बोलने के लिए बोलना और उस बोलने से ना जाने कितनों के दिल को दुखाना, पर फिर भी बोलना। वैसे ही जैसे कि कुछ भी लिखने के लिए बस लिख देना या फिर किसी बात की गहराइयों तक बिना पहुंचे, बात को सामने रख देना उस बात को एक नाम दे देना। क्या और कितना उचित है? कई बार हम, ना जाने कुछ ऐसा कर देते हैं जो कि सामने से हमसे उतना सरोकार ना रखती हों, पर कहीं दूर बैठे लोगों के लिए वो ‘कुछ ऐसा’ ज़िंदगी और मौत की लड़ाई बन जाता है। अपनी आन और शान को जिंदा रखने के लिए वो ना मालूम कितनों की जान ले भी सकते हैं और वक्त पड़ने पर दे भी सकते हैं। वो बातें जो बिना दूर की सोच-समझ के साथ लिखी गई हों वो बातें अप्रत्यक्ष रूप से कभी हम से और कहीं दूर बैठे लोगों से सरोकार जरूर रखती हैं।
हाल ही में मेरे सामने कुछ ऐसी ही बातें सामने आगईं। ऐसा नहीं था कि कभी मैंने या मेरे सहयोगियों ने किसी धर्म, मजहब, या फिर किसी समूह पर निशाना साधकर कुछ लिख दिया हो। पर ऐसा कुछ लिखा गया जिसे हमारी नज़र सही के पैमान से आंक रही थी और वहीं दूसरे की नज़र उसमें गलती बयां कर रही थी। जब तक एहसास को भी एहसास होता तब तक गलती घट चुकी थी और कहीं ना कहीं वो एहसास ही हमें, हमारे कदमों को मंजिल तक की राह दिखा रहे थे।
बाटला एनकाउंटर, हमारी नज़र में सही था पर जो भी बात आपको सही लगे ऐसा नहीं कि दूसरे को भी सही लगे। तो उसी तरह, किसी जगह पर उसे गलत बताया जा रहा था। उस एनकाउंटर में शहीद के नाम को इतना उछाला गया कि उसके बाद लगने लगा कि अब किसी को शहीद होने से पहले सोचना होगा। यहां पर सिर्फ कहने के लिए लोग कह रहे हैं कि वो फर्जी एनकाउंटर था, सिर्फ कहने के लिए, बार-बार कह रहे हैं ‘बेचारों को मार दिया’। कहने के लिए कह दिया कि वो बेचारे थे। पर किसी ने ये नहीं सोचा कि उस मुठभेड़ में कोई शहीद भी हुआ। एक पल में उस की शहादत पर सवालिया निशान लग गया।
‘बर्खुरदार, आप तो वो ही ख़बर दिखाते हो, जो आप लोग दिखाना चाहते हो’।
‘नहीं, हमने वो खबर दिखाई जो सही थी’। ‘जिस दिन एनकाउंटर हुआ उस से एक रोज़ पहले तीन लड़कों को उठाया गया था, कहां गए वो लड़के ‘बेचारों को मार दिया’, बेगुनाहों को मार डाला गया’।
‘आपको सही जानकारी ही नहीं है, आजकल ऐसा नहीं है कि किसी को भी उठाओ और दिखा दो कि मार दिया और कह दो कि होगया एनकाउंटर। पुलिस का जीना दुर्भर कर देता है मीडिया और आयोग। उन तीन लोगों के घरवालों ने हल्ला क्यों नहीं किया कि हमारे बच्चों को उठाया गया? बेकार में लोगों ने बात फैला दी और लोगों ने बिना किसी सोच के बात मान ली’।
अनर्गल आरोपों से लड़के को गुस्सा आ गया था।
‘……नहीं, अब आप पहले मेरी पूरी बात सुनिए, मुझे पूरा कर लेने दीजिए। उन लड़कों के पास से इतने सबूत मिले हैं कि वो उसी वक्त नहीं रखे जा सकते थे जब कि एनकाउंटर हुआ। वो लड़के आज से इस धंधे में नहीं थे वो बहुत पहले से ही इस सब को अंजाम देने में लगे थे। आप के अनुसार तो ये भी होगा कि उस पुलिसवाले को भी पुलिसवालों ने ही मारा। अब आप खुद बताइए कि क्या जरूरत पड़ी थी पुलिसवालों को अपने साथी को मारने की? जवाब नहीं होंगे आप के पास, क्योंकि ये सब मनगढ़ंत है और जो सही था वो सामने आ चुका है, वो गुनहगार थे’।
