"MY DREAMS" मेरे सपने मेरे अपने हैं, इनका कोई मोल है या नहीं, नहीं जानता, लेकिन इनकी अहमियत को सलाम करने वाले हर दिल में मेरी ही सांस बसती है..मेरे सपनों को समझने वाले वो, मेरे अपने हैं..वो सपने भी तो, मेरे अपने ही हैं...
Tuesday, September 30, 2008
कितनी ही कोशिश कर लो, पर दिल्ली झुकने वाली नहीं दहशतगर्दों।
कुछ भी कहें पर महरौली ब्लास्ट ने एक १३ साल के मासूम की जान लेली साथ ही एक नौजवान की भी। वो १३ साल का मासूम वो ही बच्चा है जो कि पॉलीथिन गिरने पर उसने उठाया था और उन आतंकवादियों को भईया संबोधित करते हुए कहा था कि आपका सामान गिर गया है। उस बेचारे मासूम को क्या पता था कि वो शब्द उसकी जिंदगी के आखिरी शब्द होंगे। साथ ही जिनको वो भईया बोल रहा है वो देश के दुश्मन हैं। उस नौजवान के पिता जो कि इस ब्लास्ट की भेंट चढ़ गया वो कहते हैं कि आतंकवादियों को सड़क पर गोली मार देनी चाहिए। वो एक मुस्लिम पिता की आवाज़ है। उसमें कोई धर्म नहीं, कोई जात नहीं, कोई राजनीति नहीं, सिर्फ छुपा है तो एक पिता का दर्द।
पुलिस ने भी जल्द ही खून के धब्बे धो डाले। ये बात हज्म नहीं हुई। पुलिस को लगा होगा कि शायद लोग दहशत से उबर जाएं, वरना खून दिखता रहेगा तो याद उतनी ही ज्यादा रहेगी। लेकिन फोरेंसिक टीम को नमूने क्यों नहीं लेने दिए। बहरहाल शिवराज पाटील जी ने अब मुंह खोलने से ही इनकार कर दिया है। अच्छा है वरना रटारटाया बयान फिर सुनने को मिलते। बीजेपी के सीएम इन वेटिंग विजय कुमार मल्होत्रा ने तुरंत आनन-फानन में महरौली का रुख किया। मुझे मेरे कुछ रिपोर्टरों ने बताया कि पुलिस से लेकर आम लोग भी नहीं चाहते कि ऐसे मौके पर तुरंत किसी भी वीवीआईपी का दौरा हो। पुलिस अपना काम छोड़कर उनकी तिमारदारी में लग जाती है। खुद नेताओं को भी सोचना चाहिए। साथ ही नेतागण ये भी सोचें कि क्या बोलना है और क्या नहीं तो बेहतर ही होगा। सभी के पीछे पुलिस नहीं लगाई जा सकती पर ये समय नहीं है कि ऐसी लाइनें बोली जाएं।
ये दहशत फैलाने की कोशिश लगातार जारी है, फरीदाबाद में भी बम जैसी वस्तु मिली। जानबूझकर बरगलाने के लिए फोन किया जाता है।बार-बार कॉल किया जाता है। कभी कहीं से तो कभी कहीं से, कहीं के लिए कॉल। पुलिस भी परेशान हैं। लेकिन ये आतंकवादी नहीं जानते कि ये दिल्ली का दिल है जो ऐसे धड़कना बंद नहीं कर सकता,पर डर तो लगता है ही, वो भी खत्म हो जाएगा। कितनी ही कोशिश कर लो, पर दिल्ली झुकने वाली नहीं दहशतगर्दों।
आपका अपना
नीतीश राज
Monday, September 29, 2008
“बाटला के L-18 का सच, अर्द्धसत्य नहीं, पूर्ण सच है”
अभी कई बार पढ़ा कि लोग सवाल उठा रहे हैं कि एल-18 में जो एनकाउंटर हुआ वो फर्जी था। मैंने सबकी दलीलें सुनी हैं, साथ में ‘बड़े-बड़े’ लोगों की दलीलें भी सुनी हैं। दलीलें हैं हमने वहां पर आसपास के परिवार वालों से बातें की। जितने मुंह उतनी बातें। अब ये समझ में नहीं आता कि जब हर जगह से अलग-अलग कहानी सुनने को मिल रही हैं तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि उन सारी कहानियों में से कोई एक भी सही है। फिर पुलिस के बयान को भी एक दलील मान कर सच माना जा सकता है।
हर कोई जानना चाहता है सच। ये सच या तो सैफ बता सकता है जो कि वहां से पकड़ा गया या फिर एक शख्स और है जो असलियत बता सकता है। कुछ का मानना है कि भई, सैफ को तो वहां लाया गया था उसे कैसे पता होगा। तो जवाब है, क्यों आंखों पर पट्टी बांध रखी थी क्या सैफ ने। चलो, मान लें कि सैफ को कुछ भी नहीं पता।
उस दूसरे शख्स को पूछते हैं कि भई, क्या हुआ था। वो हैं कांस्टेबल बलवंत। उस मुठभेड़ में गोली इस शख्स को भी लगी। एम्स ट्रामा सेंटर में इलाज चल रहा है। एक हाथ जो कि चोटिल हुआ वो बच पाया तो बहुत ही होगा। ये बात जो मैं बताने जा रहा हूं वो बलवंत ने किसी मीडियाकर्मी या फिर पुलिस-डॉक्टर को नहीं बताई है। ये बात उसने अपने साथ काम करने वाले एक साथी को बताई है वो भी सबके सामने नहीं बिल्कुल निजी तौर पर।
बलवंत ने अपने साथी के पूछने पर ये बताया कि पूरा घटनाक्रम कैसे-क्या हुआ बताया ही नहीं जा सकता लेकिन मोटा-मोटा क्या हुआ बता देता हूं। उन्होंने बोलना शुरू किया,
‘हम साहब(स्व.इंस्पेक्टर शर्मा) के साथ उपर गए। सेल्समैन बनें हमारे सहयोगी ने हमें कमरा-कमरे का नक्शा यानी समान कहां-कहां रखा है, हथियार दिखे कि नहीं और जो भी उसने देखा था, कम शब्दों में, सब बता दिया था। साहब आगे थे हम सब लोग पीछे, अपनी-अपनी जगह चुनते हुए, खड़े होते रहे, मैं साहब के साथ ही था। साहब ने जाते ही दरवाजे में ठोकर मारी और खोलने के लिए आवाज़ लगाई। लेकिन जब खोलने में देर होने लगी तो साहब ने दरवाजे में दो तीन ठोकरें और जड़ दीं साथ ही ‘जल्दी खोलो’ की आवाज़ भी लगाई। फिर क्या हुआ असल में समझ में नहीं आया, नहीं पता चला कि क्या हुआ। चीख चिल्लाहट के बीच गोलियां चलने लगी और उसके आगे कि तो तुम रोज ही पढ़ते रहते होगे’।
तो ये थी बलवंत की अपने साथी से बातचीत। अब और तो शायद ही प्रमाण कोई दे सकता हो। फिर और भी बातें हुईं, वो कुछ महकमे की, कुछ घर परिवार की, कुछ स्व. शर्मा जी के परिवार की।
