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Saturday, January 30, 2010

स्टोव की गर्मी


फटररररर...फटरररररर....खटररररर...खटरररररर...। ग्लास से बार-बार टकराती चम्मच की खटररररर....खटररररर....। खटररर...खटरररर...होने के बाद तेल में छप्प से एक चिरमिराहट के साथ वो ग्लास को स्टोव पर रखे फ्राइकपेन में उड़ेल देता।
अच्छे से सेकना...पर जलाना नहीं और हां, यार...दो अंडों का ऑम्लेट और कर देना विद आउट ब्रैड।

फुल बाजू की कमीज पर आधे बाजू का पैबंद लगा स्वेटर। कोहरे से भरी रात में जहां 10 हाथ दूर दिखाई नहीं दे रहा वहां रात के 1 बजे ये शख्स आधे बाजू के कुछ ऊन के टुकड़ों से ठंड से लोहा ले रहा है। ना सर पर टोपी, ना पैरों में जूते, ना ही कोई ऊपर से कपड़ा। हां... पैरों में जगह जगह से फटी जुराब जरूर पहन रखी थी। गौर से देखा तो जान पड़ा कि एक नहीं दो जोड़ी फटी पुरानी सी जुराब एक के ऊपर एक थी।

वहीं, हमने सर पर टोपी, गले में मफलर, हाथ में दस्ताने, पैर में जूते और अंदर मोटी जुराब अड़ाई हुई थी। हमने अपने शरीर को मोटी-मोटी कपड़ों की परतों से ढका हुआ था। फिर भी जान नहीं पड़ रहा था कि ठंड कहां से लग रही है।

लोग आते उसे ऑर्डर देते और वहीं कहीं पर खड़े होकर अपने-अपने पेय पीने लग जाते।  एक बार वो ऑर्डर देने वाले को देखता और फिर अपने काम में जुट जाता। पता नहीं कहां से उसे पता होता कि फलां ऑर्डर वाला कहां खड़ा हुआ है। नहीं जानता मैं कि वो किस तरह से याद रखता था कि पहले ये है और दूसरा ये...। पहले वाले की चाय में चीनी कम रखनी है और इलायची नहीं डालनी, दूसरी वाले के ऑमलेट में हरी मिर्च नहीं डालनी है। ख्वाहिशें होती रहती और मजबूरी नीचे झुके उन ख्वाहिशों को पूरा करती रहती।

जब हम चलने लगे तो मैंने उससे पूछा, क्यों ठंड नहीं लग रही क्या? उसने नजर उठाके देखा और फिर लग गया खटरररर....फटररररर...में। तब तक काफी लोग जा चुके थे, कुछ ऑर्डर वो पूरा करने में लगा हुआ था। पैसे वापिस करने के बाद उसने कहा, भाईसाहब, पैर अकड़ जाते हैं जबकि मैं दो जुराबें पहनता हूं। मेरे पास ना तो जूते हैं और ना ही गर्मी देने को अंगीठी। पूरे टाइम तो स्टोब चलता ही रहता है और मैं चलता रहता हूं। स्टोव के पास आने की चाहत ही मुझे जल्दी-जल्दी काम करवाती है। मैं जब ठेला छोड़ता हूं तो ठंड महसूस करता हूं पर सामान देकर लौटने पर गरमाहट दूर से ही लगने लगती है।

साहब, स्टोब की गर्मी जिस्म में गर्मी तो भर देती है पर पैर ठंड में मारे खड़े रहने में दिक्कत पैदा करते हैं।
मैंने कुछ पैसे उसकी तरफ बढ़ाए और अपने लिए गर्म जुराबें ले लेना।
नहीं साहब, ये पैसे तो मैं ले ही नहीं सकता, हां, गर कोई फटा पुराना मोजा आपके पास पड़ा हो तो आते-जाते वक्त.....।
वो बोल पूरे नहीं कर पाया, नीचे देखने लगा।
...फटे भी होंगे तो चलेंगे दोनों जुराबों के ऊपर ही पहन लूंगा।

पैसे उसने नहीं लिए....क्या आदमी है....पता नहीं कहां से आती है इतनी सहनशक्ति। क्या सिर्फ स्टोव की गर्मी में रात बिता देता होगा वो....यहां तो चारदिवारी के अंदर भी रूम हीटर चला लेते हैं लोग।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, March 13, 2009

