1950-60,1970-80 के दशक में कई फिल्में आई थीं जिसमें हीरो राह भटक कर अपनी जिंदगी की राह ऐसी जगह पर ले जाता था जो उसे आम जिंदगी से दूर ले जाती है। एक ऐसी जगह जहां की राह तो आसान है पर वहां से वापसी मुश्किल। जब वो छुपते-छुपाते, भागते हुए अपने घर या फिर कहीं पैसे लेने या फिर किसी अपने के पास जाता है तो उसके आने की खबर पुलिस को मुखबिर पहले से ही दे चुका रहता है। फिर शुरू होता है चूहे-बिल्ली का खेल, चोर आगे और पुलिस पीछे। फिर हीरो एक घर से दूसरे घर छलांग लगाकर भागता है, सीटी बजाकर अपने घोड़े को बुलाता है और पुलिस की आंखों में धूल झोंक जंगल में कहीं दूर निकल अपने अड्डे तक पहुंच जाता है।
ठीक उसी फिल्मी अंदाज में तीन दिन पहले(१६ जून, २००९) भी हुआ। एक डाकू अपने कुछ साथियों के साथ एक गांव में अपने संबंधियों से मिलने के वास्ते आता है। मुखबिर पहले से ही इस बात की खबर पुलिस तक पहुंचा देता है क्योंकि उस डाकू के सर पर पचास हजार का इनाम। पुलिस रात से ही घात लगा कर बैठ जाती है। सुबह ९-१० बजे जब वो अपने रिश्तेदार के पास पहुंचता है तो पुलिस फिल्मी अंदाज में उस को ललकारती है और फिर गोलियों की आवाज़ से पूरा गांव गूंज उठता है।
दोनों ओर से मोर्चाबंदी के बीच गांव में पहले से ही उस इनामी डाकू के हमदर्द मौजूद उसे पुलिस से बचाते हैं। पर इस बीच-बचाव में मौके का फायदा उठाते हुए वो सटीक निशानेबाज डाकू फिर से पुलिस को वो आघात देता है जिस के कारण वो मई २००८ से पुलिस की हिट लिस्ट के पहले नंबर पर शुमार हो गया था जब उसने एसओजी के एक जवान को मौत के घाट उतार दिया था। पुलिस के आला अफसर मुठभेड़ को अंजाम देने में लग जाते हैं। पर वो चतुर डकैत उनको घेर लेता है तो अपने आला अफसरों को बचाने में दो कांस्टेबल शहीद हो जाते हैं। पुलिस उसे जिंदा पकड़ने की कोशिश कर सकती थी पर अब पुलिस उसे कभी भी बर्दाश नहीं कर सकती थी। पुलिस के लगभग १०० जवान उस गांव में मौजूद उस एनकाउंटर को अंजाम देने में जुट जाते हैं और साथ ही नजाकत को समझते हुए आधा दर्जन जिलों की पुलिस चित्रकूट, बांदा, हमीरपु, कौसांबी, इलाहाबाद, फतेहपुर के जवान तैनात हो जाते हैं और एसटीएफ, पीएसी और एसओजी के लगभग ५०० से ज्यादा जवान उस गांव को घेर लेते हैं। पीएसी के कंपनी कमांडर बेनी माधव सिंह और दो सिपाहियों शमीम और गनर इकबाल शहीद हो गए। इतना ही नहीं पीएसी के आईजी एके गुप्ता और बांदा के डीआईजी सुशील कुमार सिंह जख्मी हो गए।
एक दिन यानी २४ घंटे कब-कब में गुजर जाते हैं पर पुलिस इधर-उधर भागती रहती है पर उसे कोई भी कामयाबी नहीं मिलती। पुलिस के और दस्ते आस-पास के जंगल को घेरने के लिए आ जाते हैं। दूसरे दिन पुलिस का एक कांस्टेबल शहीद और आईजी, डीआईजी समेत एक दर्जन से ज्यादा पुलिसवाले घायल। जबकि पहले दिन के बाद पुलिस ने कहा था कि अगली सुबह वो डाकू नहीं देख पाएगा।
दूसरा दिन, ४८ घंटे तक इस एनकाउंटर को चलते हुए हो जाता है। जबकि पुलिस आधुनिक हथियार के साथ वहां पर तैनात और बाद में पता चलता है कि वो डाकू गिरोह के साथ नहीं एकेला है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के इतिहास में अब तक का सबसे लंबा एनकाउंटर।
