Wednesday, February 25, 2009

सियासत-राजनीति का मिश्रण है नवाबों का शहर 'लखनऊ'

नवाबों के शहर में नवाबी तो लगता है रह नहीं गई है, जो रह गया लगता है वो है राजनीति। एक शहर था पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ जहां पर एक भी पोस्टर नहीं था और यहां, उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में कौन सा कोना बाकि रह गया जहां पर पोस्टर ना चस्पा हों, वो भी सत्तारूढ़ पार्टी का। एक महानुभाव हैं जो कि कांग्रेस से बीएसपी में चले गए हैं यानी कि दलबदलू हैं। उन्होंने पूरे शहर को अपने पोस्टरों से भऱ दिया है, लंबा-चौड़ा नीला पोस्टर। कई जगह तो ये पोस्टर महज़ ३०-४० फुट की दूरी पर भी लगे हुए दिखे। मेरा दिल तो ये कर रहा था कि इस एतिहासिक शहर की खूबसूरती पर प्रहार करने वाले इस नेता को कोई वोट करने वाला ही ना मिले।
बहरहाल, सहयोगी की शादी में लखनऊ जाना हुआ। हम चार एक साथ दिल्ली से कानपुर, ट्रेन से और फिर कानपुर से वाया रोड लखनऊ पहुंचे। वैसे तो तीन-चार साल पहले कानपुर जाना हुआ था। तब तो नहीं पर इस बार शहर कुछ छोटा और कुछ भिचा-भिचा याने की कंजस्टेड सा लगा। साथ ही पता नहीं यहां के लोगों को क्या बीमारी है कि हॉर्न बजाते रहते हैं वो भी बेमतलब, जानते हैं कि आगे वाला साइड अभी नहीं दे सकता फिर भी। वहां पर देखने से लगा कि दिल्ली, ट्रेफिक के मामले में बेहतर है। वैसे तो लखनऊ में भी ट्रेफिक दिखा पर ज्यादा घिचपिच नहीं दिखी, फिर भी कानपुर से हाल बेकार, शायद ही १० फीसदी लोगों को ये पता होगा कि गाड़ी कैसे चलाते हैं।
पूरे १० घंटे लगातार सफर के बाद लखनऊ के चारबाग के अंबर होटल पर जाकर हमारा कारवां रुका। बाहर से देखने पर लग रहा था कि होटल बड़ा ही शानदार होगा पर अंदर मामला कुछ और ही था। हमें दो कमरे मिले थे जिसमें से एक तो ठीक था और दूसरा पहले कमरे की पूरी कसर निकाल रहा था। इस होटल की सबसे अच्छी चीज ये लगी कि चाय दिल को छू लेने वाली मिल रही थी और एक बार नहीं हर बार वैसा ही स्वाद। यारों ने कहा कि होटल का कूक अच्छा है। थके हारे को क्या चाहिए एक गरमा गर्म शानदार चाय, थकान उतर गई।
तीन-चार घंटे आराम और कमरे में मस्ती करने के बाद हम सज-धज के निकले बारात के लिए। बारात घर से जब बारात चली तो लगा कि शायद ये ५०-६० मीटर जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा और हुआ भी कुछ यूं ही। नवाबों के शहर में दूल्हा भी नवाबों की तरह ही सजा था हाथ में तलवार, सर पे हाथ से बंधी रसूख वाली पगड़ी। नाच-गाने के बाद दूल्हे को दरवाजे के पास ही रोक कर पूजा कराई गई। और फिर मंच, लोगों के साथ फोटो खिंचवाना, दुल्हन का आना, साथ में सहेली, फिर वर माला, खाना-पीना, शादी खत्म, थैंक्यू बाय बाय। अगले दिन दोपहर तक होटल को बाय बाय। दोस्त के घर जाकर पेट पूजा। अब घूमने के लिए तैयार टोली। पर ये क्या जहां पर जा रहे हैं वहीं पर