Wednesday, April 29, 2009

राजनीति, अब लॉन्ग टेनिस का ग्राउंड बन चुकी है।

हम सब लॉन्ग टेनिस के बारे में जानते हैं और कुछ तो इस खेल पर हाथ आजमा भी रहे होंगे। जो इस खेल के बारे में ना जानते हों उन्हें ये बता दूं कि आजकल हमारी राजनीति में कुछ इसी तरह का खेल चल रहा है। इस खेल के बारे में थोड़ा ध्यान से वर्ना समझ नहीं पाएंगे और जब समझ नहीं पाएंगे तो हार आपकी निश्चित है। पहला खिलाड़ी चारों तरफ से घिरे स्टेडियम में ठसा-ठस भीड़ के सामने हाथ में रैकेट लेकर मैदान में खड़ा होता है और दूसरे छोर पर दूसरा खिलाड़ी सामना करने के लिए तैयार। पहला खिलाड़ी गेंद को दूसरे खिलाड़ी के पाले में जान लगाकर फेंक देता है। ऐसा करने पर कई बार पहले वाले खिलाड़ी की आवाज़ हलक से बाहर भी आ जाती है। स्टेडियम में बैठे उस खिलाड़ी के दीवाने जोश में भर जाते हैं। वहीं दूसरा खिलाड़ी भी अपनी पूरी ताकत के साथ गेंद को फिर से पहले वाले के पाले में फेंक देता है। पहला खिलाड़ी और दम लगाता है, दूसरा खिलाड़ी उससे भी ज्यादा दम लगाता है, उनके दीवाने जोश से उछलने लगते हैं। गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकने लगते हैं। अब दूसरे खिलाड़ी के दीवाने ज्यादा दम लगाने और दिखाने के चक्कर में हलक की आवाज़ स्टेडियम के बाहर तक चली जाती है। इधर की आवाज़-उधर की आवाज़, इधर का जोश-उधर का जोश। इस जोश से भरी आवाज़ के जोश में कई बार दीवानों के साथ-साथ खिलाड़ी भी होश खो बैठते हैं। कई बार इसी कारण से बाहर वालों को दिक्कत होने लग जाती है और गेम को गेम की तरह खेलने का आग्रह लेकर आसपास-पड़ोस के लोग उन्हें समझाकर चले जाते हैं।

आजकल हमारी राजनीति उस खेल की तरह चल रही है जिसे खासतौर पर भारत में तो एक लड़की के कारण ज्यादा पहचाना जाने लगा। और उसी बाला से बला के गुण सीख कर हमारे नेता उसे मंच पर आजमा रहे हैं।

आजकल हर दिन ये सुनने को मिलता कि किसी नेता ने दूसरे नेता के लिए कुछ कह दिया, थोड़ा सा दम लगाकर। अब गेंद उस दूसरे नेता के पाले में चली गई। उसने थोड़ा ज्यादा दम लगाकर गेंद पर गाली लपेटकर पहले वाले नेता के पाले में फेंक दी। और फिर सिलसिला शुरु होगा। वार पर पलटवार हो गया और फिर उस पलटवार पर भी पलटवार हो गया।

पहले आडवाणी जी ने शुरुआत की तो फिर मनमोहन जी ने भी जवाब दिया। बात कुछ ज्यादा होचली तो आस पास के लोग भी जुड़ गए। सोनिया गांधी फिर राहुल-प्रियंका सब हाथ धोकर पीछे पड़ गए आडवाणी के। आडवाणी जी सकपका गए, बोलने लगे कि क्या मैंने कुछ गलत कहा या बिलो द बेल्ट हिट किया। आडवाणी जी को बचाने के लिए इस बार अटल जी नहीं हैं तो राजनाथ जी जब तक पाला संभालते तब तक मोदी जी कूद पड़े। अब मोदी ने कुछ बोला तो जवाब प्रियंका ने दे दिया। इतने कद्दावर नेता को गेंद सीधे सर पर लगी कि इतनी पिद्दी सी प्रियंका कैसे जवाब दे सकती है। तो फिर गेंद को प्रियंका के पाले में फेंक दिया। इधर राहुल ने जवाब देना शुरु ही किया कि सबने कहा बच्चे की बात हम नहीं सुनते, ये खेल बच्चे नहीं खेलते। प्रियंका जो छोटी थी उसे सबने गंभीरता से लिया। गंभीर प्रियंका ने गंभीरता से जवाब दिया।

लॉन्ग टेनिस का मैच तो शुरु हुआ था और खत्म होगया चाहे वहां पर पांच सेट चले हों। ज्यादा हल्क से आवाज़ निकलने लगे तो आस-पड़ोस वाले समझाकर चले भी गए। पर राजनीति के खेल में गेंद के रूप में गाली, आरोप एक दूसरे पर लगते रहे और बढ़ते भी रहे। जो इन्हें शांत कराने आते वो इनके साथ ही जुड़ते चले गए और लगता नहीं कि इस चुनाव के ख़त्म होने तक ये दौर रुकेगा। सच, ये खेल बच्चों का नहीं है पर बड़ों को ये बात समझते हुए इस खेल को भी बड़ों की तरह ही खेलना चाहिए, ‘छोटों’ की तरह नहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, April 22, 2009

