Thursday, September 10, 2009

एंबुलेंस, ट्रैफिक और जिंदगी की कश्मकश


घर की सोसायटी से निकलते ही कुछ दूरी पर बाएं होते ही ट्रैफिक से सामना हो ही जाता है। रेंगती हुई चलती गाड़ियां ऐसे जैसे कोई अजगर शिकार निगलने के बाद धीर-धीरे रेंग कर किसी सुरक्षित स्थान पर लहराकर जा रहा हो। एनएच की राह पकड़ते-पकड़ते ही कई गाड़ी वाले अपना धैर्य खो देते हैं और आगे निकलने की होड़ में वो ऐसा काम करने लग जाते हैं जिसे हम सुबह-सुबह बोहनी खराब करना कहते हैं। पर अब तो आदत सी पड़ गई है फिर भी एनएच तक पहुंचने में ही काफी वक्त निकल जाता है।
एनएच पर गाड़ियों का काफिला एक दूसरे के पीछे और उनमें से कुछ ऐसे जो इस काफिले में सब से पीछे और हसरत सबसे आगे चलने की। रास्ते में सिर्फ और सिर्फ पों....पों....पों....पों.....की आवाज़। पता नहीं क्यों सारी दुनिया हॉर्न बजाने लग जाती है जब कि जानती है कि आगे वाला भी सड़क पर अपना घर बनाने नहीं आया। वो भी मौका पाते ही आगे बढ़ेगा और यदि वो आगे नहीं बढ़ रहा तो क्या हॉर्न बजाकर आप गाड़ी के ऊपर से निकल जाएंगे। पता नहीं क्यों लोग दिमाग से ज्यादा हॉर्न का इस्तेमाल करते हैं।
पीछे से एंबुलेंस के सायरन की आती आवाज़ ने मेरे ध्यान को भंग किया। टों....टों.....टों.... टों.....की आवाज़ दूर से ही अपने लिए रास्ता मांगते हुए लगी। अपनी बाइक की सीट से मैंने सायरन को देखने की कोशिश की। वो चारों तरफ गाड़ियों से घिरा सिर्फ और सिर्फ चीख रहा था जो वो कर सकता था। याद आता है बचपन में गुरूजी कहते थे कि बेटा एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस की गाड़ियों के लिए हमेशा रास्ता छोड़ देना चाहिए। शायद सायरन भी बार-बार बजते हुए ये ही कह रहा था कि मुझे रास्ता दो
कुछ इसी उधेड़बुन में मैं लगा हुआ था और धीर-धीरे आगे बढ़ रहा था पर एंबुलेंस को आगे बढ़ने की जगह नहीं मिल रही थी। सायरन अपनी ही आवाज़ में चिंघाड़ रहा था,....टों....टों..... टों....टों.....। आवाज़ तेज होती जा रही थी और रास्ता उतना ही सकरा।
रेड लाइट पर ट्रैफिक वालों और कुछ लोगों की मदद ने उस एंबुलेंस को निकालने की पहल की। ट्रैफिक तुरंत साफ करते हुए एंबुलेंस को निकाला गया। एंबुलेंस के निकलते ही काफी कारें एक साथ झपटीं, सब के दिमाग में ये ही चल रहा होगा कि एंबुलेंस के पीछे रहेंगे तो बिना रुकावट गंतव्य तक पहुंच जाएंगे।
मैंने अपनी बाइक की स्पीड थोड़ी तेज की और एंबुलेंस के पीछे पहुंच गया। जब रेड लाइट पर मेरे पास से गुजरी थी एंबुलेंस तो आंखों ने देखा कि उसमें एक महिला बैठी हुई थीं और ग्लूकोस स्टैंड था। जब एंबुलेंस ने मुझे क्रॉस किया तो एक हाथ ऊपर उठा और फिर नीचे गिर गया। बस। क्या चल रहा है इस एंबुलेंस में ये जानने का दिल कर गया। एंबुलेंस का ड्राइवर मरीज की हालत की गंभीरता को समझते हुए शायद 60 के ऊपर नहीं जा रहा था या फिर सड़क में हो चुके गढ्ढे उसे जाने नहीं दे रहे थे। पर सायरन अब भी उसी तेजी के साथ रास्ते के ऊपर भागता जा रहा था।
एंबुलेंस में एक लड़के पर ग्लूकोज लगा हुआ था और बार-बार लड़का अपना दूसरा हाथ ऊपर-नीचे कर रहा था। हाथ चाहे ऊपर हो या फिर नीचे बगल में बैठी महिला लगातार शून्य में देख रहीं थी। एंबुलेंस ने लेफ्ट साइड का इंडिकेटर दिया और एंबुलेंस बाएं जाने लगी, धीरे-धीरे मुझसे दूर, मेरा और उसका रास्ता जुदा हो गया था। जब तक वो मेरी आंखों से ओझल नहीं होगई मेरी आंखें उसी का पीछा करती रहीं। मुझे दाहिने मुड़ना था मैं आगे बढ़ा और फिर उसी ट्रैफिक में ये सोचते हुए गुम हो गया, क्यों हम खुद से किसी के लिए रास्ता नहीं छोड़ते, क्यों?
आपका अपना
नीतीश राज

5 comments:

  1. आज कल सब अपने बारे में सिर्फ सोचते हैं .संवेदनाएं भी शायद किसी गहरे शून्य को ताकती रहती है अब

    ReplyDelete
  2. सही कहा आपने.. संवेदनाएं शून्य हैं.. हैपी ब्लॉगिंग

    ReplyDelete
  3. आपाधापी भरी जिन्दगी में लोग सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं।
    सम्वेदना तो जैसे मर ही गयी है।
    बहुत बढ़िया लिख है आपने।
    बधाई!

    ReplyDelete
  4. यह लोग क्यो नही सोचते कि आज एंबुलेंस मै कोई ओर है कल हमभी हो सकते है, सब को जल्दी है पहुचने की, कोई नियम नही, कोई कानून नही.... ओर इन्हे देख कर माथा पीटने को दिल करता है कि कारे तो ले लि लेकिन चलाते अब भी बेल गाडी की तरह से है.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  5. संवेदनायें कहीं खो गई हैं.

    ReplyDelete

पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”