अपनों के दर्द में फंसा कोई अपना

बोलने के लिए बोलना और उस बोलने से ना जाने कितनों के दिल को दुखाना, पर फिर भी बोलना। वैसे ही जैसे कि कुछ भी लिखने के लिए बस लिख देना या फिर किसी बात की गहराइयों तक बिना पहुंचे, बात को सामने रख देना उस बात को एक नाम दे देना। क्या और कितना उचित है? कई बार हम, ना जाने कुछ ऐसा कर देते हैं जो कि सामने से हमसे उतना सरोकार ना रखती हों, पर कहीं दूर बैठे लोगों के लिए वो ‘कुछ ऐसा’ ज़िंदगी और मौत की लड़ाई बन जाता है। अपनी आन और शान को जिंदा रखने के लिए वो ना मालूम कितनों की जान ले भी सकते हैं और वक्त पड़ने पर दे भी सकते हैं। वो बातें जो बिना दूर की सोच-समझ के साथ लिखी गई हों वो बातें अप्रत्यक्ष रूप से कभी हम से और कहीं दूर बैठे लोगों से सरोकार जरूर रखती हैं।
हाल ही में मेरे सामने कुछ ऐसी ही बातें सामने आगईं। ऐसा नहीं था कि कभी मैंने या मेरे सहयोगियों ने किसी धर्म, मजहब, या फिर किसी समूह पर निशाना साधकर कुछ लिख दिया हो। पर ऐसा कुछ लिखा गया जिसे हमारी नज़र सही के पैमान से आंक रही थी और वहीं दूसरे की नज़र उसमें गलती बयां कर रही थी। जब तक एहसास को भी एहसास होता तब तक गलती घट चुकी थी और कहीं ना कहीं वो एहसास ही हमें, हमारे कदमों को मंजिल तक की राह दिखा रहे थे।
बाटला एनकाउंटर, हमारी नज़र में सही था पर जो भी बात आपको सही लगे ऐसा नहीं कि दूसरे को भी सही लगे। तो उसी तरह, किसी जगह पर उसे गलत बताया जा रहा था। उस एनकाउंटर में शहीद के नाम को इतना उछाला गया कि उसके बाद लगने लगा कि अब किसी को शहीद होने से पहले सोचना होगा। यहां पर सिर्फ कहने के लिए लोग कह रहे हैं कि वो फर्जी एनकाउंटर था, सिर्फ कहने के लिए, बार-बार कह रहे हैं ‘बेचारों को मार दिया’। कहने के लिए कह दिया कि वो बेचारे थे। पर किसी ने ये नहीं सोचा कि उस मुठभेड़ में कोई शहीद भी हुआ। एक पल में उस की शहादत पर सवालिया निशान लग गया।
‘बर्खुरदार, आप तो वो ही ख़बर दिखाते हो, जो आप लोग दिखाना चाहते हो’।
‘नहीं, हमने वो खबर दिखाई जो सही थी’। ‘जिस दिन एनकाउंटर हुआ उस से एक रोज़ पहले तीन लड़कों को उठाया गया था, कहां गए वो लड़के ‘बेचारों को मार दिया’, बेगुनाहों को मार डाला गया’।
‘आपको सही जानकारी ही नहीं है, आजकल ऐसा नहीं है कि किसी को भी उठाओ और दिखा दो कि मार दिया और कह दो कि होगया एनकाउंटर। पुलिस का जीना दुर्भर कर देता है मीडिया और आयोग। उन तीन लोगों के घरवालों ने हल्ला क्यों नहीं किया कि हमारे बच्चों को उठाया गया? बेकार में लोगों ने बात फैला दी और लोगों ने बिना किसी सोच के बात मान ली’।