अब बोल दिया सो बोल दिया, अब क्यों डर रहे हो आडवाणी जी। बिलो द बेल्ट तो आपने हिट किया ही था।

अब बोल दिया सो बोल दिया, अब डरना क्यों? ये तो नहीं लग रहा कि कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं बोल दिया। कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे कि चुनाव के समय में इतने नीचे नहीं गिरना चाहिए था। बार-बार पीएम को कमजोर नहीं कहना चाहिए था। अब भई बार-बार किसी को फटकारते रहेंगे तो कभी ना कभी तो दूसरा फट ही पड़ेगा। जब दूसरा फट ही पड़ा है तो अब आप क्यों घबरा रहे हैं। क्यों? हर दिन कभी किसी चैनल पर तो कभी किसी अखबार में पीएम के बारे में आपको सफाई देते सुना जा सकता है।
मैंने तो सिर्फ मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहा था। मैंने तो सिर्फ ये कहा था कि मनमोहन सिंह ने पीएम के पद के स्तर को कम किया है। मैंने तो सिर्फ ये कहा था कि वो सारे निर्णय सोनिया गांधी से पूछ कर लेते हैं। मैंने तो सिर्फ ये कहा था कि अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री यदि कोई हुआ है तो वो सिर्फ मनमोहन सिंह हैं। अब आडवाणी जी किसी को आप बार-बार ये सब कहते रहेंगे तो कौन चुप रहेगा। अब जब आपकी पोल पट्टी खुलने लगी तो नाराज़ बैठे हुए हैं और लगे हैं सभी से पूछने कि भई, क्या मैंने बिलो द बेल्ट हिट किया था?
जब आडवाणी जी चुप नहीं हुए और अपनी सभी रैलियों में उनका टेपरिकॉर्डर बजने लगा तो फिर कांग्रेस ने आडवाणी पर चौतरफा हमला करना शुरू कर दिया। अब ढाल के रूप में कोई सामने तो आया नहीं, तो लगे हैं रोने। आपकी एक के बाद एक गलतियां गिनाई जाने लगी तो लगा कि कहां पंगा ले लिया, मेरा गिरेबान तो ज्यादा मैला है। इस देश के हिंदुओं को तो छोड़िए, मुसलमानों के लिए भी जिन्ना किसी विलेन से कम नहीं था। आप पाकिस्तान जाते हैं तो लग जाते हैं उनकी तारीफ के गुणगान करने। तो जब भी इस मुद्दे पर आपको घेरा जाएगा तो संघ आपके साथ नहीं खड़ा होगा। बाबरी मस्जिद विध्वंश में आपकी भूमिका सब जानते हैं पर यहां पर दो धड़े हैं। हिंदु आपके साथ हो सकते हैं पर मुसलमानों के लिए तो आप विलेन ही हैं। तो जब-जब ये वाक्या सामने आएगा आपके वोट बैंक पर असर तो पड़ना ही है। कांधार मामले पर आपने अपना पल्ला झाड़ लिया पर उसमें भी आप फंस गए। उस समय आप गृहमंत्री थे और आपको इस बारे में जानकारी ही नहीं दी गई ये कोई पचा ही नहीं पा रहा है और यदि सच में नहीं दी गई तो आपकी पार्टी ही आप पर विश्वास नहीं करती। तो हर तरफ से आप फंस गए।
बेहतर तो ये है कि आप जब भी दूसरे पर हमला करें तो ये साथ में ध्यान रखें कि आप कितने पानी में हैं। अफजल गुरु के मामले में आप भी कठघरे में आते हैं जिसका जिक्र मैंने अपनी पिछली पोस्ट में किया है। १९९९ से लेकर २००४ तक आपने किसी भी राष्ट्रपति के पास पड़े माफीनामे पर कार्रवाई नहीं की उसके पीछे की वजह ये थी कि पहली बार ही यदि कुछ फैसले ले लेते तो हमेशा किसी वोट बैंक से आपको हाथ धोना पड़ता।

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, April 21, 2009

अफजल गुरु को कोई भी सरकार फांसी नहीं देगी, किसी भी पार्टी में इतना दम नहीं है।

सारा देश संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ता हुआ देखना चाहता है। पर शायद अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वोट बैंक होने के कारण अभी फिलहाल तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। माना तो ये जाता है कि भारत में सुप्रीम कोर्ट के ऊपर कोई अदालत नहीं, पर मेरा विश्वास इस बात से डगमगा रहा है। सुप्रीम कोर्ट एक घृणत कृत्य के लिए एक शख्स को फांसी मुकर्रर करता है। उसको इस सज़ा तक पहुंचाने में लाखों खर्च होते हैं और जेल में रखने पर भी लाखों खर्च। फांसी की सज़ा तो कोर्ट ने सुना दी पर यहां पर हमारा संविधान थोड़ा लचीला हो जाता है। राष्ट्रपति के पास सज़ायाफ्ता मुजरिम एक माफीनामा भेज देता है कि उसे जो सज़ा मिली है उसमें रहम किया जाए। मतलब ये कि इसके बाद आप गारंटी के साथ काफी सालों तक जिंदा रह सकते हैं।

