शनिवार को जब मेट्रो स्टेशन पहुंचा तो घड़ी सुबह के 7.40 बजा रही थी। ऑफिस के लिए थोड़ा लेट हो चुका था, सोचा कि जल्दी से ट्रेन मिलजाए तो बेहतर। जहां तक मुझे पता था कि एक 7.41 पर और यदि ये छूट गई तो दूसरी 7.50 पर है। याने कि 10 मिनट की और देरी। रविवार का दिन होने की वजह से स्टेशन पर भीड़ नहीं थी कुल 30-35 लोग होंगे। स्टेशन के बाहर मूवमेंट देखी थी, एक दो चैनल की ओबी वैन भी पहुंची हुईं थी, तो सोचा कि शायद ओपनिंग वगैरा होगी तो वीआईपी आ रहा होगा, पुलिस-सेना के जवान भी दिखे, कुछ स्कूली बच्चे भी थे।
स्टेशन की डिस्पले प्लेट बता रही थी कि ट्रेन 6 मिनट के अंदर स्टेशन पर पहुंचेगी। पर 6 मिनट गुजरने के बाद भी समय 6 मिनट ही लगा रहा पर फिर 12 मिनट हो गया। फिर अचानक ही स्टेशन के बाहर कुछ आवाज़ आई। लगा जैसे कि दो-चार पटाखे फूटे हैं फिर धुंआ-धुंआ। मेरे को समझते देर नहीं लगी कि ये मॉक ड्रिल चल रही है। और फोर्स वगैरा इसी मॉक ड्रिल का ही हिस्सा है। थोड़ी देर में एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड की गाड़ियां, हॉर्न के साथ बड़े अफसरों की गाड़ियां भी पहुंच गई। मैं सोच रहा था कि चलो इसके जरिए लोगों को ये तो पता चलेगा कि कभी आपात स्थिति आ जाए तो क्या करना होगा। ये सब नजारा मैं प्लेटफॉर्म से देख रहा था, सभी यात्री भी देख रहे थे। तभी मेरी नज़र स्टेशन की डिस्पले पर पड़ी जिसमें अभी तक 15 मिनट लिखा आ रहा था वहां पर लिखा आ गया कि मॉक ड्रिल के कारण ट्रेनें लेट हो सकती हैं। ये जब लिखा आया तब तक 20-25 मिनट बीत चुके थे। फिर एनाउंसमेंट हुई कि आज मॉक ड्रिल के कारण ट्रेनें लेट हो सकती हैं। फिर डिस्पले हुआ कि मॉक ड्रिल के कारण अभी ट्रेनें नहीं चलेंगी असावधानी के लिए खेद है। एनाउंसर भी बार-बार ये ही एनाउंस करने लगा। फिर एनाउंसमेंट हुई कि जल्दी से प्लेटफॉर्म खाली कर दीजिए, ये भी मॉक ड्रिल का हिस्सा है।
अब यहां से शुरू होती है परेशानी। पता ये चला कि अब ये मॉक ड्रिल एक घंटे तक तो चलेगी ही। मतलब साफ था कि मैं और लेट होने जा रहा हूं। मैंने तुरंत ऑफिस फोन करके इसकी जानकारी दे दी। जब हम प्लेटफॉर्म से बाहर निकल रहे थे तो कुछ लोग मेट्रो कर्मचारी से भिड़ गए। यदि ये मॉक ड्रिल का पहले से पता था तो ये एनाउंसमेंट पहले से होनी चाहिए थी जिससे समय बेकार नहीं जाता। पर पुलिस ने किसी की एक नहीं सुनी और सबको आपातकालीन रास्ते से बाहर निकाल दिया। कुछ नौजवान लड़के-लड़कियां तो बेचार गेट पर सुरक्षाकर्मियों से अनुरोध करते नज़र आए कि आज उनकी परीक्षा है और सेंटर पर ९।३० तक पहुंचना है तो कैसे पहुंचेंगे ऊपर से टिकट का किराया भी ले लिया है। पैसे वापस करने के नाम पर कुछ नहीं दे रहे हैं। ऐसे में वो बेचारे जाएं तो जाएं कहां?