पुलिस ने एल-18 से जो चीजें बरामद की हैं उनमें से कई चीजें ऐसी हैं जो कि इन आतंकवादियों को ओवरस्मार्ट साबित करती हैं। 900 से ज्यादा फोटों उनके लैपटॉप से बरामद हुई हैं। इन तस्वीरों में ब्लास्ट की तस्वीरें हैं। कुछ वीडियों भी मिले हैं जो कि ब्लास्ट के तुरंत बाद के हैं। उन तस्वीरों में कुछ तो वो हैं जैसे कि मणिनगर में साइकिल की जिसमें कि शकील और जिया ने बम लगाया था। उन सभी कारों की तस्वीरें हो जो कि अहमदाबाद में उपयोग की गईं। बम और टाइमर कार के अंदर प्लांट करते हुए की तस्वीरें हैं। कार के अंदर बम रखा हुआ है, फोटो पर समय बता रहा है शाम के 5.45 और फिर दूसरी तस्वीर भी वहीं कि ब्लास्ट के 5 मिनट बाद की 6.25। साथ ही ऐसा करते हुए इनको लगता था कि पुलिस हो या स्थानीय लोग इन्हें मीडिया का समझेंगे कोई भी हाथ नहीं लगाएगा। इसके अलावा और क्या सबूत दें। और लीजिए सबूत। ये सब फोटो और वीडियो सीडी और मेल के साथ एटैच करके भेजी जाती थीं। देखिए हमने कितने अच्छे ढ़ंग से काम को अंजाम दिया है। कई-कई सिम और ब्लास्ट के बाद और पहले भी एक ही सिम पर कॉल किया गया।
जैसे ही पुलिस को टिप मिली थी इन लड़कों के बारे में जो कि एल-18 में रहते हैं तो उस दिन से ही इनका फोन सर्विलांस पर लग चुका था। पुलिस ने इनकी बातें सुनीं। इनके कारगुजारियों के किस्से भी सुने। लेकिन कभी भी बातचीत में इन्होंने हथियार के बार में जिक्र नहीं किया। ये ही कारण था कि स्व. इस्पेक्टर शर्मा बिना किसी लाइफ गार्ड के दरवाजा खटखटाने चले गए।
सब ये सोच जरूर रहे होंगे कि शकील, जिया और साकिब रो क्यों रहे थे। पुलिस की मार से या क्या कारण था। स्पेशल सेल ने उनको अहमदाबाद ब्लास्ट और बैंगलोर ब्लास्ट के साथ-साथ दिल्ली के दर्द की तस्वीरें भी दिखाईं हैं। इन तस्वीरों को देख कर वो अपने को माफ नहीं कर पा रहे हैं। अब वो बताते हैं कि उन्हें तो मुंबई के दंगों, बाबरी मस्जिद, गोधरा के दंगों की तस्वीरें दिखाई हैं। बोला गया उनको तकरीरें दी गईं हैं और कई न्यूज चैनलों की वो स्टोरी दिखाई गईं हैं जो कि ब्लास्ट के बाद किसी मुस्लिम परिवार पर कवर की गईं थी। वो बताते हैं कि हमें तो कभी रॉ सामान नहीं मिलता था। हम से कहा जाता कि ये सामान वहां रखकर आ जाना है। सिर्फ रखने का झंझट रहता था और वो भी पहले से ही तयशुदा रहता था कि कैसे-क्या करना हैं।
आधा सच जानकर ना जाने ये नौजवान क्यों बहक जाते हैं। पूर्ण सच की तलाश कठिन तो होती है पर नामुमकिन नहीं। लेकिन सच सच ही होता है उसमें से ना घटाया जा सकता है और ना ही उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आने के बाद कुछ सच और सामने आएंगे।
आपका अपना
नीतीश राज
Saturday, September 27, 2008
क्या हैं हम, SOFT NATION या WEAK NATION? पार्ट 2
इस कड़ी में अब बात दूसरे नेशन रूस की। रूस के मॉस्को में 23 अक्टूबर 2002 की एक शाम। मॉस्को में शहर के सबसे बड़े थिएटर में गीत संगीत से भरी शाम अपने पूरे रंग में थी। करीब 850-900 के करीब लोग वहां मौजूद थे। तभी रात के 9।00 बजे करीब 42 चेचन्य आतंकवादी वहां आते हैं और पूरे थिएटर को अपने कब्जे में कर लेते हैं। करीब 90 लोग भागने में सफल हो जाते हैं। दो दिन बाद 150-200 लोगों को आतंकवादी छोड़ देते है जिनमें औरतें और बच्चे शामिल। उन चेचन्य आतंकवादियों की मांग थी कि सप्ताह भर के भीतर चेचन्य में से रूस अपनी सेना हटा ले और चेचन्य को आजाद कर दे। काफी लोगों ने मध्यस्थ की भूमिका निभानी चाही पर वो सब बेकार। सरकार ने ये फैसला भी किया कि चेचन्य से अपने सैनिक हटा लिए जाएंगे पर समय बहुत कम था। वहीं कमांडो अपनी जगह ले चुके थे। 26 अक्टूबर 2002 को फौजी कार्रवाई से पहले सरकार ने संदेश इन विद्रहियों को भिजवाया---
“हमें नहीं पता कि कितने आतंकवादी थिएटर में मौजूद हैं और उनके पास कौनऔर हुआ भी ये ही सभी विद्रोही मार दिए गए। साथ ही करीब 150 बंधकों की भी मौत हुई। जबकि ऐन हमले से पहले कुछ बंधकों ने फोन पर ये जानकारी दी थी कि,
से हथियार हैं, हमें ये भी नहीं पता कि वो हमारी जनता के साथ कैसा सलूक कर रहे हैं।
हमें तो सिर्फ ये पता है कि एक भी विद्रोही थिएटर से जिंदा बाहर नहीं निकल
पाएगा”
'विद्रोही उनको कोई भी हानि नहीं पहुंचाना चाह रहे ये तो हमारी सरकार है जो कि हमें यहां से जिंदा नहीं निकालना चाहती और थिएटर में जहरीली गैस छोड़ रही है’।
बाद में पुतिन सरकार को बहुत भला-बुरा कहा गया, वहां पर भी राजनीति खूब हुई। पुतिन सरकार पर आरोप भी लगे और एक वक्त तो ये आया कि शायद पुतिन हिल जाएंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। लोगों ने फिर दूरदर्शिता को देखते हुए सरकार का साथ ही दिया।
क्या इस तरह के फैसले भारत सरकार ले सकती है?चाहे किसी की भी दल की सरकार हो। यदि रुबैया अपहरण कांड में सरकार ने सटीक फैसला ले लिया होता तो शायद आज देश का हर हिस्सा महफूज होता।
कई दिनों से ये बहस चल रही है कि हम क्या हैं एक Soft Nation या फिर Weak Nation। लेकिन इन दो उदाहरण से ये साफ जाहिर होगया होगा कि हम क्या हैं। Soft Nation रूस भी है पर वो Weak Nation नहीं है। पर हम Soft Nation के साथ साथ Weak Nation भी हैं। जब ही आतंकवाद सर चढ़कर बोल रहा है।
अगली बार भी नजर डालेंगे भारत सरकार और विदेशी सरकारों के रुख पर जो हमें एहसास कराएगा और बताएगा कि हां, हम Soft नहीं Weak Nation हैं।
आपका अपना
नीतीश राज
Friday, September 26, 2008
क्या हैं हम, SOFT NATION या WEAK NATION?
