Thursday, August 13, 2009

रात की काली चादर, वो घुप अंधेरा और वो कमरा और उसमें टिमटिमाती बत्तियां।

जब मेरे दोस्त का फोन आया तो मैं ऑफिस में काम के बीच में फंसा मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था। एक ही शहर में, एक ही दफ्तर में होकर भी महीनों हो जाते हैं मिले कुछ दोस्तों से।
हाल-चाल जानने के बाद उसने पूछा, ‘कब फ्री होगा और रात में क्या कर रहा है’।
‘9 तो बज ही जाएंगे और जहां तक सवाल रहा रात का, तो फ्री होते के साथ ही मुल्ला की दौड़ मस्जिद यानी मेरी घर।
‘तो ठीक है, भाभी को कह देना कि आज तू लेट आएगा’।
‘क्यों’?
‘अपनी सगाई की पार्टी दे रहा हूं, जिसे बैचलर पार्टी भी मान लेना....हा...हा...हा’।
मैंने थोड़ा जल्दी फ्री होना मैनेज कर लिया। एक घंटे से भी ज्यादा ट्रैफिक की पों...पों... के बीच बिताने के बाद रात 9 बजे के करीब मैं करोल बाग से जिमखाना पहुंचा। उसके अधिकतर दोस्तों को मैं पहचानता था और उनमें से एक-दो को छोड़ दें तो सभी अपने बैटर हाफ के साथ थे। हम सब में आपस में परिचय के कारण ज्यादा फॉरमेलिटी में समय बर्बाद नहीं हुआ और हम अपनी-अपनी सीट थाम, हाथ में जाम लेकर बैठ गए।

अब बस इंतजार था तो उसका जिससे हम मिलने आए थे। वो भी आईं और थोड़ी देर के लिए सब कुछ बदल गया। उसके आने की खबर पाते ही सब ने अपने-अपने कपड़े ठीक किए और सब के चेहरे और शरीर पर फॉरमेलिटी का लबादा चढ़ गया। पर थोड़ी ही देर में सब के पैरों के तले से जमीन सरक गई, सब की आंखें फटी की फटी रह गई। उस लड़की को हम सब जानते थे वो हमारे साथ ही काम करती थी।

ये दोनों....कब....कहां....कैसे....अरे विश्वास ही नहीं हो रहा....पर तुम कैसे....तुम ने कभी बताया नहीं...अरे...नहीं...ओह...आई कॉन्ट बिलीव दिस। ऐसी ही लाइन थोड़ी देर तक वहां हर किसी के मुंह से निकल रही थी। अब हमें पता चला कि क्यों वो ये राज नहीं खोल रहा था। क्योरोसिटी की हद हो चुकी थी सबने पूछा कि कैसे हुआ ये सब और हमें बताया क्यों नहीं?

दोनों ने खुलकर अपनी बात रखी और कैसे मिले और कैसे दाल गली। सब बताया और साथ में ये भी बताया कि कहीं कुछ बिगड़ ना जाए इस कारण से किसी को बताया नहीं गया। अब इस पार्टी में कोई भी गैर नहीं था किसी को अपनाने की बात नहीं थी दोस्तों के अंदर, सब अपने थे।

दिल्ली का जिमखाना क्लब बहुत बड़ा है। हम ड्रिंक जोन में थे और जैसे ही हमने एक दरवाजा खोला तो कान फाड़ू म्यूजिक को पीछे छोड़ते हुए दिल में उतर जाने वाले संगीत की महफिल जो कि मध्म रोशनी में चल रही थी वहां पहुंच गए। यहां बाहों में बाहें डाले जोड़े एक दूसरे में समा रहे थे। हम वो हॉल भी क्रॉस कर गए और फिर गलियारे में से होते हुए एक ऐसे हॉल में दाखिल हुए तो सफेद चादर से ढकी हुई काफी टेबल लगी हुई थी और खाने की भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी। वहां पर हमने बफे में खाना खाया पर किसी ने भी शायद लगता नहीं कि भर पेट खाना खाया होगा। हम में से अधिकतर तो ढाबे पर बैठकर बटर चिकन और तंदूर की रोटी पाड़ने वाले हैं और खास तौर पर दो पैक के बाद तो ढाबे का खाना ही भाता है। उस कॉनटिनेंटल फूड में रोटी की जगह रस के आकार की ब्रेड थी अब रोटी खाने वाले तो.....। आधे भरे, आधे से ज्यादा खाली पेट के साथ वहां से हम निकल पड़े।

बाहर आते के साथ लगा कि अभी तो रात शुरू हुई है चलो मस्ती करने चलें। पर कहां? ये सवाल हमारे सामने था। इंडिया गेट जाने से हम कतरा रहे थे, साथ ही कटवारिया सराय के पास के जंगल या फिर जेएनयू के जंगल में बारिश के मौसम में जाने से भी सब बचना चाह रहे थे। तो जाएं कहां? क्या रात भर यूं हीं सोचते रहेंगे या फिर कहीं चलेंगे। रास्ते में कार रोककर सब बाहर निकले और सिगरेट सुलगा ली। तभी एक दोस्त ने कहा चलो साकेत।

‘साकेत! वहां पर क्यों? क्या है वहां पर’? दुल्हन ने सवाल दाग दिया। जिसने रास्ता दिखाया अब जवाब भी उसे ही देना था। पब!!!!! क्या पब! जी हां पब। हुर्रे, चलो पब चलते हैं, डांस करेंगे। पर क्या एंट्री इस समय मिलेगी। ‘ये एक वाजिब सवाल है’। किसी की पीछे से आवाज़ आई। मैं तो एंट्री क्या पब के ‘प’ तक भी कभी नहीं पहुंचा था तो मैं सिर्फ मूक दर्शक की तरह सुन रहा था। फिर किसी ने कहा, ‘चलो देख लेंगे उस पब में तो मेरा मालिक से भी जुगाड़ है’। एक ने कहा, ‘पहले फोन करके पूछ लो वर्ना कुछ और सोचेंगे’। वो फोन करने में लग गया और उसकी तरफ से हरी झंडी मिलते के साथ ही हम सब अपनी-अपनी कार में बैठ निकल पड़े।
(क्रमश:)

आपका अपना
नीतीश राज

1 comment:

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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”