सबसे बड़ी बात मुझे देखने में ये लगी कि मॉक ड्रिल बस मॉक ही होती है। इसमें कई खामियां नज़र आईं। जब आर्मी ने ये बात साफ कर दी कि स्टेशन के बाहर तीन ग्रेनेड से हमला किया गया है, तो फिर लोगों को स्टेशन से बाहर क्यों भेजा जा रहा है? जहां पर सबसे ज्यादा खतरा है साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि बाहर ही हो सकता है कोई और आतंकवादी।
दूसरी कि जब लोगों को बाहर निकाला जा रहा था तो मैं एक साइड हो गया और काउंटर के पास खड़ा हो गया। कई बार फिर मैंने आपातकाल रस्ते से जाने की कोशिश की पर मुझे रोक दिया गया। तकरीबन १५ मिनट के बाद जब किसी का मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं गया तो एक अधिकारी को बुलाकर मैंने कहा कि आपका ये अभ्यास बेकार है। उन्होंने तुरंत पूछा कि क्यों, और साथ ही वो मेरे से पूछताछ भी करने लग गए। मैने बताया कि १५ मिनट से मैं यहां पर आपकी आंखों के सामने खड़ा हूं पर किसी ने भी ये जरूरत नहीं समझी कि वो मुझसे पूछे कि मैं कौन हूं, क्यों खड़ा हू?
बाहर पहुंचा तो वो ही बच्चे अपने टिकट वापसी के पैसे का अनुराध कर रहे थे। उन बच्चों का कहना भी सही है जहां पर ये मेट्रो स्टेशन बना हुआ है वो बस स्टैंड से लगभग दो किलोमीटर दूर है। एक बार तो पैदल चल कर आया जा सकता है पर दूसरी बार वापस जाने के लिए तभी पैदल चलना बहुत मु्श्किल है ऊपर से ये गर्मी।
जब स्टेशन के बाहर निकला तो देखा कि काफी मीडिया वालों की तादाद बढ़ चुकी थी। एक अफसर अपने लोगो पर गुस्सा हो रहा था क्योंकि कई गाड़ियों के ड्राइवर गाड़ी खाली छोड़कर यहां-वहां चले गए। अधिकारी ने कहा कि यदि ऐसे गाड़ी कोई छोड़ कर जाता है तो आतंकवादी गाड़ी को लेकर भाग सकता है। यहां पर भी ढीलापन।
जहां पर आग लगी है उसको बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की गाड़ी भी पहुंची। पर ये क्या, पाइप किस रास्ते से अंदर लाया जा रहा है शायद गलत रास्ता पकड़ लिया। पानी शुरू तुरंत नहीं किया गया क्योंकि पाइप छोटी पड़ गई।
इतनी दिक्कत के बाद सवा-डेढ़ घंटे के बाद ये ऑपरेशन खत्म हुआ। यदि लोगों को पता होता तो कोई मेट्रो की तरफ कूच नहीं करता। मेरी राय तो ये है कि लोगों को पहले बताया जाना चाहिए था कि ऐसा कुछ होगा। जिससे कि जो जानना या देखना चाहता वो भी आ सकता था। ट्रेन के कारण गंतव्य तक पहुंचने में लेट नहीं होते। काफी वोलेन्टियर मिल जाते हैं इन कामों के लिए। दूसरा ये कि यदि करना ही था तो वीक डे में करते तो पता चलता कि ३०-३५ की जगह जब १५०-२०० लोगों को हेंडल करना पड़े तो क्या होता है। तीसरा, यदि ड्रिल की बात मेट्रो कर्मचारियों को पहले से पता थी तो एक निर्धारित समय के बाद से किसी भी यात्रियों को टिकट बांटने ही नहीं चाहिए थे। चौथा, इतने लूज प्वाइंट के बाद तो पुलिस अधिकारियों को अपनी सेना के बारे में जरूर सोचना चाहिए जो कि बहुत आलसी ढंग से इस ड्रिल में लगी हुई थी।
जब मैं अपनी गाड़ी लेने जा रहा था तो मुझसे कई लोगों ने पूछा कि ऐसे समय में हमें क्या करना चाहिए। मैंने उन्हें जवाब तो ये दिया कि पुलिस और आर्मी जैसे संचालित करें उस समय तो वैसा ही करना चाहिए। पर मेरा दिमाग कुछ और जवाब देना चाह रहा था। जब भी कभी ऐसा हो तो सबसे पहले ....भागो....किसी ने भी हमें ये नहीं बताया कि हम क्या करें। हमें रोक के रखा, हमारा समय खराब किया और हमें ही नहीं पता कि ऐसे समय में क्या करें।
आपका अपना
नीतीश राज
भइया इस तरह के अभ्यास परेशानी ही पैदा करते हैं.जरूरत के समय कभी काम नहीं आते।
ReplyDeletevakai aapne bahut achha likha hai....is tarah ke abhyas karne main koi samjhdari nahi hai...