आतंकवाद का आतंक हमारे देश में सर चढ़कर क्यों बोल रहा है? हर बार बैठकों का दौर शुरू होता है और नतीजा वो ही ढाक के तीन पात। फैसले ऐसे कि जिस पर अमल करते हुए आज भी आतंकवाद हमारे सर पर चढ़कर नाच रहा है। देश की जनता हमेशा ही डर के साए में जीने को मजबूर है। आतंकवाद का ये दानव हमारे देश में इतना क्यों और कैसे फल फूल रहा है इसका जवाब शायद है भी हमारे पास ही। हमारे पुराने उदाहरण इस बात के सबूत रहे हैं जो आतंकवाद को बढ़ावा देते से लगते हैं।
आपको याद होगा 1989। वो काला साल जब कि आतंकवाद के खिलाफ हमने पहली बार घुटने टेके थे। पूरे देश और विश्व की नज़र हम पर टिकी थी कि हम कैसे उस वारदात से निपटते हैं। ऐसा नहीं था कि इस से पहले देश में आतंकवाद का नामोनिशान नहीं था। पर ये वो वाक्या था जब हमारी सरकार ने लड़ने का हौसला छोड़ कर के आतंकवादियों के नापाक इरादों के सामने घुटने टेक दिए थे।
8 दिसंबर 1989, दोपहर के लगभग चार बजे, मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद को उनके घर से महज 500 मीटर की दूरी पर जब कि वो अस्पताल(जहां वो इंटर्नसिप करती थीं) से वापस आते हुए किडनेप कर लिया गया। चार आतंकवादियों ने इस वारदात को अंजाम दिया था। पूरे देश में हड़कंप मच गया। वीपी सिंह की सरकार थी उस समय और सरकार में देश के गृहमंत्री की एक बेटी रुबैया सईद का अपहरण देश की सुर्खियां बटोरने लगा। अपहरण के लगभग दो घंटे के भीतर ही आतंकवादी संगठन कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट अपनी शर्ते रख देता है। जेकेएलएफ के एरिया कमांडर शेख अब्दुल हमीद समेत पांच खुंखार आतंकवादियों को छोड़ने की मांग करता है जिनके नाम थे गुलाम नबी बट, नूर मोहम्मद कलबाल, मुहम्मद अल्ताफ और जावेद अहमद जांगर। देखते ही देखते श्रीनगर में सरकार पहुंचने लगी। कश्मीर का अवाम बहुत गुस्से में था कि कैसे कोई अविवाहित लड़की को अगवा कर सकता है साथ ही लोगों का मानना था कि ये इस्लाम और कश्मीरियत पर हमला है। फारुक अब्दुल्ला उस समय लंदन में छुट्टियां मना रहे थे। तुरंत देश लौटे और फिर कई लोग आतंकवादियों से वार्ता करने के लिए सामने आए। चाहे वो वेद मारवाह हों या एबी गनी लोन की बेटी शबनम लोन या फिर इलाहाबाद हाई कोट के जज मोती लाल भट्ट।
5 दिन बाद 13 दिसंबर की सुबह लगभग 3.30 बजे दो केंद्रीय मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और मोहम्मद खान श्रीनगर पहुंचे। फारुख अबदुल्ला नहीं चाहते थे कि आतंकवादियों की मांग को माना जाए। पर सरकार झुक गई और शाम 5 बजे सरकार ने सभी पांचों आतंकवादियों को छोड़ दिया और ठीक दो घंटे बाद शाम 7 बजे रुबैया सईद को छोड़ दिया गया। इस पूरी वारदात के पीछे जिस शख्स का नाम सामने आया था वो था यासीन मलिक। जो कि आज भी भारत में रहकर के पाकिस्तान का पैरोकार बना हुआ है।
यदि उस दिन सरकार ने ये सौदा नहीं किया होता तो शायद आतंकवाद का ये रूप हम आज नहीं देख रहे होते। वो पहली नाकामयाबी थी हमारी सरकार की आतंकवाद के खिलाफ। वो आतंकवादी छोड़ दिए गए जिन्होंने सैंकड़ों को मौत के घाट उतारा था और उन्हें पकड़ने में ना जाने कितने ही हमारे फौजी शहीद हुए थे। उस समय वीपी सिंह की सरकार को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ था। इसी तरह का गुल कुछ सालों बाद बीजेपी सरकार ने भी खिलाया था। उसके बारे में भी बात करेंगे। बीजेपी ने वीपी सरकार से समर्थन वापस लिया था। लेकिन इस मुद्दे पर नहीं। उसने समर्थन वापस लिया था रथ यात्रा पर निकले बीजेपी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी की बिहार में गिरफ्तारी पर। शायद बीजेपी के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था हिंदुत्व के वोट बैंक की राजनीति ना कि आतंकवाद।
कई दिनों से ये बहस चल रही है कि हम क्या हैं एक Soft Nation या फिर Weak Nation। लेकिन इन दो उदाहरण से ये साफ जाहिर होगया होगा कि हम क्या हैं। Soft Nation रूस भी है पर वो Weak Nation नहीं है। पर हम Soft Nation के साथ साथ Weak Nation भी हैं। जब ही आतंकवाद सर चढ़कर बोल रहा है।
अगली बार भी नजर डालेंगे सरकार के रुख पर जो हमें बताता है कि हां, हम Soft नहीं Weak Nation हैं। और साथ ही उने देशों पर भी जो कि Soft तो हैं पर Week नहीं।
आपका अपना
नीतीश राज
Wednesday, September 24, 2008
लीजिए, हम और Corrupt Nation हो गए
हमारी इस दशा का जिम्मेदार कौन? यदि ये सवाल उठाया जाए तो हाल फिलहाल में संसद कांड याद आता है जिसे पूरी दुनिया में देखा गया था। जिसका नतीजा एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए सर्वे में सामने आया कि दुनिया में भारत भ्रष्टाचार के मामले में भारत की छवि और नीच गिर गई है। इस सर्वे को जिन बातों में ध्यान में रख कर किया गया वो राजनीतिक और सार्वजनिक सेवाओं में फैले भ्रष्टाचार हैं। वैसे रिपोर्ट में किसी खास डिपार्टमेंट का जिक्र नहीं किया गया है पर दुनियाभर के साथ भारत में भी भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस विभाग ने अव्वल आकर झंडे गाड़े हैं।
अब सोचने की बात तो ये है कि क्या अगले साल हम कहीं और तो नहीं गिर जाएंगे?