हमारी सरकारें ये नहीं चाहती कि राष्ट्रपति कोईं भी फैसला लें क्योंकि उस फैसले से अगले चुनावों में वोट बैंक पर असर पड़ेगा। अभी राष्ट्रपति के पास 28 मामले फांसी के पड़े हुए हैं और उसमें अफजल गुरु का नंबर 22वां है। इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में शामिल तीन आरोपियों की याचिका भी है। यूपीए के शासन काल में उस पर भी फैसला नहीं हो सका। 1998 में जो फैसले सुप्रीम कोर्ट ने फांसी के सुनाए थे उन मामलों पर भी फैसला लिया जाना बाकी है।

जब किसी को सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सज़ा सुनाई जाती है तो फिर वो राष्ट्रपति के पास याचिका क्यों डालते हैं? उसके चुनिंदा कारण ही होते होंगे, जैसे कि घर के अकेला चिराग होना, मुजरिम पर बूढ़े मां-बाप का निर्भर होना, या ये गलती जो हुई है वो अनजाने में हुई है और साथ ही अभी उम्र बहुत कम है। जब याचिका डाली गई और 10-15 साल तक कोई फैसला नहीं हो रहा है तो उस याचिका का क्या औचित्य रह गया? बड़े-बूढ़े मर गए और जवान आदमी जेल में पड़ा-पड़ा सड़कर बूढ़ा हो गया।

1999-2004 तक के अपने कार्यकाल में एनडीए ने किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं की। क्या जवाब है इस पर बीजेपी का? कि पहली बार सत्ता पर बैठे थे तो सुख भोगना था भोग लिया, फैसला कैसे सुनाते। वो ही काम अब यूपीए ने भी किया। पूर्व राष्ट्रपति नारायणन और डॉ. कलाम ने किसी भी याचिका पर गौर नहीं किया। तो क्यों राष्ट्रपति इस मामले पर कोई कार्रवाई नहीं करते? कब तक सिर्फ और सिर्फ रबड़ स्टेंप की तरह वो देश पर अपनी मुहर लगाते रहेंगे?

माना कि राष्ट्रपति के लिए प्रक्रिया थोड़ी जटिल है पर राष्ट्रपति चाहें तो सब हो सकता है। राष्ट्रपति किसी भी केस को लेते है और उस केस पर गृहमंत्रालय से राय मांगते हैं। कैबिनेट के साथ मिलकर गृहमंत्रालय एक रिपोर्ट तैयार करके जिस राज्य की वो घटना होती है उस राज्य से इस पर राय मांगते है। अब वो राज्य सरकार जब चाहे उस पर अपनी राय बना कर भेजे क्योंकि कोई समय सीमा इस पर निर्धारित नहीं है। और सरकारें वोट से चलती हैं इसलिए एक वर्ग को नाराज़ करके कोई भी सरकार, अपनी सरकार नहीं गिराना चाहेगा।

तो....अफजल गुरु को कोई भी सरकार फांसी नहीं देगी।

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, April 18, 2009

कांग्रेसियों, अफजल गुरू और कसाब को सरबजीत के साथ मत तोलो। केस मत लटकाओ, उन्हें लटकाओ।

वो हंस रहा है, वो मुस्कुरा रहा है, वो ठहाके लगा रहा है। आज वो भीख नहीं मांग रहा, आज वो जवाब दे रहा है। ये सब वो कर रहा है दुनिया को ये दिखाने के लिए कि उसे किसी का डर नहीं है, कैद में भी वो जी रहा है मौज में। ये सब वो वहां कर रहा है जहां पर सिर्फ उसे जिंदा रखने का खर्च लाखों में आ रहा है। वो ठहाके लगा रहा है कानून व्यवस्था पर, कानून प्रणाली पर, कानून के नियमों पर। वो इस बात पर हंस रहा है कि यहां पर एक देशद्रोही, एक आतंकवादी के ऊपर ट्रायल चलाने के लिए भी 36 पेंच हैं। वो जानता है कि वो बेवकूफ बना सकता है, तो बना रहा है। और ऐसा सब वो कर रहा है कानून के मंदिर में, वहीं पर बैठ वो उड़ा रहा है कानून की धज्जियां, हंस रहा है उसी कानून पर, ठहाके लगा रहा है।

और ऐसा भी नहीं है कि वो कोई अच्छा आदमी है। वो तो है एक ही रात में करोड़ों के मन में दहशत पैदा करने वाला अजमल आमिर कसाब

जी हां, मुंबई में बंद है कसाब नाम का वो शख्स जिसने अपने पाकिस्तान साथियों के साथ मिलकर 26/11 को मुंबई दहलाई थी। ऐसी साजिश जिसने पूरे मुल्क से लेकर दुनिया को एक नए तरीके के हमले से दो-चार कराया था। 26/11 की रात को जब उसे पकड़ा गया था तो उसे इस बात का इल्म भी नहीं था कि भारत में एक आतंकवादी को जिंदा पकड़ने के बावजूद उसे इतने आराम से रखा जाएगा। तभी तो वो सिर्फ अपने आप को मार देने की बात कर रहा था। अब तो वो अपने इकबालिया बयान से भी पलट गया। अब क्या? उसका वकील ये कहने से पीछे नहीं हट रहा है कि कसाब तो बच्चा है। शायद उस वकील को ये नहीं पता कि बच्चे कैसे होते हैं।

