ऑफिस से घर पहुंचने की जल्दी, घर के रास्ते पर गाड़ियों का शोर और जगह-जगह से उड़ती धूल। रास्ते में बस...किसी कार....या थ्री व्हीलर का बिना बात बजता हॉर्न, बार-बार बजता हॉर्न लगता कि क्या चालक बहरा है या हमें बहरा समझ रखा है या हमें बहरा करने पर तुला हुआ है। आंखें घर तक पहुंचाने वाली बस के इंतजार में, अपनी उस बस के इंतजार में दूर तक देखती मेरी नजर। पर लगता है कि फिर बस का इंतजार करना व्यर्थ हो जाएगा....इतनी भरी होगी कि चढ़ ही नहीं पाऊंगा। यदि बस टाइम पर आ जाए और मिल जाए तो तीन-चार चेंज करने से बच जाता हूं। पर अब समय बर्बाद करने से बेहतर है कि मेट्रो से चला जाए करेंगे चार बार कसरत।
मेट्रो से मुझे तो ये ही अच्छा लगता है कि सफर कब खत्म हो जाता है पता ही नहीं चलता। जब तक संभलते हैं तो पता चलता है कि आपका गंतव्य आगया। पूरा पसीना सूख गया पर अब शुरू होगी घर तक पहुंचने की जंग। धूल-हॉर्न-चिल्लाहट-धूप-उमस-पसीना-गंदगी और पता नहीं क्या-क्या सब से होगा सामना, वो भी एक साथ। धूप इतनी रहती है पर फीडर बस वालों से लड़ों नहीं तो चलेंगे नहीं। देखो, सभी तो बस के अंदर भिच कर बैठे-खड़े हुए हैं। मैं नीचे ही रहता हूं धूप झेल लूंगा पर पसीना-गर्मी नहीं। ये देखो हम धूप में खड़े हुए हैं और ड्राइवर-कंडेक्टर छांव में हंसी-ठिठोली कर रहे हैं। चलो आज मुझे नहीं जाना पड़ा और कोई गया है लड़ने के लिए। भइया दोनों को लेकर ही लौटना। चलो फतह मिली उठ कर आ तो रहे हैं।
कई बस बदल लेने के बाद अपने अंतिम गंतव्य तक पहुंचने के लिए ऑटो की तरफ बढ़ा।
‘अरे, तुम ही तो थे ना भइया कल भी’।
मैंने उसके जवाब का इंतजार भी नहीं किया और बैठ गया।
‘जी साहब, कल मैं ही था। वहीं छोड़ूं ना जहां पर कल छोड़ा था’।
'भइया मेरा घर उसी सोसायटी में ही है तो वहीं छोड़ोगे ना कहीं और क्यों जाऊंगा मैं'।
’नही, नहीं साहब, कहीं सब्जी वगैरा तो नहीं लेने जानी मैं तो ये ही पूछ रहा था। चलिए छोड़ देता हूं यदि बुरा लगा हो तो साहब, ‘सॉरी’।’
ऐसी बात तो थी नहीं कि इसे सॉरी बोलना पड़े। मुझे लगा मैंने बेकार ही इस बेचारे का मन दुखा दिया, उस सवाल का जवाब ‘हां’ में भी तो दिया जा सकता था पर आजकल मैं क्यों जल्दी इरिटेट हो जाता हूं।
मैं पसीने में पूरा तरबतर थ्री व्हीलर में लग रही हवा से काफी राहत महसूस कर रहा था। ओह हो....रेडलाइट भी अभी होनी थी अब जाकर थोड़ी हवा लगने लगी थी पसीना सूखना शुरू हुआ ही था कि ब्रेक लग गया। ऑटो वाले ने ऑटो बंद कर दिया।
सिग्नल ग्रीन होने पर ऑटो वाले ने स्टार्ट किया तो पहली बार में नहीं हुआ, दूसरी बार फिर नहीं हुआ। पीछे से पों...पों...पों....पीं...पीं....पीं...लोगों ने बुरा हाल कर दिया। कुछ कार वाले बगल से निकलते वक्त गाली देते हुए निकले। रेड लाइट पर गाड़ी रुकने की गंभीरता को समझते हुए तुरंत नीचे उतरा और उसके साथ मिलकर धक्का लगाने लगा। कोने में ऑटो को करवा कर उसमें बैठ गया। जितना पसीना सूखा था उससे दोगुना निकल गया। ऑटो भी स्टार्ट हो गया और हमने उसी ग्रीन लाइट को समय रहते पार भी कर लिया।
ऑटो को दोबारा शुरू करने में महज एक मिनट भी नहीं लगा और रेडलाइट ३ मिनट की थी। फिर लोग क्यों हुए इतने बेचैन कि गालियां देते हुए चले गए, हॉर्न पर हॉर्न बजाने लगे। क्या हमारा अंदर संयम खत्म हो चुका है। इसी संयम खत्म होने की वजह से एक्सीडेंट और खून खराबा होता है। घरों में, बीवी के साथ, भाई के साथ, माता-पिता के साथ लड़ाई होती है। इसी संयम ना रखने की वजह से। क्यों हम इतने बेपरवाह हो गए हैं।
मैं घर पहुंच गया और घर पहुंचते-पहुंचते पसीने से मेरी शर्ट सूख चुकी है पर मन गीला-गीला हो रहा है क्योंकि और लोगों की तरह ही मैंने भी तो संयम नहीं बरता था।
आपका अपना
नीतीश राज
"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”
Rochak waarta.
ReplyDelete{ Treasurer-S, T }