आपका अपना
नीतीश राज
"मेरे दोस्त का मुझे एक कीमती पैगाम"
जिंदगी बहुत तेज चलती है और हर दिन भागता-दौड़ता हुआ सा लगता है। कई बार तो लगता है कि जीवन में सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है। सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी अब कम पड़ रहे हैं। इस भागती दौड़ती जिंदगी में उस समय ये बोध कथा, "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई? छात्रों की तरफ से आवाज आई हाँ। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी, वहां पर समा गये। फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, कि क्या अब बरनी भर गई है। छात्रों ने एक बार फ़िर कहा हाँ। अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था समा गई और बैठ गई। अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना? जी सर अब तो पूरी भर गई है, सभी ने एक स्वर में कहा। सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उन कपों की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई।
मतलब ये कि अभी भी उस जार में अंदर सामान जाने की जगह थी।
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया। इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो। टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं। छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है। अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है। अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक-अप करवाओ। टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है। पहले तय करो कि क्या जरूरी है। बाकी सब तो रेत है।
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे। अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले, मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया। इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप तो बनती ही है।
बहुत दिन हो गए कि मैं अपने एक मित्र से मिला ही नहीं हूं। जबकि पहले हम पास- पास रहा करते थे तो बहुत ही आना-जाना हुआ करता था पर अब जब से उसकी जॉब चेंज हुई और हम लोग सिफ्ट हुए तब से दूरियां रिश्तों में तो नहीं बढ़ी पर हां मिलने के दिनों में जरूर बढ़ गई। गलती मुझसे भी हुई जब भी वो मेरे को फोन करता तो मैं काम में बिजी रहता और बाद में कॉल नहीं कर पाता था। आज उसका मेल मिला। मुझे दो कप का ये ऑफर अब तक के मिले सभी ऑफरों में से नायाब लगा। तुरंत मैंने उसको फोन किया और अपनी गलती की कीमत दो प्याले चाय से दूर करने की बात कही।
आपका अपना
नीतीश राज
Tuesday, September 23, 2008
कसम खा रखी है राज ठाकरे के गुंडों ने, 'हम नहीं सुधरेंगे'
चाहे कुछ हो जाए पर हम नहीं सुधरेंगे। शायद इसी राह पर चल रहे हैं राज ठाकरे के गुंडे। एमएनएस यानी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने एक बार फिर जमकर गुंडागर्दी मचाई। एक डॉक्टर के नर्सिंग होम में घुसकर उन्होंने जमकर तोड़फोड़ की और डॉक्टर दंपत्ति को जमकर पीटा। इस बार जो एमएनएस के गुंडों के हत्थे चढ़े वो हैं मलाड के जीवन नर्सिंग होम के डॉक्टर रमेश रेलन और उनकी पत्नी सरीना रेलन। दोनों को जमकर पीटा गया और साथ ही उनके चेहरे पर कालिख बी पोती गई। वो डॉक्टर हाथ जोड़ जोड़ कर माफी की भीख मांगता रहा और वो उसे लिटा लिटा कर उस पर लात घूंसे बरसाते रहे। डॉक्टर रमेश रेलन तो चलो पुरुष हैं पर उनकी पत्नी को भी बुरी तरह पीटा गया। ऐसा लग रहा था कि आतंकवादी लोगों के हत्थे चढ़ चुके हैं और ये आज उनसे हर बात का बदला लेकर रहेंगे।
दरअसल मामला देखा जाए तो ये था कि एक महिला जिसका नाम ट्रीसा है उसने डॉक्टर पर आरोप लगाया कि डॉक्टर ने 9 महीने पहले उसका ऑपरेशन किया था। ऑपरेशन तो सफल हुआ पर उस महिला के पेट में टॉवल छूट गया। जब महिला को पेट में कुछ तकलीफ हुई तो उसने इसकी शिकायत डॉक्टर रमेश से की लेकिन डॉक्टर ने उन्हें पेट की दवाई दे दी। लेकिन महिला की हालत में सुधार नहीं हुआ। फिर महिला ने दूसरे नर्सिंग होम में चैकअप कराया जहां पर इस बात का पता चला कि उसके पेट में टॉवल छूट गया है। उस महिला ने डॉक्टर से शिकायत की पर डॉक्टर ने टालमटोली शुरू कर दी। फिर क्या था महिला पुलिस के पास जाने के बजाय सीधे पहुंच गई आज के उभरते हुए गुंडों के पास यानी कि एमएनएस। एमएनएस के कार्यकर्ताओं ने अपने ही ढ़ंग से उस महिला को इंसाफ दिलवाया। नर्सिंग होम के घुसकर डॉक्टर की जमकर धुनाई की और फिर वो ही पुरानी हरकत कालिख पोती।राज ठाकरे जानते हैं कि उनको किसी की राह पकड़नी है और मुंबई पर कब्जा कैसे करना है। साथ ही उसको किस का उत्तराधिकारी बनना है।
मलाड के डॉक्टर दंपत्ति ने जो काम किया वो सचमुच ऐसा था कि उनको हवालात में होना चाहिए था। मैं कोई उस डॉक्टर के पक्ष में नहीं हूं पर मैं इस बात का भी समर्थन नहीं करता कि कोई भी आदमी खुद जाकर इंसाफ करने लग जाए। वहशी और दरिंदों की भीड़ ने अब तक कई बार कई लोगों की जान ली है एमएनएस मुझे उस वहशी भीड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं लगती। मेरा सवाल ये है कि क्या उस महिला को पुलिस के पास पहले नहीं जाना चाहिए था? क्या बिगाड़ा था डॉक्टर रमेश की पत्नी ने जो उस के साथ भी हाथापाई की गई साथ ही उसको इतना जलील किया गया? क्या इंसाफ पाने का ये ढ़ंग सही है? माना कि डॉक्टर रमेश को पुलिस के हवाले कर दो, अंदर बंद करवा दो पर क्या ये रवैया ठीक है? घसीट-घसीट कर किसी को मारना कहां तक उचित है? एक महिला के साथ ऐसा व्यवहार करना एमएनएस की कार्यकर्ताओं को वो भी महिला कार्यकर्ताओं को शोभा देता है? एक महिला दूसरी महिला को पुरुष की मदद से पीट रही है साथ ही कभी पुरुष भी महिला पर हाथ साफ करदेता है क्या ये सही है? क्यों बनी हुई है एक महिला ही दूसरी महिला की दुश्मन, आखिर क्यों?
लोग यदि अभी नहीं संभले तो एक दिन ये एमएनएस के कार्यकर्ता किसी और बात पर खुद उन्हीं के घर में घुसकर उनको मारेंगे जिन्होंने कभी उनसे मदद ली होगी, और वो भी किसी और की शिकायत पर, क्योंकि गुंडों की राजनीति में कोई भी भाई हमेशा भाई नहीं होता।
आपका अपना
नीतीश राज
Monday, September 22, 2008
दहशत भरा मास्टरमाइंड
1993 में मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड का जो रोल था वो ही रोल आतिफ का इन दिनों हुए सीरियल ब्लास्ट में था। जैसे उस समय में साजिश रची गई थी कि किसी को कानों कान पता नहीं चल पाया था और पूरा का पूरा मुंबई दहल गया था। पूरा देश उस ब्लैक फ्राइडे को भुला नहीं पाया। फिर धीरे-धीरे देश में कुछ वारदातें ऐसी हुई जिसमें पुलिस के पास खंगालने को कुछ नहीं बचता था। पुलिस सिर्फ और सिर्फ टोह लेती रह जाती थी और आतंक के ये सौदागर देश के किसी हिस्से पर क़हर बरपा जाते। पुलिस सोच रही थी कि इस के पीछे कौन है?
