समीर लाल जी,
पहली बार आप से असहमत हो रहा हूं शायद। गुलाल देखी है मैंने, जितनी आसानी से आपने इसकी समीक्षा कर दी है उतनी आसानी से नहीं बनी है ये फिल्म। अनुराग कश्यप से लेकर केके मेनन, आदित्य श्रीवास्तव, राज चौधरी, पीयूष मिश्रा, अभिमन्यू सिंह, दीपक डोबरियाल सबने बहुत मेहनत करके इस फिल्म को बनाया है। २००१ से अनुराग कश्यप के दिमाग में इस फिल्म का प्लॉट चल रहा था।
हां, मैं ये मान सकता हूं कि फिल्म का विष्य गलत है, जहां हर तरफ बंटने-बांटने की बात चल रही हो तो चिंगारी पैदा करने की जरूरत ही क्या थी। चलिए मान लिया, फिल्म में एक-दो जगह नहीं कई जगह भटकाव है और कुछ हद तक हम ये भी मान लेते हैं कि इस फिल्म के गीत, कविताओं की पैरोडी की तरह लगे।
पर तीन बातों पर शायद लोग गौर नहीं कर पाए-
सभी कलाकारों की अदाकारी,
चाहे राजपूताना नहीं बता पाई हो फिल्म लेकिन राजनीति जरूर बताती है,
फिल्म के गानों के बोल-सुभानअल्लाह।
सभी कलाकारों की अदाकारी
फिल्म के अधिकतर कलाकार रंग मंच से जुड़े हुए हैं। सबने बड़े परदे को थिएटर मानकर अपनी अदाकारी बिखेरी है। लगता है कि फिल्म एक आम आदमी, एक स्टूडेंट से जुड़ी हुई है। वो आम आदमी जिसे नंगा किया जाता है, ‘माइंड वाश’ किया जाता है और जब उसको गुस्सा आता है तो सर भी फोड़ देता है। कमर्शियल मूवी की तरह नहीं कि एक हीरो सौ आदमियों पर भारी पड़ता है और खाली हाथ-पैर से ही एक लोकेशन पर गुंडों को मार डालता है। कलाकारों ने कितने सरल अंदाज में अभिनय किया है ये इस फिल्म की यूएसपी है। किसी कॉलेज के चुनाव को लो बजट मूवी में इसी तरफ से ही दिखाया जा सकता था। चुनाव के समय रणसा का डडबाल के कमरे का दरवाजा खटखटाना और हंसना वहीं दूसरी तरफ दलीप का पीछे से आकर अपना पर्चा लगाना कलाकारी दिखाता है। कोई भी भव्य सेट नहीं है हर जगह आर्ट मूवी जैसी ही दिखती है ये फिल्म।
क्या ये लाइनें हुक्मरानों पर फिट नहीं बैठती-
इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा, उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी।
एक अमीर बाप से उन्हीं के पैसों पर ऐश करते बेटे की मुंहजोरी-
मुझे अमर चित्रकथा में नहीं जीना।
चाहे राजपूताना नहीं बता पाई हो फिल्म लेकिन राजनीति जरूर बताती है
‘...याद है अफगानिस्तान में नजीबउल्लाह को कैसे चौराहे पर लटकाया था...’।ये डायलॉग केके मेनन के थे जब कि रणसा और दलीप डडबाल का सर खोलकर आते हैं।‘नहीं बना...डडबाल ने नजीबउल्लाह वाली बात का बदला लिया था’। रणसा के क़त्ल से कैसे जोड़ते हैं इस बात को बहन और भाई। बिल्कुल घाघ राजनीति दिखाई गई है। पता ही नहीं चलता कि कब क्या हो रहा है और क्यों? एक उच्च कोटी की राजनीति को दर्शाती है ये फिल्म।
फिल्म के गानों के बोल-सुभानअल्लाह।
मैं आपकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं कि-‘गीतों के नाम पर कविताओं की पैरोडी और उन पर झमाझम नाचती, बल खाती बाला.पियूष मिश्रा के गीत पर-जैसे दूर देश के टावर में घुस गयो रे ऐरोप्लेन’।
इस फिल्म में आठ गाने हैं और सभी पीयूष मिश्र ने लिखे है और कुछ गाए भी हैं। किसी दूसरे गाने के बारे में बात क्यों नहीं।
आरंभ है प्रचंड...वीर रस की कविता है। मेरा कुछ सामान...भी एक कविता ही थी जिसे गाने का रूप पंचम दा ने दिया था। और पीयूष मिश्र के गानों में नुक्कड़ संगीत वाली बात भी रहती है क्योंकि वो ज्यादा लोगों को मौका देने की फिराक में रहते हैं। साथ ही कई गानों में तो जैसे ऐसी सज़ा देती हवा तन्हाई भी तन्हा नहीं...इसमें पूरे वेस्टर्न म्यूजिक का इस्तेमाल किया गया है मतलब वादयंत्रों से है। ओ री दुनिया...गाने के शब्द इस दुनिया पर तमाचा मारते हुए लगते हैं साथ ही इस गाने में मुख्य रूप से तबला और हारमोनियम पर गाना बनाया है, आज के म्यूजिक डायरेक्टर बनाए तो जरा। रात के मुसाफिर...