Thursday, June 11, 2009

नस्लवाद तो कहीं है पर क्या कोई तुम्हारे घर के सामने पे... करेगा तो तुम चुप बैठोगे?

कहीं और ले गई। समय का चक्र दोनों की जिंदगी के साथ चलता रहा और फिर समय की हवा ने उन दो जिंदगियों को जवानी की दहलीज पर एक बार फिर एक ही शहर में लाकर खड़ा कर दिया। पर वो तो हवा का झौंका था एक को शहर के इस कोने और दूसरे को शहर के दूसरे कोने पर फेंक दिया। फिर समय ही दोनों को वापिस एक छत के नीचे लेकर आया और तब से लेकर आजतक दस साल पीछे मुड़ कर दोनों ने नहीं देखा। पहले से ही वो मेरे बहुत करीब था, दोस्त था पर कब भाई बन गया पता ही नहीं चला।

कल उसका फोन आया कि उसका जाना तय हो गया है। फोन पर ही पता चल रहा था कि वो बहुत खुश है। मैंने मुबारकबाद दी और पूछा कि मियां, आखिर जा कहां रहे हो? उसने बोला जिसकी तैयारी मैं इतने समय से कर रहा था। मैंने सोचा कि जो ये विदेश जाने की तैयारी कर रहा था लगता है कि इसको बाहर नौकरी मिल गई है। उसने बताया कि नतीजा आ गया है और अगले महीने की 10 तारीख को वो 'मेलबर्न' जा रहा है। वहां की यूनिवर्सिटी में एडमिशन हो गया है और करीब एक साल का कोर्स है।

चिंता तो अब शुरू होती थी। मैंने पूछा कि क्यों जा रहा है वहां अभी तो सिचुएशन वैसे भी बड़ी टेंस है? आए दिन देख और सुन रहे हैं कि नस्लवाद के जहर के कारण कोई ना कोई भारतीय वहां पर पिट रहा है। कभी किसी का सामान छीन लिया जाता है तो कभी किसी की गाड़ी फूंक दी जा रही है। घर में भी घुसकर वो लोग मारपीट कर रहे हैं। जिसका भी मन चल रहा है किसी को भी पीटने लग रहा है। कोई पीट रहा है तो दूसरे जो जानते भी नहीं हैं वो भी पटीने लग जाते हैं। साथ ही पुलिस और सरकार का रवैया भी संतोषजनक नहीं है।

कई तर्क उसने मुझे दिए और उन तर्कों के बीच कई जवाब। उसने कहा कि क्या यहां पर अपने देश में ऐसा नहीं हो रहा है? तो मेरा जवाब था कि यहां नस्लभेद के कारण ऐसा नहीं हो रहा है। वो बोला, हर जगह पर लूटपाट की वारदातें होती हैं लेकिन यदि कोई तुम से तुम्हारा सामान छीनने लगे तो क्या तुम यूं ही दे दोगे। नहीं। पर वहां पर भारतीय यहां से कैसे-कैसे करके तो जा रहे हैं उस पर कोई सामान छीनने लगे तो मारपीट तो होनी ही है। वहां के गुंडे कुछ भारी पड़ रहे हैं अब सरकार भी कह रही है कि वो सुरक्षा देगी भारतीयों को। ऑस्ट्रेलिया के स्टूडेंट को लगता है कि भारतीय कहीं कम पैसों में वो काम कर लेते हैं जो कि वो इतने कम पैसों में नहीं करते। जैसे कि दिल्ली में बिहारी कम पैसों पर काम करके उत्तरप्रदेश, हिमाचली और दिल्ली के लोगों के दुश्मन बने हुए हैं। भारतीय वहां पर कम पैसों पर काम करते हैं और वहां की नागरिकता लेकर वहीं ठहर जाते हैं, जैसे कि मुंबई में राज ठाकरे ने उठाया था बाहर के लोगों का मुद्दा।

दूसरी बात, जहां पर 4 स्टूडेंट को रहने के लिए जगह दी गई हो वहां पर 10-12 स्टूडेंट रहते हैं, क्यों? जब छड़े रहेंगे तो रात में शोर भी होगा ही, बाहर अंडरवियर में चले आते हैं, कहीं पर खड़े होकर पेशाब करने लग जाते हैं, लड़कियों को देखकर फब्तियां कसते हैं, तो कभी ना कभी वहां के लोगों का गुबार निकलेगा ही ना। उसने मुझ पर ही सवाल दाग दिया कि यदि तुम्हारे घर के पीछे या फिर पार्क में कोई सरेआम 'पेशाब' करने लगे तो क्या करोगे?

ये सब बातें करने के बाद मैं खुद सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या जो ऑस्ट्रेलिया में हो रहा है वो सही है? जहां तक मैने सोचा या यूं कहूं कि जिस नतीजे पर मैं पहुंचा वो ये था कि चाहे जो भी गलतियां भारतीय वहां पर कर रहे हों पर उस कारण से मारपीट करना वाजिब नहीं है वो गैरकानूनी है। यदि हम अपनी काब्लियत की बदौलत कोई नौकरी पाते हैं और कम पैसों पर काम करने का पैमाना तो सबका अलग-अलग होता है। भारत और ऑस्ट्रेलिया के प्रति व्यक्ति आय अलग-अलग हैं। हम कम पैसों में भी काम कर सकते हैं आप नहीं कर सकते तो ये आपकी प्रोब्लम है हमारी नहीं। हम उसी डिग्री के लिए ज्यादा खर्च करते हैं जिसे आप काफी कम पैसों पर पा लेते हैं।

वैसे ऑस्ट्रेलिया में सीनियर्स से बात हुई है वो कह रहे हैं कि थोड़ी बहुत दिक्कतें तो आती ही रहतीं थीं पर अब कि बार वो कुछ ज्यादा ही सामने आगईं हैं। कोई डरने की बात नहीं है बाकी ऑस्ट्रेलिया में सब ठीक है। हमारी तो यही दुआ है कि जल्द ही ये नस्लवाद का काला चक्र खत्म हो।

आपका अपना
नीतीश राज

5 comments:

  1. ये गोरे भारत में लगभग डेढ़ सौ साल बिन बिलाए महमान रह चुके हैं, और ये यहां खुले में पेशाब करने या लड़कियों को घूरने से कहीं अधिक वीभत्स कृत्य कर चुके हैं। इस बात को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए।

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  2. भाई आप ने बहुत सही लिखा,दुसरा कारण हम भरतीया अपने बास को भगवान समझते है, बस यही सब बाते है जो गलत है बस इस से ज्यादा कुछ नही कहुंगा, क्योकि आप ने सब लिख दिया.
    ओर बहुत सही ओर अच्छा लिखा

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  3. सहमत हूं आपसे।

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  4. "हमारी तो यही दुआ है कि जल्द ही ये नस्लवाद का काला चक्र खत्म हो।"

    इसके सिवा और कोई चारा भी तो नही है।

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पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”