दिल्ली ब्लास्ट से बेनकाब हुआ उस आतंकवादी का नाम जो कि देश में कई जगहों पर दहशत का मास्टरमाइंड था। आतिफ। दिल्ली तो दिल्ली, वाराणसी, जयपुर और अहमदाबाद में भी धमाके इसी के दिमाग का नतीजा था। ये इतना शातिर था कि ब्लास्ट के बाद के कोई भी सबूत नहीं छोड़ता था। पुलिस के अनुसार वो कहता था कि ब्लास्ट होगया यानी कि सबसे बड़ा सबूत खत्म होगया। इतनी बारिकी-बारिकी जानकारी और ध्यान वो रखता था कि कहीं भी किसी से गलती ना हो जाए। जब वो १२ लोगों के साथ अहमदाबाद २४ तारीख को गया तब वो ट्रेन से अहमदाबाद गए थे। उसने हिदायत दे रखी थी सभी को कि सब साथ तो हैं पर कोई भी आपस में बात नहीं करेगा। सब ऐसा जाहिर करेंगे कि एक-दूसरे को जानते ही नहीं। कब कौन क्या पहनेगा, धमाकों से पहले कोई सेव करवाए गा या नहीं ये भी खुद आतिफ ही तय करता था। धमाके करने में उसे सुकून मिलता था। अखबारों में सुर्खियों खून से सनी हुई वो चाहता था। तेज, चालाक, अक्लमंद, आतिफ सब कुछ अपने ही हाथ में रखता था। मतलब कमाल खुद के हाथ में रहती थी।
पूरे मॉड्यूल में यदि आतिफ सबसे ज्यादा करीबी था तो वो मोहम्मद शकील के। शकील ने इकबालिया बयान में कहा है कि आतिफ से कोई मेल पर बातें करता था जिसे की आतिफ बहुत ही पढ़ा लिखा शख्स मानता था। लेकिन कौन था वो आदमी और कहां से मेल आते थे वो नहीं जानता। आतिफ इनको अपने नौकरों की तरह ही रखता था। जभी वो कुछ भी इन लोगों के साथ शेयर नहीं करता था। सबसे कहता कि अपने काम से काम रखो। यदि आतिफ और उस अनजान का प्लान कामयाब होता तो २० सितंबर को एक बार फिर दिल्ली दहलती और इस बार जगह होती नेहरू प्लेस, वो भी एक साथ २० बमों के साथ। अब बात आतिफ के और साथियों की जो कि सारे आजमगढ़ के हैं।
मोहम्मद शकील जिस पर सबसे ज्यादा विश्वास आतिफ करता था। ये वो शख्स जो कि दूसरों को धमाकों के लिए प्रेरित करता था, सबसे ज्यादा बरगलाता था, जेहादी तकरीर देता था। सन २००० से दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था। जामिया में एम ए इकनॉमिक्स के दूसरे साल का छात्र था। आतिफ से ४ साल से दोस्ती। और अहमदाबाद के मणिनगर में साइकिल पर रखा था बम।
आतंक का एक और चेहरा सामने आया है उसका नाम है जिया-उर्र-रहमान। ये भी आतिफ का साथी। पुलिस की माने तो कंप्यूटर की पढ़ाई कर चुका ज़िया धमाकों के लिए सामान मुहैय्या कराता था औऱ दिल्ली में कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में इसी ने धमाका किया था...चार साल से आतिफ-शकील का साथ, आतिफ को सामान पहुंचाने का काम करता था, एल 18 फ्लैट दिलवाने में जिया की अहम भूमिका। जामिया यूनिवर्सिटी में बीए 3 का छात्र और साथ ही ‘ओ’ लेवल का डिप्लोमा।
अब बात पूरे ग्रुप के सबसे स्मार्ट सदस्य शाकिब निसार की। मैनेजमेंट की पढ़ाई कर चुके शाकिब ने धमाकों से पहले उन सभी इलकों का जायज़ा लिया था। इन सब पर कोई शक ना करे साथ ही यदि मकान में कोई भी कुछ पूछने आए तो शाकिब घर में मौजूद रहे। यदि पूछताछ हो तो सबके बारे में बता सके की ये सब भी घर पर थे। शाकिब के आज वाले युवाओं के सारे शौक, एमबीए का छात्र, नेट पर चैटिंग का शौक, साथ ही कई लड़कियां उसकी मित्र। वो नेहरू प्लेस में काम कर चुका था जहां पर अब इनका निशाना था। करोल बाग की रेकी शाकिब ने ही की थी।
इन सबके बारे में जो सुराग़ मिले हैं वो एल १८ में से बरामद लैप टॉप और पेन ड्राइव से मिले हैं। सबसे दुखद बात ये है कि सारे के सारे पढ़े लिखे नौजवान हैं जो कि बहक रहे हैं।
आपका अपना
नीतीश राज
आतंक का अड्डा आजमगढ़
दिल्ली में 13 सितंबर को हुए धमाकों में पकड़े गए लोगों के रिश्ते आजमगढ़ से मिले। चाहे वो आतिफ हो या फिर जिया-उर्र-रहमान या फिर शाकिब निसार। तीनों आतंक के गढ़ आजमगढ के निकले। यदि गौर करें तो ये जगह अब वाकई आतंक का अड्डा बनते जा रही है। इसके पीछे जो कारण है वो साफ है, यहां की राजनीति, युवाओं में जल्दी ही अबू सलेम जैसा अमीर बनने की चाह और साथ ही यहां के बदमाशों तक पुलिस की ढीली पहुंच या यूं कहें कि कानून का लिजलिजा पन। साथ ही यहां के युवाओं के अंदर यहां से बने डॉन की हीरो जैसी छवि। अबू सलेम ने अपने घर सरायमीर में एक शानदार कोठी बनवाई जबकि कुछ साल पहले तक उसकी हैसियत बिल्कुल मामूली थी। सलेम को मिला मोनिका का साथ और विदेश में रहने का मौका। कुछ वक्त बाद ही यहां के युवक चल पड़े अबू सलेम बनने और मुंबई पहुंचकर किसी गिरोह में शामिल होकर या तो आपसी रंजिश में मर गए या फिर शूटर बन गए और फिर पुलिस या फिर किसी डॉन के गुर्गे की गोली का शिकार बन गए। यहां से ही मुंबई में ब्लैक फ्राइडे को अंजाम देने वालों की लिस्ट सबसे ज्यादा थी। मुंबई या देश के बाहर से चल रहा हवाला कारोबार, हथियारों का जखीरा, ड्रग्स का फुलप्रुफ मार्केट बन चुका है। यहीं से दाऊद को गुर्गों की फौज भेजी जाती है साथ ही इंडियन मुजाहिद्दीन और सिमी को हाथ और हथियार।
आजमगढ़ से सिमी का रिश्ता भी बहुत ही पुराना है। सिमी का संगठन ख़ड़ा करने वाला शाहिद बद्र फलाही भी आजमगढ़ का ही था। टाडा के तहत भारत में पहली गिरफ्तारी भी यहीं से ही हुई थी। अबू हाशिम को इसी अड्डे से ही पकड़ा गया था। चंद रोज अहमदाबाद ब्लास्ट का मास्टरमाइंड अबू बशर भी तो यहीं का ही है। सिमी का ख़ौफनाक चेहरा यहां के युवकों को आतंकी वारदातों के लिए तैयार करता है। ये संगठन यहां के लोगों के दिमाग में हमेशा ही जहर भरता रहा है। साथ ही शाहिद बद्र फलाही ने जो सिमी की नीव रखी उस आगे बढ़ाते हुए अबू बशर ने नौजवानों में वो जहर भरा कि आज पूरा देश उस की चपेट में आ गया है।
