Tuesday, May 18, 2010

“वो पुरानी खिड़की”


वो खिड़की, मेरी खिड़की, जो कुछ पुराने जमाने की थी, वहां से सड़क दूर तक दिखती। कोई भी दूर से आता आसानी से खिड़की की सलाखों के बीच से पहचाना जाता। पूरी सड़क दिखा करती थी, हमारा घर या यूं कहें कि उस दुमंजले वाली खिड़की सड़क के साथ-साथ थोड़ी सी कर्व में मुड़ रही थी। घर को बनाते समय दादा जी ने गांठ मार ली थी कि घर की एक खिड़की सड़क के साथसाथ ही घूम जाए जिससे हम जब चाहें सतर्क हो सकें।

उस दुमंजले वाले कमरे की खाली और पुरानी हो चुकी खिड़की के पास मैं, लेटा रहता था। मेरा कूलर और एसी तो ये ही खिड़की थी। चर-चर करती चारपाई और साथ रखे लकड़ी के बड़े स्टूल (हम उसे टेबल की संज्ञा नहीं दे सकते) पर पड़ी किताबें ये ही पहचान थी मेरी और मेरे कमरे की।

खिड़की के रास्ते कोई पत्थर गर अंदर आकर गिरता तो समझो कि शंभू आ गया है। सिगरेट पीने का ये ही सिग्नल हुआ करता था। दिन में, तीन बार पत्थर इस खिड़की से अंदर आया करता था। सुबह जब शंभू काम पर जाता, फिर जब वो काम से वापस लौटता और तीसरा खाना खाने के बाद सैर करने के लिए। सिर्फ ये ही तीन वक्त थे जब सिगरेट पीने के लिए मैं बाहर निकलता और पूरे दिन का कोटा यानी चार-पांच सिगरेट खींच लेता।

शंभू काम करता था अपने बाबू जी की फेक्ट्री में। बारहवीं के बाद ही वो काम करने लग गया था और तभी से खिड़की से अंदर पत्थर आने लग गए थे। इधर मुझे इंतजार रहा करता था सुबह से शाम और फिर रात का और रात के बाद फिर सुबह का फिर....। ये क्रम यूं ही चलता रहा मैं अब भी पढ़ाई ही कर रहा था, सेकेंड ईयर में। मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे। वहीं दूसरी तरफ मेरे साथ के कई लड़के कमाने लग गए थे क्योंकि वो पढ़ाई छोड़ चुके थे।

जब कंकड़ खिड़की के रास्ते अंदर ना आए तो समझो कि नीचे नीलम है। मैं दूसरा कंकड़ फेंकने से पहले ही हाथ बाहर निकाल देता। वो समझ जाती कि मैं कमरे में हूं, ये इशारा होता था हमारा। यदि हाथ बाहर नहीं निकलता तो वो चुपचाप उल्टे पैर लौट जाती। पर जब मैं होता तो कमरे के छज्जे पर पड़ी सीढ़ी काम आती। जिसे नीलम से दोस्ती होने के बाद बड़ी मशक्कत से मैंने बनाया था। इस सीढ़ी के बारे में सिर्फ हम दोनों ही जानते थे।
 
                                                         जारी है.....

आपका अपना
नीतीश राज

3 comments:

  1. are waah apni yaadein sanjoyi hain...aur neelam ka pehla patthar na aa pana..waah dil ko choo gaya...ati sundar

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  2. धन्यवाद दिलीप।

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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”