मेरा सवाल ये है कि ४० पेज का इकबालिया बयान जो कि मैजिस्ट्रेट के सामने दिया गया था कसाब उस से कैसे मुकर सकता है। बयान देते समय उस पर किसी भी पुलिस का दवाब नहीं था।
मेरा सवाल ये है कि क्यों उस आतंकवादी को इतनी सहुलियत देने पर आमादा है हमारी सरकार। क्या जानती नहीं है कि वो पाकिस्तानी आतंकवादी है जिसने मुंबई को एक ऐसा घाव दिया है जो कि कभी भरा नहीं जा सकता।
मेरा सवाल ये है कि कैसे कसाब इकबालिया बयान से पलट रहा है। एक तरफ तो उसने अपने मां-बाप का पता-ठिकाना सही बताया अब बयान को दबाव में बता रहा है। मां को जो ख़त लिखा था क्या वो भी भारतीय पुलिस ने दबाव में लिखवाया था।
मेरा सवाल है कि उस जैसे क़ातिल, दरिंदे को हम कैसे छोड़ सकते हैं, क्यों नहीं फांसी पर चढ़ा देते। क्यों मामले को टाल रहे हैं और कसाब को भी अफजल गुरू की तरह मौका देने की भूल कैसे कर सकते हैं।

अफजल गुरु को कांग्रेस फांसी पर नहीं लटकाएगी क्योंकि उस से हताहत होगा हमारे देश का अल्पसंख्यक समुदाय जो कि बहुत बड़ा वोट बैंक है। पर क्या कसाब को भी वोट बैंक की राजनीति में तोला जा रहा है? सरबजीत की दुहाई मत दो, वो तो अकेला है। कांग्रेसियों, अफजल गुरू और कसाब को सरबजीत के साथ मत तोलो। केस मत लटकाओ, उन्हें लटकाओ। वर्ना गर चुनाव जीते तब भी हार जाओगे।

आपका अपना
नीतीश राज

Monday, April 13, 2009

राह कठिन है डगर पनघट की


सचमुच, अभी दिल्ली दूर है। एक सीरीज क्या जीत ली कि बड़े-बड़े इरादे और वादे सामने आने लगे। माना सीरीज जीती है और एक हिंदुस्तानी होने के लिहाज से खुशी मुझे भी है। लेकिन ये बात बहुत अहम होती है कि आपने किस-किस के खिलाफ जीत दर्ज की है, उस सीरीज में था कौन-कौन? माना कि टॉप की टीमें तो थी ही नहीं। पहले (१) से लेकर छठे(६) नंबर तक कोई भी टीम हिस्सा नहीं ले रही थी। जो टीम हिस्सा ले रहीं थी उनमें से एक कि रैंक १५ (मलेशिया) और एक पहली बार (मिश्र) इस टूर्नामेंट में शिरकत कर रही थी। जो बाकी कि दो टीमें थी वो आपसे बेहतर रैंक पर थी। न्यूजीलैंड की रैंकिंग ७ और पाकिस्तान की ८ रैंकिंग थी। लेकिन दोनों टीमों ने इस बार अपने युवाओं को मौका दिया था और भारत के जोश के सामने वो दोनों ही टीमें टिक नहीं पाईं। जहां भारत की रैंकिंग १० है वहीं इस सीरीज से पहले भारत के कोच हरेंद्र सिंह ने कहा थी कि पिछले साल हमारा लक्ष्य था कि अजलान शाह के फाइनल तक पहुंचना और हम पहुंचे थे पर इस बार हमारा लक्ष्य ट्रॉफी है। ट्रॉफी के बाद उन्होंने और टीम ने कहा कि ये तैयारी २०१० के वर्ल्ड कप की है।

इस खुशी के पीछे कौन?

पर अभी भारत की परीक्षा की घड़ी तो बाकी है। यदि भारत एशिया कप जीत जाता है तो वर्ल्ड कप-२०१० में सीधे क्वालिफाई कर पाएगा। ये माना कि अपने ही घर में सौतेला व्यवहार झेल रही हॉकी टीम के लिए थोड़ा खुशी का मौका तो है ही। ये ये खुशी का मौका मिला लगातार हॉकी और लड़कों की तरफ ध्यान देने वाले कोच हरेंद्र सिंह और टैक्नीकल मैनेजर के रूप में टीम के साथ जुड़े धनराज पिल्लै के कारण। और साथ ही कप्तान संदीप सिंह के हौसलों के कारण और दलीप, प्रभजोत जैसे सीनियर्स की मेहनत। साथ ही जो एड हॉक कमेटी बनी है उसमें वो हैं जो हॉकी के लिए जान दिया करते थे। तो कैसे ना स्तर ऊपर उठता पर मंजिल अभी दूर है। याद आता है कि ऑपरेशन चक दे के कारण भारत की हॉकी को गर्क से निकाल दिया था और उस तानाशाह की तानाशाही को खत्म कर दिया था।

