर प्लेन के सफर में ऐसा नहीं होता। ये बात हमको बाद में पता चली कि बोर्डिंग पास लेने के बाद तो ये एयरलाइंस की जिम्मेदारी बन जाती है कि वो हमें पुकार लगा-लगा के बुलाए और हमें बैठाए। पर हम जैसे अनाड़ी की हालत उस पैसेंजर बस के छूटने के बाद क्या हुई और हवाई सफर आखिर कटा कैसा। अपने तमाम अनुभव अगली पोस्ट में।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, January 6, 2009

क्यों हमारे देश भीख मांगने आ रहे हो मुशर्रफ?

अभी हाल ही में ये खबर सामने आई थी कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ भारत आ सकते हैं। वैसे मुशर्रफ इसलिए भारत नहीं आ रहे कि मुंबई हमलों के मामले में भारत की कुछ मदद कर सकें। दरअसल मुशर्रफ भविष्य में अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से भारत, अमेरिका, हांगकांग, चीन, यूरोपीय देशों की यात्रा कर विशेष व्याख्यान देंगे। इन सभी देशों में जाकर वो अपने संवादों के जरिए अपना नजरिया लोगों तक पहुंचाएंगे। और वैसे भी मियां मुशर्रफ के पास अभी दो साल का वक्त भी है क्योंकि दो साल याने नवंबर २००९ से पहले वो राजनीति में नहीं उतर सकते। सत्ता छोड़ने के बाद से ही ये पाबंदी लगी हुई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये आता है कि जहां एक तरफ तो मुशर्रफ भारत के सबूत देने के बाद भी अपना बचाव करने में लगे हुए हैं साथ ही युद्ध तक की धमकी देने से गुरेज नहीं कर रहे तो भारत आकर व्याख्यान के जरिए भारत की जनता से अपने जीवनयापन और अपने स्वार्थ के लिए भीख मांगने की जरूरत क्या है। यदि लड़ाई रखनी है तो खुल के रखो। एक तरफ तो आप पीठ में खंजर भोंक रहे हैं, भारत को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में जलील करने से भी नहीं चूक रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने स्वार्थ के लिए आप भारत में आकर भारत के पैसों से, भारत का निवाला खाकर भारत के खिलाफ ज़हर उगलने की तैयारी कर रहे हैं।
यदि देखता हूं तो अपनी सरकार की ही राजनीतिक अस्थिरता ज्यादा नज़र आती है। क्यों हमारे फैसले अडिग नहीं रहते? यदि किसी देश ने आपका जीना दुर्भर कर रखा है तो बेहतरी इसी में है कि कुछ समय के लिए उस देश का बहिष्कार कर दो। दूसरे देश को इस बात से कितना असर पड़ेगा इस बात की चिंता करने की हमें जरूरत नहीं है। हमें अपने कड़े कदम उठाने की जरूरत है और साथ ही दुनिया को ये भी बताने की जरूरत है कि हम ये कड़े कदम उठा रहे हैं। यदि पाकिस्तान से दोस्ती के बढ़े हाथ लाहौर बस सेवा, ट्रेन सेवा और हवाई सेवा को कुछ समय के लिए रोक दिया जाए तो पता चलता है कि हां आपने अपना रुख साफ किया है। एक तरफ तो क्रिकेट टीम, हॉकी टीम पर रोक लगा दी गई है वहीं दूसरी तरफ आतंकवादी एक देश से दूसरे देश आ-जा रहे हैं इन सेवाओं के जरिए। और यदि उस सेवाओं को बंद करने पर किसी को ऐतराज है तो बेहतर है कि वो पाकिस्तान में जाकर बस जाए मेरे देश भारत में इनके लिए जगह नहीं हैं। आतंकवाद के नाम पर अमेरिका किसी देश पर हमला कर दे तो चलेगा तो क्या हम आतंकवाद के नाम पर अपने देश की सुरक्षा के लिए कुछ कड़े कदम तो ले ही सकते हैं।
हमारी सरकार को चाहिए कि कड़े कदम उठाते हुए मियां मुशर्रफ को देश में आने से रोकें वर्ना पता नहीं वो कौन शख्स हो पर जिस बात का पता है वो है कि जूता कानपुर का ही रहेगा और यकीन मानिए चेहरा मुशर्रफ का ही होगा।

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”