इस मसले पर और सवाल-जवाब नहीं हो सकते थे, अपने को और फंसाना नहीं चाहते थे वो बुर्जुग, सो बात तो पलटनी ही थी। आखिरकार सच्चाई तो नौजवान पत्रकार के साथ ही थी। पर अब फंसने की बारी नौजवान पत्रकार की थी जो कि खाना खाते हुए सवाल-जवाब में फंसा हुआ था।
‘हूं, चलो छोड़ो इस बात को, लेकिन तुम लोगों ने तो नर्सरी तक कह दिया था! आतंक की नर्सरी, आजमगढ़’।
मुझे एक ब्रेक लगा और मेरा खाना खाना रुक गया। मैंने चेहरा उठाया तो उसी शांत चेहरे के साथ वो बुजुर्ग, उस नौजवान को देख रहे थे, जैसे तौल रहे हों कि अब क्या जवाब दोगे। लेकिन वो नौजवान उसी शांत चेहरे के साथ खाना खाता रहा। अंदर ही अंदर वो नौजवान पत्रकार समझ चुका था कि जो तीर अब छोड़ा गया है वो बेहद पेचीदा है। मुझे याद आ रहा था कि ऑफिस में इस शब्द के ऊपर बहुत बहस हुई थी। पहले लिखने के लिए मना भी किया गया था पर कुछ लोगों ने इस शब्द पर आपत्ती नहीं जाहिर की थी और बाद में ‘वो’ लिखा गया। लिखा दिल्ली में गया था और वहां से बहुत दूर उस शब्द ने अपना क़हर बरपा दिया था। बाद में उस शब्द को हटा दिया गया था।
‘जी हां, लिखा था क्योंकि सारे तार वहीं से जा कर जुड़ रहे थे। ये सिर्फ हम नहीं सब कर रहे थे, पुलिस तक कह रही थी’।
‘पर नाम तो तुम लोगों ने ही रखा था ना, आतंक की नर्सरी, आजमगढ़, तो तुम लोग कुछ भी नाम रख दोगे, ये नहीं सोचोगे कि इसका असर क्या होगा’।
नौजवान ने चुप्पी साध ली।
‘....और तुम क्या पुलिस की बात कर रहे हो उसने तो उठा लिया ना आजमगढ़ से उस लड़के को। क्या वो गुनहगार था? आज भी लखनऊ में उस शब्द की आग की लपटें दिख जाती हैं। आज ही दो ट्रेन भर के आजमगढ़ से लोग आए हैं। कुछ जवाब बनता है सही था उस को गिरफ्तार करना’।
‘नहीं, वो तो गलत था लेकिन हर बार सही हो ऐसा नहीं है, गलती हो ही जाती है’।
‘फिर भी तुम दोगे तो पुलिस और अपने भाइयों का ही साथ, बिरादरी का साथ, पत्रकार बिरादरी का साथ’।
नौजवान बीच खाने से उठ गया। जानता था कि वो इसका जवाब दे नहीं सकता था और उस समय दर्द को छोड़कर कुछ दिखा भी नहीं पाया था, जिसे कुछ ने समझा था और कुछ उसी तरह अनजान बने रहे जिस तरह आज वो बनने की कोशिश कर रहा था। मैंने भी खाना खत्म किया और उठ गया। ना शब्द, ना सवाल, ना जवाब, कुछ भी तो नहीं था हमारे पास। हाथ धोकर सीधे गाड़ी में जाकर बैठ गए और गाड़ी दिल्ली की तरफ दौड़ा दी।
ये संवाद थे एक बाप और बेटे के बीच। ये पहली बार नहीं हैं जब कि खाना आधा छूटा हो ये पहले भी कई बार हो चुका हैं। दिक्कत तो उस पत्रकार के लिए होती है जो कि इस घटना से अपनी ही कौम, अपने ही लोगों का गुनहगार बनकर खड़ा हो जाता है। और उसी काम के लिए तमगा भी पाता है। कभी-कभी एक शब्द से ही दूर-दूर तक उस दर्द का एहसास लंबे समय तक होता है।
इस चुप्पी के बीच मुझे याद आ रहा था ‘एक आतंकवादी का घर’, जिसे मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ‘शम्स ताहिर खान’ ने लिखा था। जिसे मेरे एक ब्लॉगर भाई ने अपने ब्लॉग पर छापा भी था। यदि इजाज़्त मिली तो मैं उसे पेश करूंगा।
आपका अपना
नीतीश राज
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
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Friday, March 13, 2009
Friday, October 24, 2008
मुसलमान की शादी में जाने को आतुर क्यों हो? क्यों?