एशिया कप २००९

मलेशिया में ही ९ मई से १६ मई तक इस बार का एशिया कप खेला जाएगा। इस में जो टीमें हिस्सा लेंगी वो हैं- मेजबान मलेशिया और पाकिस्तान के अलावा भारत, कोरिया, चीन, जापान, बांग्लादेश, ओमान, सिंगापुर, श्रीलंका। पहली बार मलेशिया के राज्य पहांग की राजधानी कुआनतान में खेले जाएंगे जो कि कुआलालांपुर से २५० किलोमीटर की दूरी पर है। इसमें कोरिया ५वीं रैंक पर है, चीन की रैंकिंग १६, जापान की ११, बांग्लादेश की ३४, ओमान की रैंकिंग ५७ है, सिंगापुर की ४३ और श्रीलंका की ४१। तो भारत के लिए इस सीरीज में सबसे बड़ी चुनौती होंगे कोरिया, पाकिस्तान, जापान और मलेशिया। यदि २००५-०९ तक के एशिया कॉनटिनेंट के आंकड़ों पर नजर डालें तो पहले पायदान पर कोरिया और उसके पीछे भारत। जापान तीसरा, चौथा मलेशिया, पांचवां चीन, छठा पाकिस्तान का नंबर आता है। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान की टीम कभी भी कोई उल्टपलट कर सकती है।

अजलान शाह २००९

१३ साल बाद भारत ने फिर से ये खिताब जीता। अजलान शाह में भारत के इतिहास पर नजर डालें तो ये चौथी बार भारत ने खिताब पर कब्जा किया। 1985, 1991, 1995 में भारत ने जीत दर्ज की है। दो बार 2006 और पिछले साल 2008 में भारत फाइनल में जगह बनाने में कामयाब भी रहा था। पिछले साल भारत को अर्जंटीना ने मात दी थी। वैसे ये दूसरी बार है जब भारत ने मलेशिया को फाइनल में मात दी है, १९८५ में भी भारत ये कर चुका है। पिछले साल जो टीम अंतिम पायदान पर थी वो इस बार फाइनल में भारत के साथ मुकाबले में उतरी। मलेशिया को लीग मैच में भारत ने 3-0 से करारी मात दी थी और फाइनल में ३-१ से मात दी। वैसे इस साल पांच देशों ने इस टूर्नामेंट में हिस्सा लिया। भारत, मलेशिया, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, और पहली बार खेल रही मिश्र। भारत ने लीग मैचों में पाकिस्तान को 2-1 से हराकर फाइनल में जगह बनाई थी। मिश्र के साथ मुकाबला 2-2 से बराबरी पर रहा और न्यूजीलैंड को भी भारत ने 2-2 से रोक दिया। वैसे इस बार सबसे कमजोर टीम मलेशिया को ही माना जा रहा था पर घरेलू जमीन पर खेलते हुए इसका फायदा मलेशिया ने खूब भुनाया और फाइनल तक की राह पकड़ी। मलेशिया की रैंकिंग 15 है, भारत की रैंकिंग 10 है, पाकिस्तान की 8, न्यूजीलैंड को सबसे बड़ा दावेदार माना जा रहा था जिसकी रैंकिंग 7 है। पर ऐसा हो ना सका और खिताब भारत ने जीत लिया।

संदीप सिंह ने सही किया कि ये जीत उस पिता के बेटे के नाम कर दी जिसे कंधा देने के बाद लड़का फिर से देश के लिए मैदान में कूद पड़ा। जय हो सुनील।



चक दे...

आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गूगल)

Wednesday, April 8, 2009

पढ़ना तो पूरा पढ़ना, वर्ना मत पढ़ना।

‘समीर लाल जी आपकी फरमाइश’

जब भी कभी टूर से वापस लौटता तो अकसर दोस्त-यार मुझसे पूछते हैं कि क्यों कैसा रहा? हमेशा की तरह जवाब होता, बस दुआ है। पर इस बार हाल पूछने पर, ना मालूम मेरे मुंह में इन शब्दों का अकाल क्यों पड़ गया? हर बार इस जवाब को मैं टालता जा रहा था, पर जब मेरे अपनों ने मेरे दिल में छुपी आवाज़ को बाहर निकालने के लिए आवाज़ लगाई तो सोचा कि जुबानी नहीं, अल्फाज के जरिए सब को बता दूं कि आखिर मेरे अंदर कि वो आवाज़ किस तरह जख्मी पड़ी है, जो मुझे लगातार, हर वक्त, मुझे खुद से जुदा किए जा रही है।

आजमगढ़, बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद आतंक की इस जमीन को तलाशने के लिए मैं आजमगढ़ पहुंचा। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सारे आतंकी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा, ‘शम्स भाई यहां तक तो ठीक है पर हो सके तो सरायमीर या सनजरपुर नहीं जाना, दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को तो कई घंटे तक बंधक बना कर रखा, लोगों के अंदर बेइंत्हा गुस्सा है’। जाहिर है मंजिल के इतने करीब पहुंचकर मकसद से भटक मैं सकता नहीं था। आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर मैं मंजिल की तरफ निकल पड़ा।

आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरते ही एक भाई ने दुआ-सलाम के बाद सड़क किनारे दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को ग्लास देने के बाद वो मेरी तरफ बढ़ा। मेरा हाथ मेरी जांघ से उठकर ग्लास की तरफ बढ़ता इस से पहले ही तिफलू भाई बोल पड़े-‘अरे शम्स भाई को मत देना इनका रोजा होगा। क्यों शम्स भाई रोजे से तो हैं ना आप?’ इतना सुनते ही मैं मन मसोस कर और हाथ मल कर मैं रह गया।

तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। सबसे पहले हमने रुख किया गुजरात बम धमाकों के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले अबू बशर के गांव बीना पाड़ा का। गांव के प्रधान को पहले ही तिफलू भाई से खबर लग चुकी थी। जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी।
अब हम जिस घर के सामने थे वो था एक आतंकवादी का घर, गुजरात धमाकों के मास्टरमाइंड अबू बशर का घर।

कुछ पल के बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। शम्स, ये हैं बाकर साहब, अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। इधर-उधर की बातों के दौरान जितना अबू बशर को उसके वालिद के जरिए टटोल सकता था मैं टटोलने लगा। पर मगर बातचीत के दौरान ही एक ऐसा हादसा हुआ जिसे कि मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब की पीठ उनकी घर की तरफ थी जबकि मेरा मुंह ठीक उनके घर के सदर दरवाजे की तरफ था। बातचीत के दौरान अचानक १४-१५ साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते के साथ ही उस दरवाजे को वापस बंद कर देता है। सिर्फ पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का जो मंजर मैंने देखा तो उसे करीब से देखने के लिए मैं अंदर जाने को आतुर हो गया। पर सवाल ये था कि जाऊं कैसे? इस सवाल के हल के लिए मैंने तुरंत तिफलू भाई को अलग से बुलाकर अपनी ख्वाहिश बता दी।

फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात धमाकों के मास्टरमाइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था, जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने(सर की तरफ) बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव करीब आठ ईटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईटों के बीच कुछ साबुत और कुछ अधजली लकड़ियां पड़ी थी। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था।

उस घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे को भी देखना चाहते थे पर झिझक थी कि कहीं अंदर कोई महिला ना हो। तिफलू भाई ने हमारी वो परेशानी भी हल कर दो और हमें अंदर लेगए। उस कमरे में सिर्फ अबू बशर की मां ही थी। कमर या फिर कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल-फिर नहीं सकतीं। जितनी उनकी उम्र उस से भी उम्रदराज चारपाई पर वो एक मटमैली चादर पर लेटी हुईं थी।

कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। पिता को फालिज और मां का ये दर्द। अबू बशर के दोनों छोटे भाई ही घर का सारा काम-काज करते हैं और साथ ही उन चार बर्तनों में खाना भी वो ही बनाते हैं। तिफलू भाई ने घर से बाहर निकलते वक्त घर के सदर दरवाजे पर नीले रंग का एक सरकारी निशान भी हमें दिखाया। ये निशान गांव के उन घरों के बाहर लगाया गया है जो गरीबी रेखा के नीचे हैं।
दुआ-सलाम के बाद हम वहां से अपने अगले पड़ाव की तरफ बढ़ गए। अगले पड़ावों पर कुछ लोग ऐस मिले जो की सिर्फ मीडिया पर ही दोष मड़ते नज़र आए। वहां पर काफी लोग इस बात से नाराज थे कि हम आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी कैसे कह रहे हैं? मैंने विश्वास दिलाया और तत्काल प्रभाव से उस शब्द को कहीं दूर फिकवा दिया। अबू बशर के घर को तो हम बहुत पीछे छोड़ आए थे पर ना मालूम क्यों अब भी अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ पा रहा?

शम्स ताहिर खान
(एंकर और क्राइम हेड, आजतक)

(समीर लाल जी की इच्छा थी कि वो ‘आतंकवादी का घर’ पढ़ना चाहते थे। साथ ही मैं अपने सहयोगी शिवेंद्र श्रीवास्तव और सुप्रतिम बनर्जी का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने शम्स ताहिर खान के ये जज्बात छापने की इज्जात दी।)

