Tuesday, March 31, 2009

यादों के झरोखों से

जब भी कभी गांव जाता हूं तो यादों के झरोखों में खो जाता हूं। वो ऐसा झरोखा है जहां सिर्फ यादें हैं सिर्फ यादें, बेमोल यादें। हमारे घर तक अब पक्का खड़डंजा यानी ईंट वाली सड़क बन चुकी है। घर भी पहले से पक्का हो चुका है। वैसे हर साल अब मेरा एक या दो बार जाना तो हो ही जाता है वर्ना पहले तो चार-पांच साल में एक या दो बार जाना संभव हो पाता था।
वहां पहुंचते ही मेरी यादें मुझे ले जाती हैं उस समय में, जब हमारे घऱ पर बिना कारण लोगों का जमावड़ा लगा होता था। नीम के पेड़ के नीचे बैठकर राजनीति, फसल, गांव और बच्चों के भविष्य की चिंता पर हुक्का पीते हुए बहस किया करते थे। एक-दो बच्चों का ये ही काम होता था कि हुक्के को ठंडा ना होने दें। बातों के दौर के बीच हुक्के की गुड़गुड़ाने की आवाज़। ये सिलसिला कई दशकों पुराना है, हमारे दादा के दादा भी इसी तरह बैठ कर बातें किया करते थे।
जब भी अपने घर के आंगन में खड़ा होता हूं तो यादें २०-२५ साल पीछे ढकेल देती हैं। तब मैं गर्मियों की छुट्टियों में कुछ दिन के लिए यहां आया करता था। आंगन में सब मर्द बैठा करते थे। वहीं थोड़ी सी दूरी पर बंधे होते थे जानवर, गाय, भैंस, बछड़ा, बैल, भैंसा। इन जानवरों की देखभाल के लिए कोई ना कोई हमेशा लगा रहता था। वहीं पास में हम सब बच्चे, या तो खेल रहे होते या फिर बड़ों की बातें सुन रहे होते।
जब १९८३ में भारत ने क्रिकेट में वर्ल्ड कप जीता तो क्रिकेट की भी चर्चा खूब हुआ करती। नाम भूल रहा हूं उनका, उन्होंने शौक में ही अपने बच्चों के नाम पाकिस्तान की टीम पर रख दिए, बड़े का इमरान, उससे छोटा, वसीम,....। वो बोलते कि पाकिस्तान के पास इमरान है तो क्या हुआ...हमारे पास भी इमरान है....बेटे चल इमरान अंकल की बोल पर छक्का जड़ के दिखा। और महफिल में ठहाका गूंज उठता था, सब कहते, मियां उस इमरान को दुनिया नहीं खेल पाती, ये पिद्दी क्या खेलेगा? तेश में आकर वो १२ साल का लड़का कहता कि एक दिन जरूर छक्का मारूंगा।
आज जब अपने आंगन में खड़ा होता हूं तो पाता हूं कि नीम का वो पेड़ आज भी वहां ही है, दूसरा काट दिया गया। अब हुक्का जल्दी ठंडा नहीं होता, उसकी गुड़गुड़ भी काफी देर बाद सुनाई पड़ती है। उस आंगन में अब चाचा जी अकेले बैठे रहते हैं जब उनको याद आती है कि हुक्का साथ दे रहा है तो गुड़ गुड़ा लेते हैं।

(ये बात सिर्फ आंगन की है, हमारी तरफ इसे ‘घेर’ कहा जाता है। औरतों के लिए इस घेर के पीछे बड़ी जगह होती थी वहां पर भी ऐसे ही मंडली लगा करती थी)

आपका अपना
नीतीश राज

3 comments:

  1. बहुत सुंदर यादें हैं पर अब वाकई वो महौल नही रहा. अब चाचा ताऊ सभी जगह शायद अके्ले ही हुक्का गुडगुडाया करते होंगे.

    रामराम.

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  2. गांव ्की यादें आज भी शहर के तनाव से मुक्ति दिलाने वाली रामबाण दवा है,मगर अफ़्सोस गांव मे भी पंचायत चुनावो के बाद से शहर जैसा ज़हर फ़ैलता जा रहा है। अब गांव मे वो अपनापन नही रह गया है शहर की ज़हरीली हवा उसे प्रदूषित कर गई है। फ़िर भी मै साल मे तीन-चार बार 450 कि मी दूर अपने गांव ज़रूर जाता हूं।

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  3. घेर....हुक्का .....ठंडी हवाये ...सब गुम है वक़्त की गलियों में ..हरेक के पास अपना बचपन है ,हरेक के पास भीगे हुए खेत ....बस जो नहीं है वक़्त....निदा फाजिल साहिब कहते है


    जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है
    दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है


    जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है
    हर जीवन जीवन जीने का समझौता है
    अब तक जो होता आया है वो ही होना है


    रात अँधेरी भोर सुहानी यही ज़माना है
    हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है
    आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है

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पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”