अनर्गल आरोपों से लड़के को गुस्सा आ गया था।
‘……नहीं, अब आप पहले मेरी पूरी बात सुनिए, मुझे पूरा कर लेने दीजिए। उन लड़कों के पास से इतने सबूत मिले हैं कि वो उसी वक्त नहीं रखे जा सकते थे जब कि एनकाउंटर हुआ। वो लड़के आज से इस धंधे में नहीं थे वो बहुत पहले से ही इस सब को अंजाम देने में लगे थे। आप के अनुसार तो ये भी होगा कि उस पुलिसवाले को भी पुलिसवालों ने ही मारा। अब आप खुद बताइए कि क्या जरूरत पड़ी थी पुलिसवालों को अपने साथी को मारने की? जवाब नहीं होंगे आप के पास, क्योंकि ये सब मनगढ़ंत है और जो सही था वो सामने आ चुका है, वो गुनहगार थे’।
इस मसले पर और सवाल-जवाब नहीं हो सकते थे, अपने को और फंसाना नहीं चाहते थे वो बुर्जुग, सो बात तो पलटनी ही थी। आखिरकार सच्चाई तो नौजवान पत्रकार के साथ ही थी। पर अब फंसने की बारी नौजवान पत्रकार की थी जो कि खाना खाते हुए सवाल-जवाब में फंसा हुआ था।
‘हूं, चलो छोड़ो इस बात को, लेकिन तुम लोगों ने तो नर्सरी तक कह दिया था! आतंक की नर्सरी, आजमगढ़’।
मुझे एक ब्रेक लगा और मेरा खाना खाना रुक गया। मैंने चेहरा उठाया तो उसी शांत चेहरे के साथ वो बुजुर्ग, उस नौजवान को देख रहे थे, जैसे तौल रहे हों कि अब क्या जवाब दोगे। लेकिन वो नौजवान उसी शांत चेहरे के साथ खाना खाता रहा। अंदर ही अंदर वो नौजवान पत्रकार समझ चुका था कि जो तीर अब छोड़ा गया है वो बेहद पेचीदा है। मुझे याद आ रहा था कि ऑफिस में इस शब्द के ऊपर बहुत बहस हुई थी। पहले लिखने के लिए मना भी किया गया था पर कुछ लोगों ने इस शब्द पर आपत्ती नहीं जाहिर की थी और बाद में ‘वो’ लिखा गया। लिखा दिल्ली में गया था और वहां से बहुत दूर उस शब्द ने अपना क़हर बरपा दिया था। बाद में उस शब्द को हटा दिया गया था।
‘जी हां, लिखा था क्योंकि सारे तार वहीं से जा कर जुड़ रहे थे। ये सिर्फ हम नहीं सब कर रहे थे, पुलिस तक कह रही थी’।
‘पर नाम तो तुम लोगों ने ही रखा था ना, आतंक की नर्सरी, आजमगढ़, तो तुम लोग कुछ भी नाम रख दोगे, ये नहीं सोचोगे कि इसका असर क्या होगा’।

नौजवान ने चुप्पी साध ली।
‘....और तुम क्या पुलिस की बात कर रहे हो उसने तो उठा लिया ना आजमगढ़ से उस लड़के को। क्या वो गुनहगार था? आज भी लखनऊ में उस शब्द की आग की लपटें दिख जाती हैं। आज ही दो ट्रेन भर के आजमगढ़ से लोग आए हैं। कुछ जवाब बनता है सही था उस को गिरफ्तार करना’।
‘नहीं, वो तो गलत था लेकिन हर बार सही हो ऐसा नहीं है, गलती हो ही जाती है’।
‘फिर भी तुम दोगे तो पुलिस और अपने भाइयों का ही साथ, बिरादरी का साथ, पत्रकार बिरादरी का साथ’।

नौजवान बीच खाने से उठ गया। जानता था कि वो इसका जवाब दे नहीं सकता था और उस समय दर्द को छोड़कर कुछ दिखा भी नहीं पाया था, जिसे कुछ ने समझा था और कुछ उसी तरह अनजान बने रहे जिस तरह आज वो बनने की कोशिश कर रहा था। मैंने भी खाना खत्म किया और उठ गया। ना शब्द, ना सवाल, ना जवाब, कुछ भी तो नहीं था हमारे पास। हाथ धोकर सीधे गाड़ी में जाकर बैठ गए और गाड़ी दिल्ली की तरफ दौड़ा दी।
ये संवाद थे एक बाप और बेटे के बीच। ये पहली बार नहीं हैं जब कि खाना आधा छूटा हो ये पहले भी कई बार हो चुका हैं। दिक्कत तो उस पत्रकार के लिए होती है जो कि इस घटना से अपनी ही कौम, अपने ही लोगों का गुनहगार बनकर खड़ा हो जाता है। और उसी काम के लिए तमगा भी पाता है। कभी-कभी एक शब्द से ही दूर-दूर तक उस दर्द का एहसास लंबे समय तक होता है।
इस चुप्पी के बीच मुझे याद आ रहा था ‘एक आतंकवादी का घर’, जिसे मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ‘शम्स ताहिर खान’ ने लिखा था। जिसे मेरे एक ब्लॉगर भाई ने अपने ब्लॉग पर छापा भी था। यदि इजाज़्त मिली तो मैं उसे पेश करूंगा।

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”