****इस स्क्रिप्ट में थोड़ा फेरबदल किया गया है।

Monday, April 6, 2009

गर बचा सको, तो बचा लो यारों।

ऐ...ऐ...ऐ भाई....ऐ भाई, क्या सोच रहे हो, यदि यहां पर रुके तो बेकार का दिमाग खराब होगा अपनी कमियों के बार में सोचना होगा, हां, यदि यहां की राह की तो सोचना होगा। जरूर सोचना होगा कि हम क्या कर रहे हैं, दिन-ब-दिन गुजर रहे हैं और हम क्या दे रहे हैं समाज को। हम आखिर दे क्या रहे हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को। कहने को तो रहते हैं हम एक सभ्य, पढ़े लिखे समाज में पर कई बार तो लगता है कि ये बड़े लोगों का समाज हमेशा सोता ही क्यों रहता है।
यहां हर कोई आता है एक अरमान लेकर। एक अरमान, कुछ करने का, कुछ बनने का, और यहां के खोखले आदर्शों में दिवालिया हो जाता है और फिर यहां कि तेज रोशनी तो है ही उसे गर्क में डुबोने के लिए। यहां पर कानून सोता है, ऐसा नहीं कि ये सिर्फ रात में सोता है ये तो दिन से ही उबासियां लेने लग जाता है। दिन से ही हर कोने में कभी किसी की पर्ची तो कभी किसी की जेब कटती रहती है। दिन में दस रुपये और रात में कौड़ियों के भाव बिकता है कानून। विश्वास ना हो तो जाकर देख लो।
घूस के लिए सब राजी। मैं राजी, तुम राजी, तुम लेने के लिए, मैं देने के लिए, बस काम हो जाए, यानी घूस के लिए हम सब राजी। थोड़ा मैं नीचे गिरूंगा, पर काम तो हो जाएगा ना, थोड़ा ज्यादा तुम नीचे गिरोगे, पर क्या करें लोग इतना कहते हैं तो ये सब तो करना पड़ता ही है। शाबाश, हमाम में सभी नंगे हैं एक नंगा दूसरे को क्या नंगा करेगा।
नहीं..नहीं, ये डिपार्टमेंट मैं नहीं देखता आप उनसे मिल लो, नहीं ये मैं नहीं देखता, आप उनसे पूछ लो....अरे क्या भई, ये काम तो आपको उस फलां ऑफिस से करा कर लाना होगा। वहां जाओ तो पता चलता है अरे इतनी छोटी बात के लिए यहां भेजा, नहीं...नहीं ये तो वहीं होता है इस तल पर। कभी यहां भटको, कभी वहां? कह किसी से सकते नहीं, हमारे हाथ हैं ही इतने कमजोर कि करा हमसे कुछ जाता नहीं। हर तरफ कामचोरी, करेला वो भी नीम चढ़ा, सरकारी दफ्तर तो अव्वल हैं, कोई नहीं चाहता काम करना, रिएक्ट तो कर ही नहीं सकते, रिएक्शन पावर जैसे खत्म हो चुकी हो। रोड़ पर गाड़ी चलाते वक्त लड़की भी देखेंगे, मोबाइल पर बीवी से बात भी करेंगे और यदि गाड़ी कहीं भिड़ गई तो लड़ने में देर नहीं करेंगे, सारी एनर्जी, एक्शन, रिएक्शन पावर वहां ही लगाएंगे।
हर तरफ भ्रष्ट्राचार, जालसाजी, कामचोरी, घूसखोरी, नाफरमानी, आरामपसंदगी, मारपीट, खून खराबा, नियम कायदे कानून की गैरफरमानी हम लोगों की रगों में बस चुकी है। कैसे निकाले हम क्या है इसका आपके पास कोई जवाब? यदि है तो बताओ, नहीं तो यहां से ही वापस लौट जाओ पूरा पढ़ो ही मत?

अब तो संभल जाओ मेरे प्यारों,
जैसी है अभी हमारी दुनिया,
इससे अच्छी ना कर सको तो भी,
जैसी है उसे उस हाल में बचा लो,
गर बचा सको तो यारों।


हर दिन का सूरज नई आशा लेकर आता है, बस हमें प्रयास करने हैं और हो सके तो आंख खोलकर, कान खोलकर, अपना दिमाग चलाना है, तो इंतजार किस बात का, चलिए कोशिश अभी से शुरू कर लेते हैं, क्योंकि कोशिश तो सिर्फ आपको-हमको ही करनी होगी।

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, April 4, 2009

‘मैं आपसे इत्तेफाक नहीं रखता समीर जी’

समीर लाल जी,
पहली बार आप से असहमत हो रहा हूं शायद। गुलाल देखी है मैंने, जितनी आसानी से आपने इसकी समीक्षा कर दी है उतनी आसानी से नहीं बनी है ये फिल्म। अनुराग कश्यप से लेकर केके मेनन, आदित्य श्रीवास्तव, राज चौधरी, पीयूष मिश्रा, अभिमन्यू सिंह, दीपक डोबरियाल सबने बहुत मेहनत करके इस फिल्म को बनाया है। २००१ से अनुराग कश्यप के दिमाग में इस फिल्म का प्लॉट चल रहा था।
हां, मैं ये मान सकता हूं कि फिल्म का विष्य गलत है, जहां हर तरफ बंटने-बांटने की बात चल रही हो तो चिंगारी पैदा करने की जरूरत ही क्या थी। चलिए मान लिया, फिल्म में एक-दो जगह नहीं कई जगह भटकाव है और कुछ हद तक हम ये भी मान लेते हैं कि इस फिल्म के गीत, कविताओं की पैरोडी की तरह लगे।
पर तीन बातों पर शायद लोग गौर नहीं कर पाए-
सभी कलाकारों की अदाकारी,
चाहे राजपूताना नहीं बता पाई हो फिल्म लेकिन राजनीति जरूर बताती है,
फिल्म के गानों के बोल-सुभानअल्लाह।


