Saturday, May 22, 2010

दूर बैठे, दूर की सोच


गांव, मेरा गांव। जब भी गांव जाता हूं तो करीब 40-50 किलोमीटर पहले ही वो शहर की पक्की सड़क पीछे छूट जाती है। फिर शुरू हो जाता है सफर कच्ची सड़क का, जिसे बोलचाल की भाषा में खड़ंजा (ईट की सड़क) कहते हैं। फिर शुरू हो जाती है हरियाली और सिर्फ हरियाली। मिट्टी की सौंधी-सौंधी महक, वो खुशबू, जो बीमार को भी भला-चंगा कर दे। दूर- दूर तक आंखें सिर्फ देख पाती है तो लहलहाते खेत, हरे-भरे खेत। खेतों में बनी पगडंडी और उस पगडंडी पर कोई खेत में काम कर रहे अपनों के लिए खाना ले जाता या फिर दूर से ही आते दिखती सर पर घास का बड़ा गठ्ठर लिए जिसे कोई आम आदमी सोच भी नहीं सकता उठाने की।

गांवों भी अब पक्के मकानों से घिर चुका हैं पर शहर जैसी कोठियां नहीं है। वो पुराने अंदाज और जमाने की कोठियां। गांव में जिसके पास सबसे छोटा घर होगा उसकी कीमत भी शहर में एक आम आदमी की बड़ी पहुंच से बहुत ऊपर होगी। पर गांव में वो एक गरीब किसान, एक मजबूर मजदूर है।

काफी दिन से सोच रहा था कि गांव का चक्कर लगा आऊं। पर जाना हो ही नहीं पा रहा। वहां की तो बस यादें ही रह गई हैं, जाना तो जैसे छूट ही गया है। ये हालात तो तब हैं जब गांव मेरे बसेरे से महज 125 किलोमीटर भी नहीं है। गांव में चाचाजी और दूसरे नातेदार रहते हैं और हमारी खेती संभालते हैं। पर वक्त का अंतराल इतना हो गया है कि मेरा कोई रिश्तेदार मुझे शहर की सड़कों पर रोक कर पूछें, कि पहचाना? तो मैं बहुत ही असहज हो जाऊंगा और कहने को मजबूर हो जाऊंगा, माफ कीजिएगा नहीं पहचाना। कई बार लगता है जब फासले इतने ज्यादा हो गए हैं तो क्यों ना खेत-खलिहान बेच दूं। पर क्या अपनी जड़ों से इतना आसान होता है कट जाना?

उस फैसले से हम अपनी जड़ों को खो देंगे। पुरखों की एक मात्र निशानी ही है जो कि हमें अपनों के काफी करीब रखती हैं ये जमीन। शहर कि भागती दौड़ती जिंदगी की जैसे आदत सी पड़ गई है। वहां जाने की सोचता हूं तो कई बार मेरी सोच भी ये सोच नहीं पाती कि समय कैसे निकालूंगा। कितना घूमूंगा खेतों में, कितना देखूंगा आखों को सुकून देने वाले वो मनोरम दृष्य।

अभी तो फासले ही हुए हैं पर फिर वो खाई पैदा हो जाएगी जो कभी भी उस फासलों को भर नहीं सकेगी। आज गांव चला जाता हूं तो लगता है कि मैं भी यहां का हिस्सा हूं। जैसे समीर लाल जी को लगता है कि इतने सालों के बाद भी भारत की मिट्टी के हिस्सा हैं।


आपका अपना
नीतीश राज 

6 comments:

  1. अच्छी और सराहनीय प्रयास ,दरअसल गावं में अभी भी शहरों के मुकाबले ज्यादा सच्चाई और इंसानियत है / हलांकि आतंक और भय का माहौल भ्रष्ट और कुकर्मियों द्वारा गावों में भी बनाने की साजिश जोरों पर चल रही है / जिसे एकजुट होकर रोकने की जरूरत है /
    दिल्ली में पूरे देश के ब्लोगर सभा का आयोजन कल दिनांक -23 /05 /2010 को नागलोई मेट्रो स्टेशन के पास जाट धर्मशाला में किया जा रहा है / आप सब से हमारा आग्रह है की आपलोग अविनाश जी के संपर्क में रहिये और उनकी हार्दिक सहायता हर प्रकार से कीजिये / अविनाश जी का मोबाइल नंबर है -09868166586 -एक बार फिर आग्रह आप लोग जरूर आये और एकजुट हों क्योंकि एकजुट होकर ही इंसानियत को बचाया जा सकता है /
    अंत में जय ब्लोगिंग मिडिया और जय सत्य व न्याय
    आपका अपना -जय कुमार झा ,09810752301 ,

    ReplyDelete
  2. चले जाओ भाई समय निकाल कर...इसके पहले की समय निकल जाये....

    ReplyDelete
  3. सिर्फ 125 किलोमीटर ?

    बहुत खुशकिस्मत हो मित्र। अपने गाँव के इतने करीब अगर मैं होता तो महीने में एक दो चक्कर तो जरूर लगाता।

    आप भी हो आओ।

    ReplyDelete
  4. ..........बढ़िया संस्मरण

    ReplyDelete

पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”