मेरे एक सहयोगी की हाल ही में शादी थी। शादी में जाने का पूरा प्लान मैंने बना लिया था। जब छुट्टी की बात आई तो जैसे की सभी के ऊपर दायित्व होते हैं वैसे ही मेरे ऊपर भी हैं। ऑफिस के साथ-साथ मैं अपनी सोसायटी में भी काफी एकटिव हूं। ऑफिस की बात बाद में पहले सोसायटी की बात करता हूं। जिस दिन मेरे सहयोगी की शादी थी उस दिन सोसायटी में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तो मेरा वहां पर भी होना जरूरी था। मैंने अपनी बात सभी सोसायटी मैंबर्स के सामने रखी। इस बार मेरे बिना ही ये आयोजन करना होगा। और ऐसा भी नहीं था कि मेरी अनुपस्थिती में इतने बड़े आयोजन में कोई भी व्यवधान या दिक्कत आ सकती थी। सोसायटी के एक एक्टिव मैंबर ने मुझसे जाने का सबब पूछा कि आखिर जाना कहां हो रहा है। मैं टाल गया। फिर बात आई कि दो दिन बाद बिजली विभाग के कमर्चारियों के साथ मीटिंग है। तो उस मीटिंग की अगुवाई मेरे को करनी है। मैं बैकफुट पर था मैंने तुरंत मना कर दिया क्योंकि जिस सहयोगी की शादी में मुझे जाना था उस सहयोगी का रिसेप्शन शादी के दो दिन बाद रखा गया था और ऑफिस के कुछ सहयोगियों के साथ मेरा पहले ही प्लान इन दो दिनों के लिए तय हो चुका था। मेरा इनकार करना वाजिव था। मैंने अपनी बात दोहराई कि इन दो दिन तो मैं उपलब्ध नहीं हूं।
उसी मैंबर ने जिसने की पहले पूछा था कि क्य़ा काम है फिर से सवाल दोहरा दिया। इस बार मैंने बिना झिझक के ये बता दिया कि ऑफिस में मेरे एक सहयोगी.........(नाम) की शादी है। जो नाम मैंने लिया जिसको कि मैं यहां बता नहीं रहा हूं सुनकर उन सब के कान खड़े हो गए। तुरंत जो रिएक्शन था वो मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। क्यों जाना चाहते हो यार, हमें तो लगता है कि कोई जरूरी तो होगा नहीं तुम्हारा जाना, ना भी जाओगे तो चलेगा। मैंने बोला ये आपने कैसे सोच लिया। जवाब था, अरे उस शख्स का धर्म अलग है तो हम ये तो कह ही सकते हैं कि वो आपका भाई-बंधु तो है नहीं, तो सोसायटी के इस आयोजन में तो आपकी तरफ से भागीदारी हो ही सकती है।
मैं चुपचाप सुनता रहा। सब के अपने-अपने तर्क थे। कोई कुछ बता के मुझे रोकना चाह रहा था कोई कुछ बता के। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये लोग मुझे काम के कारण रोकना चाहते हैं या कि कोई और वजह है। मैंने जानने के लिए एक सवाल दोहराया। अरे बिना मेरे भी तो कार्यक्रम आयोजित हो सकता है और फिर ऐसा कोई पहली बार तो हो नहीं रहा है। मैंने पिछले आयोजन का हवाला देते हुए बताया कि काफी मैंबर्स पिछली बार नहीं थे। एक-दो बिना तर्क के कुतर्क सामने रखे गए। तभी एक ने बोला एक मुसलमान की शादी में जाने को इतना आतुर क्यों हो? पहली बार तो मुझे लगा कि ना जाने ये इन्होंने क्या कह दिया? भई, मेरे सहयोगी की शादी और इसमें भी धर्म को सामने रखकर क्यों देखा जा रहा है।