वैसे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की राजनीति भी यहीं से चलती है। मायावती को जैसे ही पता चला कि आजमगढ़ पर स्पेशल सेल का कहर बरस रहा है तो मायावती ने मुलायम सिंह पर मुलायम सा क़हर बरपा दिया। साथ ही माया ने अपनी माया का मायाजाल बुनते हुए केद्र पर भी निशाना साधा। पर कहर बरपा तो मुलायम पर था पर आग हमेशा की तरह उनके सेनापति अमर सिंह को लगी। फिर शुरू हुआ गंदी राजनीति का दौर। नहीं तुम्हारे शासन में गुंडे ज्यादा फले फूले, नहीं तुमने उन्हें शय दे रखी है। आजमगढ़ पर राजनीति शुरू होगई पर किसी ने ये नहीं सोचा कि जो हुआ सो हुआ अब तो युवाओं की फौज को बचा लो। वरना ये होता रहेगा कि बाप तो राजनेता और बेटा उनसे भी दो कदम आगे आतंकवादी। एल 18 से पकड़े सैफ के पिता समाजवादी पार्टी से जुड़े रहे हैं। क्या ये राजनीति के सौदागर राजनेता उन युवकों को सहारा देने का काम करेंगे जो राह भटक गए हैं? यूपी, पंजाब और कश्मीर ना ही बने तो बेहतर।
आपका अपना
नीतीश राज
Saturday, September 20, 2008
‘लाइव एनकाउंटर-मीडिया का रोल’, अनाप-शनाप बकना नहीं चलेगा।
थोड़ी देर बाद ही बाटला हाऊस का ये इलाका जो कि जामिया नगर में आता है वर्दी वालों से पट जाता है। जहां देखो, वहां पर सिर्फ और सिर्फ वर्दी। एनएसजी के कमांडों भी मौके पर पहुंच चुके थे। जिससे पता चलता है कि मामला कितना गंभीर था। रमजान के पाक महीने में, रोजे का १८वां दिन, जुमे का दिन, खलीउल्लाह मस्जिद के पास, ये लाइव एनकाउंटर, गंभीरता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। साथ ही ये इलाका मुस्लिम बहुल। पुलिस की भी पीठ थपथपानी होगी, इतने कारणों के बाद भी वो यहां गए और आतंकवादियों को पकड़ने की कोशिश की। कुछ वक्त और निकलता है और फिर पहुंचता है मीडिया। बस शुरू होजाती है लाइव एनकाउंटर रिपोर्टिंग।
लाइव एनकाउंटर रिपोर्टिंग यहां पर थोड़ी देर पहले ये हुआ, यहां पर उसके बाद ये हुआ, हां जी, आपने क्या देखा.....और आपने.....हम इस समय उस बिल्डिंग के ठीक पीछे हैं जहां पर थोड़ी ही देर पहले एनकाउंटर चल रहा था.....सबसे पहले हम ये दिखा रहे हैं.....सबसे पहले हम...नहीं हम...हमारे चैनल ने आपको बताया....देखिए हम आप को सामने से सही तस्वीरें दिखा रहे हैं तो दूसरों का चैनल देखना बंद कीजिए और हमारा देखिए.... अरे भाड़ में गई रिपोर्टिंग पहले सेल्समैनगीरी तो कर लें।
सच क्या अंदाज था रिपोर्टिंग का। रिपोर्टिग के बीच कैसे अपने चैनल को लोकप्रिय बनाया जाए, ये कला तो कोई इन रिपोर्टर से सीखे। हम यहां सबसे पहले...सबसे तेज...और कई रिपोर्टर तो ये तक भूल गए कि वो रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वो तो प्रचार में जुट गए।
आतिर खान की रमजान लीला-स्टार के आतिर खान तो बार-बार लोगों को ये ध्यान दिलाने में लगे रहे कि ये रमजान का पाक महीना है और रोजे चल रहे हैं साथ ही आज जुमे का भी दिन है, इस बिल्डिंग के पास ही खलीउल्लाह मस्जिद है। वो शायद ये कहना चाहते थे कि रमजान के महीने में तो कभी भी आतंकवादियों की धरपकड़ नहीं करनी चाहिए थी। ऐसे समय में क्या आतिर खान को ये नहीं पता कि किस तरह की रिपोर्टिंग की जानी चाहिए। किन शब्दों का इस्तेमाल करना है और किन शब्दों से बचना ये तो इनको बेहतर जानना होगा। रिपोर्टर को तो खास तौर पर घी डालने का काम नहीं करना चाहिए। मैंने स्टार के ऑफिस में फोन कर के कहा कि इतने आदमियों के बीच में आतिर खड़ा होकर ये सब कह रहा है पब्लिक भड़क भी सकती है और सामने ही सामने लोगों ने नारे लगाने शुरू कर दिए।
थोड़ी ही देर में सभी चैनलों पर फर्जी रिपोर्टिंग शुरू हो गई। १०-२० लोगों को इक्ट्ठा करके रिपोर्टरों ने ये कहलवाना शुरू किया कि मस्जिद तो बहुत दूर है और मस्जिद का इस एनकाउंटर से कोई भी लेना देना नहीं है। आतिर का किया दीपक चौरसिया ने धोना शुरू किया। साथ ही एल १८ से मस्जिद की दूरी को भी बताया। काबिले तारीफ था ये सब। दूसरे चैनलों पर भी एहतियातन देखा कि सब पर ये शुरू हो चुका था कि मस्जिद का कुछ भी लेना देना नहीं है। लोग जुमे की नवाज अता करने जा रहे हैं और कोई भी दिक्कत की बात नहीं। दूसरी तरफ नीरज राजपूत और जावेद हुसैन सबसे पहले...सबसे पहले...सबसे पहले का राग अलापते रहे। ज्यादा स्टार देख रहा था इसलिए उसके बारे में बता पा रहा हूं। लेकिन फिर रुख मैंने सभी चैनलों का किया सभी चैनलों पर कमोबेश कुछ ये ही हाल चल रहा था। लेकिन स्टार और इंडिया टीवी ने एक साथ ये बताया कि एनकाउंटर खत्म हो गया है। जबकि ज़ी टीवी, आजतक, एनडी,न्यूज २४ सभी पर एनकाउंटर जारी ही चलता रहा। तकरीबन आधे घंटे बाद ये पट्टी उनकी ब्रेकिंग न्यूज के बैंड से हटी।