ReplyDeletenihayat hi gairjimmedarana....
अभ्यास सिर्फ़ अभ्यास तक ही सीमित रह जाते हैं. अक्सर देखा गया है कि जरुरत के समय कभी काम नही आये. त्रिपाठी जी की बात से सहमत हूं.
ReplyDeleteरामराम.
आपकी बातें जायज हैं। ऐसी ड्रिल होनी चाहिए, पर जनता की सुविधाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
नीतिश जी..मैं काफी पहले से एक बात कहता चला आ रहा हूँ और अक्सर मेरे कारायाल में भी कई अधिकारियों से इसी बात पर बहस होती है..दरअसल ये सारी प्रणालियाँ पश्चिमी देशों से आयात हो कर पहुँचती हैं..मगर आयात करने वाले हमेशा ही ये भूल जाते हैं की ...ये भारत है..यहाँ सब कुछ अलग है..कम से कम उन देशों से तो निश्चित तौर पर जहां से ये प्रणालियाँ लाई जाती हैं...और रही बात ऐसे अभ्यासों की फायदे नुक्सान की तो जनता सब जानती है..कब कितना फायदा हुआ..हाँ आम आदमी की परेशानी जरूर ही एक अनिवार्य तत्त्व है ..इन सब में....
ReplyDeleteकोई खोना नहीं चाहता... हमें अपनी पड़ी रहती है.. कुछ कमिया रही होगी.. ये देखने के लिये ही तो मॉक है.. शायद कल बेहतर हो...
ReplyDeleteनितीश जी,
ReplyDeleteमोक ड्रिल मेट्रो में कभी भी बताकर नहीं की जाती. इसके लिए रविवार का दिन रखा गया, हाँ, बस सुबह दस बजे के बाद होना चाहिए था. इस समय ज्यादातर प्रतियोगी टाइप की सवारियां होती हैं.
मॉक ड्रिल सुरक्षा के लिए जिम्मेदार महकमें के लिए एक आवश्यक ड्रिल है. आप मौके पर हों न हों. आप अपना विवेक न इस्तेमाल कर पाये. शायद संयम खो बैठे मगर उन्हें तो मौके पर पहुँचना ही है और सामना संयमित ठंग से करना है ताकि आम जन सुरक्षित रहें.
ReplyDeleteअच्छा वाकया बयान किया है आपने.
ReplyDeleteमाक ड्रिल की माकरी ! :)
ReplyDeleteनीतीशजी ब्लॉग में आकर हौसला अफजाई करने के लिए शुक्रिया ,आपकी रचना पढी आम जनता की परेशानी का ध्यान कब रखा जाता है इस प्रकार की व्यवस्था में कई बार तो किसी गरीब का घर भी उजड़ जाता है ,अच्छी समस्या को सामने रखा है बधाई
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