रास्ता बंद है। दोस्त से पूछा कि माजरा क्या है? आजमगढ़ से दो ट्रेन में भरकर लोग आए हैं, वो ही बाटला एनकाउंटर और आजमगढ़ से एक शख्स की गिरफ्तारी का विरोध। तो अब क्या, चलो दूसरे रास्ते से ट्राई करते हैं। पर सारा जमघट तो उसी जगह पर लगा हुआ है जहां पर हमें जाना है- बड़ा इमाम बाड़ा और भूल भुलैया। पर अफसोस दूसरा रास्ता भी बंद, भीड़ ही भीड़, जाम ही जाम, गाड़ी ही गाड़ी। सबने एक सुर में कहा यहां से निकालों कहीं और चलो। हजरतगंज का रुख किया गया। लखनऊ का सीपी, चंडीगढ़ का सेक्टर १७। दिल्ली में सबसे ज्यादा जहां पर घूमते हैं, अफसोस कि नवाबों के शहर में भी वहीं पर जाकर बैठना, घूमना पड़ा, यानी मॉल में। एक रेस्त्रां में जाकर ४०० रु. की कॉफी पी गए। वहां पर २-३ घंटे बैठे ऑफिस की बातों पर सर मारते रहे एक दूसरे से। जिस जगह से भाग कर गए थे उसी जगह की बातों पर बातें करते रहे।
मायावती जहां पर १० हजार करोड़ रु. खर्च कर रहीं हैं उस जगह पर भी गए लेकिन वहां पर काम चल रहा था, अंदर तो जा नहीं सके बाहर से ही देखना पड़ा कि ये पत्थर का पहाड़ आखिर है क्या? इतना पैसा यूपी के विकास, भविष्य पर लगता तो शायद लोगों का भला हो जाता। आगे कभी मुलायम की सरकार आएगी तो जैसे मुलायम के बनवाए राम मनोहर लोहिया पार्क में आज कोई पानी देने वाला नहीं है वैसे ही इसकी दीवारों पर पोस्टर चिपका दिए जाएंगे। राजनीतिक विद्वेष के कारण और खासकर कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई के चलते नुकसान जनता झेलती हैं।
आखिर, लखनऊ से चलने का वक्त हो गया। चलते-चलते भोजन और किसी परिचित से मिलने के लिए हम प्रेस क्लब पहुंचे। कहां चंडीगढ़ का प्रेस क्लब और कहां यूपी का? पर खाने के मामले में वाह भई वाह! लाजवाब। कुछ देख सके या नहीं पर आदमी का दिल जीतना है तो उसका रास्ता पेट से होकर जाता है और वाकई खाने ने हमारा दिल जीत लिया और इसी कारण लखनऊ ने भी। चौक में ठंडाई हो या फिर १० रंग के गोलगप्पे या फिर मियां जी की बिरयानी जिसकी महक चौराहे के पार बनी पुलिस चौकी तक पहुंच जाती है और टुंडे के कवाब। सच खाने में तो लखनऊ का जवाब नहीं।
ट्रेन में यही सोचता रहा कि यदि ये जाम-भीड़ नहीं होता तो शायद ये दिन हमारी जिंदगी के लिए काफी खुशनुमा होता।

#### शादी की शान और आजमगढ़ की खट्टास अगली बार।

आपका अपना
नीतीश राज

3 comments:

  1. बहुत रोचक विवरण....अच्‍छा लगा पढकर।

    ReplyDelete
  2. kuchh rahne walon kee soch or kuchh sakhti ka asar hota hai. narayan narayan

    ReplyDelete
  3. और मज़ा आता लखनऊ की सैर का अगर आप जाम मे नही फ़सते।हमारी भी सैर हो जाती ईमामबाड़े की।ये बात सही है हर शहर अब पोस्टर से पट रहे हैं।शहर लगता है अब अपने ऐतिहासिक भवनो के कारण नही इन नमूनो के कारण पहचाने जाएंगे।

    ReplyDelete

पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”