एनडीटीवी का अपना एक अलग ही स्टाइल है। एनडीटीवी के एक रिपोर्टर के पास जमायत-ए-इस्लामी के सदस्य के तौर पर डॉ इस्माइल आकर कहते हैं कि हम को विश्वास में तो लेना ही चाहिए था। क्या हम एनकाउंटर से मना कर देते। लेकिन हमें तो पता चलना ही चाहिए था। रिपोर्टर ने तपाक से कहा कि जनाब गृह मंत्रालय को नहीं पता तो आप कौन। और आतंकवादियों का कोई दीन इमान तो होता नहीं किसी को भी गोली मार सकते थे। शायद उन शख्स के ये बात दिमाग में घुस गई हो लेकिन पता नहीं। एक शख्स सामने आए और कहा कि हमें वहां तक ना जाने दें लेकिन मीडिया को तो जाने दें। कैसे और क्यों जाने दें? इस सवाल का जवाब नहीं था। लोग क्यों नहीं सोचते कि हर चीज एक साथ संभव नहीं है। मीडिया को लाइफ सेविंग जैकेट दें या खुद के लिए रखें। मीडिया के पास ट्रेनिंग के नाम पर कुछ भी नहीं है। और मीडिया के नाम पर तकरीबन १५० लोग होंगे पुलिस बल से भी ज्यादा। बेकार में सवाल करने की लोगों की आदत है। फिर एक ने सवाल उठाया कि फर्जी एनकाउंटर भी तो हो सकता है ये।
उस रिपोर्टर का जवाब था कि सन २००० में लाल किले पर हमले के बाद भी यहां पर एनकाउंटर हुआ था। इसी जगह पर दो आतंकवादियों को मार गिराया गया था।साथ ही यहां पास में ही जाकिर नगर में सिमी का दफ्तर थोड़ी ही दूर पर २००१ में दिल्ली पुलिस ने सील कर दिया था। ये थी अलग और बिना किसी लाग लपेट के निश्पक्ष रिपोर्टिंग। ये ना तो सरकार के साथ थे और ना ही अपनी धारणा बना रहे थे बस रिपोर्टिंग कर रहे थे।
एक नियम के तहत ही रिपोर्टिंग करने की इजाजत दी जानी चाहिए रिपोर्टर को नहीं तो उनपर भी बैन लगाने के बारे में सरकार को सोचना चाहिए और कदम उठाना चाहिए। लेकिन जानता हूं कि सरकार कोई भी कदम ना तो उठाएगी और ना ही उठा सकती है।
आपका अपना
नीतीश राज
दिल्ली में 'ये लाइव एनकाउंटर'
धीरे-धीरे जानकारी मिलना शुरू हुई और फिर शाम ४ बजे डडवाल जीकी प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ही खत्म हुई। फिर भी कई सवाल अनसुलझे।
पुलिस दिल्ली ब्लास्ट के बाद से ही इस कोशिश में लगी हुई थी कि उन्हें कोई टिप मिले और वो उस पर काम कर सके क्योंकि सबूत तो पूरे जुटा लिए गए थे। जैसे ही इन आतंकवादियों के ठहरने का पता चला तो स्पेशल सेल हरकत में आगया। वो नहीं चाहते थे कि इस मौके को कैसे भी छोड़ें। जिनको भी इस बारे में पता था वो सब चल दिए और पुलिस बल का बंदोबस्त पीछे से किया जा रहा था। सब को पता था कि वो बाटला में सघन तलाशी अभियान चलाएंगे। लेकिन इस तलाशी अभियान ने एनकाउंटर का रूप ले लिया। जिसमें कि दो आतंकवादी मारे गए और एक को पकड़ लिया गया। एक मारे गए आतंकी का नाम आतिफ उर्फ बशीर बताया गया, दूसरे का नाम साजिद और जो पकड़ा गया है उसका नाम सैफ है उसके पैर में लगी है गोली। और सबसे शर्मनाक ये की दो भाग गए।
तीनों के तीनों आजमगढ़ के हैं। इस जगह से एक एके ४७, दो रेगुल्यर पिस्टल, कंप्यूटर भी मिले, साथ ही काफी कागजात और नक्शे भी। दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा जो ऑपरेशन को लीड कर रहे थे उन्हें तीन गोली लगीं, तुरंत उपचार के लिए उन्हें होली फैमिली अस्पताल भेज दिया गया। दो गोली निकाल दी गई लेकिन तीसरी गोली जो कि उनके पेट में लगी थी उसने उनकी जान ले ली। ७ वीरता पुरस्कार और १५० इनाम से सम्मानित थे शहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा, उन्होंने ७५ एनकाउंटर किए जिसमें ३५ आतंकवादियों को मार गिराया और ८५ आतंकियों को कानून के शिकंजे तक पहुंचाया। एसीपी राजबीर सिंह के साथ भी इंस्पेक्टर शर्मा ने कई एनकाउंटर में हाथ बटाया था। हेड कांन्सटेबल बलवंत को भी गोली लगी थी और एम्स में उनका उपचार चला, खतरे से वो बाहर हैं।
पुलिस ने जो जानकारी दी वो बहुत ही काबिले गौर करने वाली है। अबु बशर जिसको की गुजरात से दिल्ली लाया गया उसकी निशानदेही पर ये धरपकड़ नहीं हुई। जयपुर, बैंगलोर, अहमदाबाद, और अब दिल्ली में जितने भी ब्लास्ट हुए सभी चार जगहों का जायज़ा इस आतिफ और तौकीर ने लिया था। तौकीर ने ही भेजे हैं सारी जगह पर मेल और सभी मेल खुद तौकीर ने ही लिखे हैं। इन आतंकवादियों को पकड़ने के लिए दिल्ली धमाकों के बाद से ही २२ टीमें अलग अलग काम कर रहीं थीं। तकरीबन ५० हजार मोबाइल की कॉल डिटेल निकाले गए। दिल्ली पुलिस गुजरात पुलिस के संपर्क में भी थी। वहीं पर ये आतंकवादी दिल्ली की जगहों का जायजा जुटा कर गुजरात निकल गए। १२ लोगों की टीम गुजरात गई और २४ को अहमदाबाद पहुंचे। २६ को धमाकों के बाद फिर २७ को दिल्ली वापिस आ गए। वैसे इस बिल्डिंग एल-१८ में ये आतंकी लगभग २ महीने से रह रहे थे। दिल्ली में ही बैठकर ये सारी जगहों का प्लान किया गया।
अब दिल्ली पुलिस को किसी भी अंजाम तक ले जा सकता है तो वो है पकड़ा गया तीसरा आतंकवादी सैफ। वो ही बता सकेगा कि बचकर भागने वालों में कहीं तौकीर ही तो नहीं था?
लाइव एनकाउंटर पर मीडिया का रोल अगली बार।
जारी है...
आपका अपना
नीतीश राज
(शहीद इंस्पेक्टर शर्मा को श्रद्धाजलि)
“I am selling my virginity in 7 Crore”, Want to have me?'
कुंवारेपन को वो मॉडल अपनी सबसे बड़ी 'पूंजी' बताती हैं और इस कारण ही उस मॉ़डल का भाई अपनी बहन की इस पूंजी को पाक साफ बताने के लिए अपनी मरी हुई मां की कसम तक खा रहा है।
"She's never had a boyfriend. I swear on my mother's grave. She's a devout Catholic and prays to Padre Pio every night," her brother told the magazine.