चित्रकूट के राजापुर थाने के जमौली गांव के एक मकान में छुपकर डाकू घनश्याम केवट पूरे दो दिन से पुलिस से लोहा ले रहा था। पुलिस ने जहां-जहां पर वो मौजूद हो सकता था उस जगह को हथगोलों से बर्बाद कर दिया था। कई घर तबाह कर दिए गए। पुलिस बिल्कुल उसके नजदीक तक पहुंच गई और इस बार अपने एक और जवान को खो बैठी।
५०वां घंटा-फिल्मी स्टाइल से दूसरी मंजिल की छत से एक शख्स कैमरे में कैद होता है जो खुद डाकू घनश्याम केवट था। दूसरी मंजिल की छत पर मौजूद वो शख्स जुड़ी हुई दूसरी छत पर उतरता है और फिर वहां से नीचे कूद जाता है। उस छत से वो ऐसे कूदता है जैसे की सिर्फ कोई छोटी सी हर्डल हो पर वो १३-१४ फीट ऊंची छत थी जो कि वो ऐसे ही कूद गया वो भी गोलीबारी के बीच। फिर देखते ही देखते वो वहां से फरार हो गया। बिल्कुल फिल्मी अंदाज में वो वहां से लगभग १००० पुलिसवालों की आंखों में धूल झौंक कर भाग निकलता है।
ये सब हो रहा था एडीजी बृजलाल की आंखों के सामने क्योंकि इस ऑपरेशन की कमान अब मौके पर पहुंचकर उन्होंने खुद संभाल ली थी। नन्हू उर्फ घनश्याम केवट जंगल की तरफ भाग गया लेकिन पुलिस का घेराबंद इतना सख्त था कि फिर से जंगल में उसे घेर लिया गया। पहली गोली उसे जांघ पर लगी और दूसरी सीने पर और और इस तरह यूपी-एमपी पुलिस के ज्वाइंट ऑपरेशन ने दो दर्जन मामलों में नामजद डाकू नन्हू उर्फ घनश्याम केवट को खत्म कर दिया।
ऑपरेशन तो खत्म हो गया। पर इस एनकाउंटर ने उठा दिए हैं कई सवाल---
१) पुलिस के पास पूरा असला और वहीं डाकू के पास सिर्फ एक हाईरेंज राइफल फिर भी तीन दिन लग गए।
२) करीब १००० पुलिसवाले और वो एक डाकू तो क्या एनकाउंटर इतनी देर तक ही चलना चाहिए था।
३) पुलिस के जवानों को ट्रेनिंग की सख्त कमी दिखी। हमारी पुलिस को पता ही नहीं है कि कैसे ऐसी घटना से पार पाएं। वर्ना एक डाकू इतनी देर तक किसी भी पुलिस के सामने नहीं रुक सकता था।
४) क्या इस एनकाउंटर के समय सिर्फ घनश्याम डाकू ही वहां पर अकेला था कहीं ऐसा तो नहीं कि वो पूरे अपने गिरोह के साथ हो और सिर्फ अपनी जान गंवा कर अपने साथियों की जान बचा ली हो।
सबसे बड़ा सवाल उठा है पुलिस की कार्यप्रणाली पर। अगर कहीं मुंबई जैसा हमला हो जाता तो शायद यूपी पुलिस तो कुछ भी नहीं कर पाती। वो कसाब और उसके साथी एक महीने तक यूपी एसटीएफ से नहीं खदेड़े जाते और वो इनको चकमा देकर भाग जाते। और अंत में एडीजी बृजलाल ने माना कि देरी उनसे हुई और उनके पास रॉकेट लॉन्चर नहीं था।
आपका अपना
नीतीश राज
दुर्भाग्य ही है यू पी का।
ReplyDeleteभईया या तो कोई ऊपर से आर्डर आया होगा, या फ़िर पुलिस ही निककमी होगी.
ReplyDeleteएक महीना तो बहुत कम बताया है भाई आपने… कसाब की बेइज्जती मत करो…
ReplyDeleteअब जंग लगे कारतूस दोगे ओर पुलिसिया प्रणाली अंग्रेजो के ज़माने के रखोगे .हर दूसरे महीने किसी पोलिस वाले का ट्रांसफर करोगे तो यही हाल होगा ...ट्रेनिंग के नाम पर मोटी तोंद...
ReplyDeleteअब देखिये लालगढ़ की राजनीति में कितने सी आर पी ऍफ़ वाले शहीद होते है .