गाना नहीं लगता है अपने में ही एक आदमी को चुनौती देता सा लगता है कहीं दूर बैकग्राउंड में गिटार बज रहा है वो भी धीरे-धीरे। जब शहर हमारा सो गयो थो...ये ट्रडिशनल सांग की तर्ज पर बना हुआ लगता है। रणसा की मौत के समय पर ये गाना लगाया गया था और जब भी गाना सुनोतो दृष्य याद आ ही जाता है।यारा...मौला...ये गाना एक फास्ट नंबर है और इसके बोल एक कॉलेज के लड़के की विपदा को पूरा बताते हैं...फिर वो आए, भीड़ बनकर, हाथ में थे उनके खंजर, बोले फेंको ये किताबें, और संभालो ये सलाखें...इस गाने के अंत में...अब हमारे लगा ज़ायका खून का अब बताओ करें तो करें क्या...पढ़ने लिखने वाला छात्र खंजर हाथ में उठा ले तो उसको ये सवाल करने का हक मिल जाता है कि जिन्होंने भी बरगलाया उसको बेहतर है उनसे ये सवाल पूछ ले, ना मिले जवाब तो खुद से पूछ ले। अभी तक इसमें मैंने उस फूहड़ गाने का जिक्र नहीं किया है जो कि बीड़ी जलाईले की तर्ज पर बनाया गया था।
मेरे लिहाज से तो इस फिल्म में ये खूबियां थी जो मैंने देखी।
मैं जानता हूं कि समीर जी के खिलाफ जाने का मतलब है अपने लिए मुसीबत मोल ले लेना लेकिन ये मेरी राय है इस फिल्म के बारे में।
खोने की जिद्द में ये क्यों भूलते हो कि पाना भी होता है....।
आपका अपना
नीतीश राज
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”
sahmat hoon film se
ReplyDeleteबिलकुल सहमत हु आपसे.. आपने तो फिल्म के बारे में बहुत कुछ लिखा है जो मेरी सोच के करीब करीब नज़र आता है.. फिल्म में अलग राजपुताना कि मांग के लिए भी जो कारण दिया गया है वो भी सही है.. जब के के कहता है की अखंड भारत बोलके हमसे राजस्थान लिया था.. पर अब भी देश बँटा हुआ है उत्तर प्रदेश, बिहार..
ReplyDeleteआरम्भ है प्रचंड में कई बार सुन चूका हु.. इस तरह के गीतों का प्रयोग भारतीय सिनेमा में मुझे बहुत ही कम मिला है..
फिल्म में कई ऐसी बाते है जो समाज की परते खोलती है.. बाक़ी बहुत कुछ तो आपने कह ही दिया..
U r right ! Anurag wanted to make this film since long ,but couldn't find disributors. when Dev D clicked , he released it in hurry . Hurry,however, spoils curry! I AGREE WITH ALL THE PLUS POINTS U HAVE MENTIONED HERE, BUT ITZ BIGGEST AND MOST LAUGHABLE WEAKNESS IS THE 'THE END' . '' TUMNE YE SAB KIYA BUS G.S. BANNE KE LIYE''. IS DIALOGUE NE IS FILM KEE AISI -TAISI KAR DAALI. see how the film starts on what a valid and exalted note! and just see how miseably it ends . Acting and music superb ,but Piyush forgot the difference between stage and camera while enacting . A kind of symbolic character in the form of a painted dancer further made the film 'jhel'
ReplyDeleteमैने तो देखी ही नहीं ... कुछ कह पाना मुमकिन नहीं।
ReplyDeleteitna gyan nahi ki samiksha kar sakooN..
ReplyDeletepar ek baat pakki hai film mein geet sangeet or bol sunne mein acche lage..
doosri baat .....galiyoN ki koi kasar baki nahii rahii ......director ne PhD ki hui hai galiyon mein to.
अच्छी समीक्षा।
ReplyDeleteप्रिय नितिश भाई
ReplyDeleteकैसी बात करते हैं आप? आप ने अपना नजरिया रखा है और मैने अपना. इसमें विरोध कैसा?
हर सिक्के के दो पहलु होते हैं, जो जैसा देख पाये. आपने सकारात्मकता का परिचय दिया और मैने खामियाँ गिनाईं.
इतने बड़े नाम के साथ फिल्म से अपेक्षाऐं भी बढ़ जाती है. माना अनुराग इस पर बहुत सोचने के बाद आये पर आपने भी माना कि आजाद राजपूताना की चिंगारी छोड़ना सरासर गलत है, वो भी ऐसे समय में जब लोग नेतागिरी के लिए बस मुद्दे तलाश रहे हैं चाहे देश जाये भाड़ में.
