सुबह हर किसी को जल्दी, हर कोई अपने कदमों से तेज, दूसरे से पहले पहुंचने की होड़। एक अजनबी से भी एक अनजाना मुकाबला, आगे निकलने की जद्दोजहद। हर कोई भीड़ का हिस्सा और नहीं भी। एक-दूसरे को धक्का देते, कोहनी से पीछे ढकेलते, आगे बढ़ जल्दी से सीट लपकने की जी जान कोशिश। और फिर सीट पर बैठकर शून्य में खोने का वो एहसास। उफ!!...देखते ही बनता है, हजारों के साथ अकेले सफर करना, भीड़ में अपने ख्यालों के साथ खो जाना।
मेट्रो की सीढ़ियों से ही जैसे मुकाबला शुरू हो जाता है। सबसे पहले दौड़ कर लिफ्ट पकड़ने की चाहत। जो सवार हो गया तो उसे सीट कब्जाने की होड़ और जो नहीं चढ़ पाया उसे सीढ़ियों के रास्ते सीढ़ी दर सीढ़ी किसी को पीछे छोड़ने की होड़। प्लेटफॉर्म पर सिर से जुड़े सिर फिर भी हर कोई हर एक से जुदा-जुदा।
एक बार इधर-उधर अपने सिर को घुमाकर देखिए। पहले बहुत कम लोग पढ़ते हुए चला करते थे पर मेट्रो में इस का चलन वापिस शुरू हुआ है। ना मुझे इस से मतलब ना उस से। कान में इयर फोन, हाई मैमोरी बेस्ड मोबाइल जिसमें सुनने को अथाह सामाग्री। बड़ों की तरज पर हाथ में न्यूजपेपर या फिर अंग्रेजी का कोई नॉवेल। ये है कुछ युवाओं का चेहरा। कुछ युवा जुदा भी हैं। दोनों में कॉमन है मोबाइल, वो नॉवेल में ना करते हुए, मोबाइल में ही ’आरएनडी’ करते रहते हैं।
मैने मेट्रो में कुछ दिन तो और लोगों की तरह सिर से सिर मिलाकर आंखों में नींद या फिर पुराने ख्याली पुलाव या दिन के सपनों के साथ गुजार दिए। पर फिर लगा कि नहीं ऐसे 25-30 मिनट बेकार में ‘बेकार’ करना ठीक नहीं। तो अधिकतर कोई किताब रखकर चलता हूं और जैसे ही मौका मिला, लग जाता हूं पन्ने पलटने में। मेट्रो के कारण कई किताब खत्म करने में कामयाब रहा हूं।
कई बार मेट्रो में कुछ बातें ऐसी होती है जो कि ना जाने क्यों दिल को छू जाती हैं और कुछ दिल को दुखा देती हैं। इन सब बातों की बात अगली बार।
आपका अपना
नीतीश राज
बहुत पते की बात है मन भी होगा शान्त।
ReplyDeleteसुमन की चाहत है यही लिखते रहे निशान्त।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
सुनाते रहे मैट्रो के किस्से...किताब पढ़ने के लिए बहुत उपयुक्त समय रहता है वह. मैने भी जाने कितनी किताबें ऑफिस आते जाते पूरी की है और कर रहा हूँ. मेरी यात्रा तो एक घंटे सुबह और एक घंटे शाम को रहती है.
ReplyDeleteनितीश राज जी आपके अच्छे सोच और अभिव्यक्ति का मैं कायल हूँ / आप जैसे लोगों की इस देश और समाज को जरूरत है /
ReplyDeleteअब शेयर कर दो भाई....काम से काम मेट्रो में लोगो को देख सुन लगता तो है के दिनचर्या में बहुत से लोग हमारी तरह शामिल है वर्ना कार से अकेला सफ़र बोर करता है
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट... वैसे, लोगों के चेहरे भी किताबों से कम नहीं। :)
ReplyDeleteधन्यवाद आप सभी का...समीर जी अगली पोस्ट पेश होने ही वाली है। प्रतीक शुक्रिया...अब कुछ चेहरों की बातें भी होंगी बंधु।
ReplyDeleteप्रभावी अभिव्यक्ति........शुभकामनाएं।
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