वैसे ये पहली बार ही नहीं था जब कि किसी ने हाल के दिनों में मेरे से ये सवाल पूछा हो। ऑफिस और ऑफिस के बाहर भी इन सवालों से दो चार हो चुका था। लेकिन मैंने कभी भी इन सवालों पर तबज्जो नहीं दी। हाल ही में ऑफिस में ही एक सहयोगी ने ही ये सवाल उठाया था। तब मेरा जवाब था कि यदि वो शख्स तुमको कैफे से कॉफी पिलाता है तो तुम दौड़े-दौड़े चले जाओगे। फिर यदि सवाल उस शख्स की शादी का आता है तब तुम पीछे क्यों हट जाते हो। पहली बात तो वो हमारा साथी है फिर बाद में आता है कि शादी कहां है। उसके बाद भी मेरे ख्याल से तो ये सवाल आता ही नहीं है कि शादी किस धर्म के शख्स की है। और क्या शादी में जाने से दूसरा शख्स उस धर्म का हो जाता है।
अफसोस ये रहा कि जिस दिन उसकी शादी थी उस दिन खबर इतनी ज्यादा आगई कि ऑफिस से हम कई शख्स जा भी नहीं सके। पर रिसेप्शन में हम सभी गए। और इतने लोग गए कि दूल्हे ने पूरा वक्त हमारे साथ ही बिताया और साथ में वो बहुत खुश हुआ। ये एक ऐसी शादी थी कि जिसमें हम सभी धर्म के लोग गए और खूब मजा किया। सवाल करने वालों के मुंह पर ये ऐसा तमाचा था कि फिर अभी तक कोई सामने नहीं पड़ता है मेरे। जब भी मेरी सोसायटी के उन लोगों में से कोई मिलता है तो मैं उन्हें शादी की बात बताना नहीं भूलता और वो वहां से कन्नी काटना नहीं भूलते। ऑफिस में भी बढ़ा चढ़ा कर बताता हूं कि अच्छा है जलने वालों को और जलाओ।
रिसेप्शन का काफी अच्छा इंतजाम किया गया था। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। जो नॉन वेज नहीं खाते थे उनके लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन की भी व्यवस्था थी, और वो भी अलग से। वहां देख कर के लगा कि ऐसा नहीं है कि सभी लोग नॉन वेज खाते हैं, बहुत थे जो कि शाकाहारी थे। उसने हम सब का शुक्रिया किया कि हम लोग इतनी दूर उसके यहां पर हाजरी लगाने पहुंच गए थे। लेकिन कुछ भी हो सवालों के बीच इस रिसेप्शन में जाने का आनंद ही कुछ और आया।
आपका अपना
नीतीश राज
उसी मैंबर ने जिसने की पहले पूछा था कि क्य़ा काम है फिर से सवाल दोहरा दिया। इस बार मैंने बिना झिझक के ये बता दिया कि ऑफिस में मेरे एक सहयोगी.........(नाम) की शादी है। जो नाम मैंने लिया जिसको कि मैं यहां बता नहीं रहा हूं सुनकर उन सब के कान खड़े हो गए। तुरंत जो रिएक्शन था वो मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। क्यों जाना चाहते हो यार, हमें तो लगता है कि कोई जरूरी तो होगा नहीं तुम्हारा जाना, ना भी जाओगे तो चलेगा। मैंने बोला ये आपने कैसे सोच लिया। जवाब था, अरे उस शख्स का धर्म अलग है तो हम ये तो कह ही सकते हैं कि वो आपका भाई-बंधु तो है नहीं, तो सोसायटी के इस आयोजन में तो आपकी तरफ से भागीदारी हो ही सकती है।