सभी कलाकारों की अदाकारी
फिल्म के अधिकतर कलाकार रंग मंच से जुड़े हुए हैं। सबने बड़े परदे को थिएटर मानकर अपनी अदाकारी बिखेरी है। लगता है कि फिल्म एक आम आदमी, एक स्टूडेंट से जुड़ी हुई है। वो आम आदमी जिसे नंगा किया जाता है, ‘माइंड वाश’ किया जाता है और जब उसको गुस्सा आता है तो सर भी फोड़ देता है। कमर्शियल मूवी की तरह नहीं कि एक हीरो सौ आदमियों पर भारी पड़ता है और खाली हाथ-पैर से ही एक लोकेशन पर गुंडों को मार डालता है। कलाकारों ने कितने सरल अंदाज में अभिनय किया है ये इस फिल्म की यूएसपी है। किसी कॉलेज के चुनाव को लो बजट मूवी में इसी तरफ से ही दिखाया जा सकता था। चुनाव के समय रणसा का डडबाल के कमरे का दरवाजा खटखटाना और हंसना वहीं दूसरी तरफ दलीप का पीछे से आकर अपना पर्चा लगाना कलाकारी दिखाता है। कोई भी भव्य सेट नहीं है हर जगह आर्ट मूवी जैसी ही दिखती है ये फिल्म।
क्या ये लाइनें हुक्मरानों पर फिट नहीं बैठती-
इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा, उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी।
एक अमीर बाप से उन्हीं के पैसों पर ऐश करते बेटे की मुंहजोरी-
मुझे अमर चित्रकथा में नहीं जीना।

चाहे राजपूताना नहीं बता पाई हो फिल्म लेकिन राजनीति जरूर बताती है
‘...याद है अफगानिस्तान में नजीबउल्लाह को कैसे चौराहे पर लटकाया था...’।ये डायलॉग केके मेनन के थे जब कि रणसा और दलीप डडबाल का सर खोलकर आते हैं।‘नहीं बना...डडबाल ने नजीबउल्लाह वाली बात का बदला लिया था’। रणसा के क़त्ल से कैसे जोड़ते हैं इस बात को बहन और भाई। बिल्कुल घाघ राजनीति दिखाई गई है। पता ही नहीं चलता कि कब क्या हो रहा है और क्यों? एक उच्च कोटी की राजनीति को दर्शाती है ये फिल्म।

फिल्म के गानों के बोल-सुभानअल्लाह।
मैं आपकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं कि-‘गीतों के नाम पर कविताओं की पैरोडी और उन पर झमाझम नाचती, बल खाती बाला.पियूष मिश्रा के गीत पर-जैसे दूर देश के टावर में घुस गयो रे ऐरोप्लेन’।
इस फिल्म में आठ गाने हैं और सभी पीयूष मिश्र ने लिखे है और कुछ गाए भी हैं। किसी दूसरे गाने के बारे में बात क्यों नहीं।
आरंभ है प्रचंड...वीर रस की कविता है। मेरा कुछ सामान...भी एक कविता ही थी जिसे गाने का रूप पंचम दा ने दिया था। और पीयूष मिश्र के गानों में नुक्कड़ संगीत वाली बात भी रहती है क्योंकि वो ज्यादा लोगों को मौका देने की फिराक में रहते हैं। साथ ही कई गानों में तो जैसे ऐसी सज़ा देती हवा तन्हाई भी तन्हा नहीं...इसमें पूरे वेस्टर्न म्यूजिक का इस्तेमाल किया गया है मतलब वादयंत्रों से है। ओ री दुनिया...गाने के शब्द इस दुनिया पर तमाचा मारते हुए लगते हैं साथ ही इस गाने में मुख्य रूप से तबला और हारमोनियम पर गाना बनाया है, आज के म्यूजिक डायरेक्टर बनाए तो जरा। रात के मुसाफिर...गाना नहीं लगता है अपने में ही एक आदमी को चुनौती देता सा लगता है कहीं दूर बैकग्राउंड में गिटार बज रहा है वो भी धीरे-धीरे। जब शहर हमारा सो गयो थो...ये ट्रडिशनल सांग की तर्ज पर बना हुआ लगता है। रणसा की मौत के समय पर ये गाना लगाया गया था और जब भी गाना सुनोतो दृष्य याद आ ही जाता है।यारा...मौला...ये गाना एक फास्ट नंबर है और इसके बोल एक कॉलेज के लड़के की विपदा को पूरा बताते हैं...फिर वो आए, भीड़ बनकर, हाथ में थे उनके खंजर, बोले फेंको ये किताबें, और संभालो ये सलाखें...इस गाने के अंत में...अब हमारे लगा ज़ायका खून का अब बताओ करें तो करें क्या...पढ़ने लिखने वाला छात्र खंजर हाथ में उठा ले तो उसको ये सवाल करने का हक मिल जाता है कि जिन्होंने भी बरगलाया उसको बेहतर है उनसे ये सवाल पूछ ले, ना मिले जवाब तो खुद से पूछ ले। अभी तक इसमें मैंने उस फूहड़ गाने का जिक्र नहीं किया है जो कि बीड़ी जलाईले की तर्ज पर बनाया गया था।

मेरे लिहाज से तो इस फिल्म में ये खूबियां थी जो मैंने देखी।

मैं जानता हूं कि समीर जी के खिलाफ जाने का मतलब है अपने लिए मुसीबत मोल ले लेना लेकिन ये मेरी राय है इस फिल्म के बारे में।

खोने की जिद्द में ये क्यों भूलते हो कि पाना भी होता है....।

आपका अपना
नीतीश राज
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”