कितनी ही बार फिल्म उस छोटे से कस्बे से निकल जयपुर में दौड़ने लगती है. आदमी पैदल कस्बे में टहला और घर पहुँचने के पहले जयपुर की ट्रेफिक, गाड़ीयाँ और यहाँ तक की सिटी हॉल भी दिख गया-कितना लचीला निर्देशन रहा-आशा के अनुरुप तो नहीं ही था.
आप निश्चिंत हो कर लिखा करो भाई. ऐसे नजरियों का तो हमेशा स्वागत है..इसे विरोध का नाम न दो-काहे हमें अपराध बोध में ढ़्केल रहे हो.
बहुत पसंद आया इस तरह से आपको पढ़ना. आगे भी इसी खुलेपन की उम्मीद रखता हूँ.
बहुत बधाई और शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
अपना अपना दृष्टिकोण होता ही है.
ReplyDeleteफिल्म देखना ओर उसे पसंद करना अपना अपना नजरिया है....कोई गीत किसी को पसंद आता है कोई किसी को....ये व्यक्तिगत राय है ...ओर हमारे ब्लॉग हमारी अभिव्यक्ति को ही व्यक्त करते है.....डेल्ही -६ को देख लीजिये ...नया ज्ञानोदय में दो दो लोगो ने अपने अपने नजरिये से इसकी समीक्षा की है ओर कल प्रमोद जी ने भी की थी....संगीत भी ऐसे ही है.....अनुराग कश्यप से मेरी उम्मीदे बहुत है...अभी गुलाल देखी नहीं है आज रात को देखने जा रहा हूँ पर इसके संगीत पर आपसे सहमत हूँ....खास तौर से पियूष मिश्रा.... एरोप्लेन वाला गाना तो मुझे पसंद है....
ReplyDeleteहाँ एक बात ओर ये विरोध नहीं सिर्फ नजरिया है......जाहिर है सबका अपना होता है.
jis kavi ki kalpan main prem geet ho likha,
ReplyDeleteus kavi ko aaj tum nakar do....
wah !! wah !!
Ek Line Main kahoon to: Gane (kavita) Marvellous, Direction: Ok, Movie: So-so
नितीश भाई , ये फिल्म मैंने भी देखी , फिल्म कुछ जगह जरूर कमजोर दिखायी दी पर अभिनय से उसको पूरा किया । साथ छात्र राजनीति को पूरी सफलता से प्रस्तुत किया गया । संगीत तो बिल्कुल नया है , सभी गाने बेहद नये ढ़ग से बनाये गये हैं । कविता के एक शब्दों पर कितना ध्यान दिया है पीयूष मिश्रा ने । सभी ने अपना दमदार अभिनय दिया है । मुझे तो बेहद प्रभावित करती है यह फिल्म । फिल्म के कुछ डायलाग का आपने विवरण भी दिया है ।
ReplyDeleteनीतीश जी हमें तो ये फ़िल्म बहुत पसंद आई थी और अभी २ दिन पहले दोबारा देख कर आए है ।
ReplyDeleteऔर गाने भी बहुत अच्छे लगे । और हमने तो जब पहली बार फ़िल्म देखी थी तब इसकी समीक्षा भी लिखी थी ।
मुनीश जी से थोड़ा असहमत है क्योंकि यही तो उसने दिखाया कि g.s.जैसी एक छोटी सी पोस्ट के लिए भी लोग क्या कुछ कर गुजरते है ।
मैंने अभी तक देखि नही ..देख कर कहूँगी.
ReplyDeleteनितीश,
ReplyDeleteमैंने फिल्म नहीं देखी है मगर झलकियों, गीतों, निर्देशन, कलाकारों, और समीक्षाओं के आधार पर आपसे बिलकुल सहमत हूँ.
ReplyDeleteनिःस्ण्देह पसंद किये जाने योग्य है, यह फ़िल्म !
पूर्वग्रसित मन से तो बखिया उधेड़ने अपने कारण हैं !
जब अलग प्रदेश देने के वायदों के साथ वोट माँगें और दिये जा रहे हों, यह फ़िल्म कटुक्ति को रूप में ली जानी चाहिये !
हर व्यक्ति का अलग नजरिया होता है... इसको लेकर कभी नहीं सोचना चाहिए... आपने फिल्म की अच्छी समीक्षा की, लेकिन उनके वहां भी अच्छी समीक्षा हुई..
ReplyDeleteMamta ji Piyush & Anurag are people of great calibre and that is why i expected them to be more subtle and understated rather toooooo melodramatic and hahahoohooo as they get in the END
ReplyDeleteहमने गुलाल नहीं देखी तो गुलेल कैसे तानें :)
ReplyDeleteइस पोस्ट पर समीरलाल जी की प्रतिक्रिया अच्छी लगी।
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