मैं चुपचाप सुनता रहा। सब के अपने-अपने तर्क थे। कोई कुछ बता के मुझे रोकना चाह रहा था कोई कुछ बता के। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये लोग मुझे काम के कारण रोकना चाहते हैं या कि कोई और वजह है। मैंने जानने के लिए एक सवाल दोहराया। अरे बिना मेरे भी तो कार्यक्रम आयोजित हो सकता है और फिर ऐसा कोई पहली बार तो हो नहीं रहा है। मैंने पिछले आयोजन का हवाला देते हुए बताया कि काफी मैंबर्स पिछली बार नहीं थे। एक-दो बिना तर्क के कुतर्क सामने रखे गए। तभी एक ने बोला एक मुसलमान की शादी में जाने को इतना आतुर क्यों हो? पहली बार तो मुझे लगा कि ना जाने ये इन्होंने क्या कह दिया? भई, मेरे सहयोगी की शादी और इसमें भी धर्म को सामने रखकर क्यों देखा जा रहा है।
वैसे ये पहली बार ही नहीं था जब कि किसी ने हाल के दिनों में मेरे से ये सवाल पूछा हो। ऑफिस और ऑफिस के बाहर भी इन सवालों से दो चार हो चुका था। लेकिन मैंने कभी भी इन सवालों पर तबज्जो नहीं दी। हाल ही में ऑफिस में ही एक सहयोगी ने ही ये सवाल उठाया था। तब मेरा जवाब था कि यदि वो शख्स तुमको कैफे से कॉफी पिलाता है तो तुम दौड़े-दौड़े चले जाओगे। फिर यदि सवाल उस शख्स की शादी का आता है तब तुम पीछे क्यों हट जाते हो। पहली बात तो वो हमारा साथी है फिर बाद में आता है कि शादी कहां है। उसके बाद भी मेरे ख्याल से तो ये सवाल आता ही नहीं है कि शादी किस धर्म के शख्स की है। और क्या शादी में जाने से दूसरा शख्स उस धर्म का हो जाता है।
अफसोस ये रहा कि जिस दिन उसकी शादी थी उस दिन खबर इतनी ज्यादा आगई कि ऑफिस से हम कई शख्स जा भी नहीं सके। पर रिसेप्शन में हम सभी गए। और इतने लोग गए कि दूल्हे ने पूरा वक्त हमारे साथ ही बिताया और साथ में वो बहुत खुश हुआ। ये एक ऐसी शादी थी कि जिसमें हम सभी धर्म के लोग गए और खूब मजा किया। सवाल करने वालों के मुंह पर ये ऐसा तमाचा था कि फिर अभी तक कोई सामने नहीं पड़ता है मेरे। जब भी मेरी सोसायटी के उन लोगों में से कोई मिलता है तो मैं उन्हें शादी की बात बताना नहीं भूलता और वो वहां से कन्नी काटना नहीं भूलते। ऑफिस में भी बढ़ा चढ़ा कर बताता हूं कि अच्छा है जलने वालों को और जलाओ।
रिसेप्शन का काफी अच्छा इंतजाम किया गया था। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। जो नॉन वेज नहीं खाते थे उनके लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन की भी व्यवस्था थी, और वो भी अलग से। वहां देख कर के लगा कि ऐसा नहीं है कि सभी लोग नॉन वेज खाते हैं, बहुत थे जो कि शाकाहारी थे। उसने हम सब का शुक्रिया किया कि हम लोग इतनी दूर उसके यहां पर हाजरी लगाने पहुंच गए थे। लेकिन कुछ भी हो सवालों के बीच इस रिसेप्शन में जाने का आनंद ही कुछ और आया।
आपका अपना
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