वो मॉडल हैं इटली की Showgirl और Men’s magazine की मॉडल Raffella Fico है। Raffella की उम्र महज अभी 20 साल ही है। वैसे विदेशों में माना जाता है कि मॉडलिंग के लिए 20 की उम्र ढलती हुई होजाती है। Raffella ने अपनी Virginity को बेचने के लिए जो कीमत लगाई है वो है 1 मिलियन यूरो। यानी कि भारतीय रुपय में यदि देखें तो 1 यूरो की कीमत है 65 रु.98 पैसे। यानी कि लगभग 7 करोड़।
अब कोई इन कुंवारेपन को बेचने वाली हसीना से पूछे कि वो ऐसा, कर क्यों रही हैं? तो जवाब बिल्कुल ही अटपटा, रोम में एक घर लेना चाहती हैं और साथ ही एक्टिंग सीखने के लिए एक्टिंग क्लास से जुडेंगी। साथ ही ये भी कहना है कि यदि 'ये पहला सेक्स पसंद नहीं आया तो एक ग्लास वाइन पीकर इसे भुला देंगी।'
ऐसा नहीं है कि इस से पहले किसी भी मॉडल ने अपने कुंवारेपन को ‘नीलाम’ नहीं किया हो(मैं तो इसे बेचना ही कहूंगा)। एक 18 साल की अमेरिकी छात्रा ने अपने स्कूल की फीस को भरने के लिए 1 मिलियन डॉलर में पहली बार सेक्स का सौदा किया था। और दूसरा मामला था कि एक पेरू की 18 साल की मॉ़डल ने अपने परिवार के इलाज के लिए ऐसी बात सोची थी।
कहीं मजबूरी तो कहीं वजह ऐश। ये पहली बार है कि किसी ने खुले तौर पर ऐशोअराम के लिए अपने कुंवारेपन को नीलाम करने के बारे में सोचा है। कहीं ऐसा ना होजाए कि इस तरह की सोच रखने वाली मॉडलों को लोग वैश्या समझने लगें। क्या हम इतना गिर गए हैं।
आपका अपना
नीतीश राज
(नोट--माफी चाहूंगा ऐसी तस्वीर के लिए, लेकिन तस्वीर भी जरूरी थी
साभार: telegraph.co.uk)
Thursday, September 18, 2008
सिमरन की मदद क्या कोई करेगा?
ये वही सिमरन है जो कि करोलबाग के गफ्फार मार्केट की ४२ नंबर गली में रहती है। जहां पर इन ब्लास्ट का सबसे ज्यादा असर हुआ है। बच्ची सिमरन तो आधे घंटे में दो-चार शब्दों के अलावा कुछ नहीं बोली। उसको देखने से ही लग रहा था कि सिमरन अब बड़ी हो गई है।
लोगों के लिए फोन कॉल खोल दिए गए। फोनों की तो बाढ़ सी आगई। हम बात करना चाहते हैं सिमरन से। कई लोग तो ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे। आवाज से ही पता चलता था कि गला रूंधा हुआ है। फिर हमने लोगों को समझाया कि ये कार्यक्रम जो हम आपको दिखा रहे हैं वो महज आपकी हमदर्दी पाने के लिए नहीं है, पूरे देश की हमदर्दी इस बच्ची के साथ है। पर हम चाहते हैं कि कोई इस की मदद के लिए तो सामने आए। फिर कई फोन आए कि हम सिमरन को गोद लेना चाहते हैं। फिर हमने समझाया कि गोद तो आप ले नहीं सकते क्योंकि उसका परिवार है। हम ये लगातार बता रहे थे कि कैसे सिमरन की मदद हो सकती है।
बैंक ऑफ इंडिया के करोल बाग ब्रांच में उसकी माता कमलेश और पिता अशोक कुमार का ज्वाइंट अकाउंट है। बैंक अकाउंट नंबर है-600610110000836.
सभी लोग इस अकाउंट में अपना योगदान करके सिमरन की मदद कर सकते हैं। पर उस आधे घंटे में दो-चार को छोड़कर किसी ने भी हमदर्दी के साथ मदद का भरोसा नहीं दिलाया। पर अब देखना तो ये हैं कि क्या कुछ मदद लोग कर पाते हैं इस बच्ची की।
आपका अपना
नीतीश राज
(नोट- यदि आप में से कोई भी मदद करना चाहे तो ऊपर अकाउंट नंबर दिया हुआ है।)
Wednesday, September 17, 2008
ओ ऊपर वाले, ये दर्द ना दीजो, मुझको क्या मेरे दुश्मन को भी ना दीजो
दिल्ली के साथ-साथ दिल भी दहल चुका था। पूरे ऑफिस में तरह-तरह की बातें हो रही थी। कुछ कह रहे थे कि जब दो महीने पहले हमले की जानकारी दे दी गई थी तब भी ये चूक क्यों और कैसे होगई। इस बीच विचलित कर देने वाली तस्वीरें सामने आ रहीं थी। बार-बार एंकर को ये कहना पड़ रहा था कि दिल्ली वाले धैर्य रखें साथ ही तस्वीरें विचलित करने वाली हैं। मेरे घर वालों ने जब ये खबर देखी तो उनका फोन आना स्वाभाविक था। सब ठीक ठाक है? सवाल में विश्वास छुपा था कि इस जंग में हम नहीं हारेंगे और बेटा तुम भी नहीं हारना, जहां पर भी हो भगवान तुम्हें सुरक्षित ही रखे।
वो तीनों रास्ते जहां पर बम फटे ब्लास्ट से कुछ घंटे पहले ही मैंने क्रॉस किए थे। दो रास्ते तो नियमित ही हैं हर रोज उन के पास से गुजरता हूं, पर एक रास्ता मैंने अपने मित्र के जन्मदिन की पार्टी की तैयारी करते हुए क्रॉस किया। लेकिन मेरी जैसी किस्मत शायद सभी की नहीं। भगवान का शुक्र है धमाकों की चपेट में मैं नहीं आया।
लेकिन कुछ परिवार ऐसे हैं जो चपेट में क्या आए कि अब जिंदगी मौत पर भारी पड़ने लगी है। कइयों का तो पूरा का पूरा परिवार ही खत्म हो गया। धमाकों के अगले दिन दिल्ली की जिंदगी तो फिर पटरी पर आगई पर कुछ परिवार ऐसे थे जो चाह कर के भी काफी वक्त तक पटरी नहीं पकड़ सकेंगे।
इनमें से ही एक बच्ची की ख़बर जब ऑफिस में हम लोगों ने देखी तो पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। पांच साल की बच्ची सिमरन, रोते-रोते बार-बार कह रही थी, ‘मेरे पापा मेरे लिए खिलौने लेने गए हैं, वो खिलौना जरूर लेकर आएंगे’।
ऑफिस में जितने भी बाप ये देख रहे थे सब की आंखें नम होने लगी। खास तौर पर वो तो रोने ही लगे जिनकी बिटिया ही उम्र या लगभग इतनी ही है।
थोड़ी देर बाद ही वो सिमरन फिर बोलती है कि, ‘पापा घर आजाओ, अब जिद नहीं करुंगी, मत लाना खिलौने, पर घर आजाओ’।
मेरा लिखते-लिखते कलेजा मुंह को आ रहा है, क्या ये आवाज़, ये फरियाद किसी भी आतंकवादी को सुनाई नहीं देती होगी। उनका भी तो परिवार होता होगा, उनके भी तो अपने होंगे। तब भी ऐसा क्यों। क्यों उजाड़ देते हैं एक भरा पूरा चमन वो?
एक दिन बाद फिर सिमरन से पूछा गया कि, ‘आप के पापा कहां हैं’? सिमरन बोली, ‘मर गए’। आपके बाबा कहां हैं? ‘वो भी मर गए’। आपकी मम्मी कहां हैं? ‘अस्पताल में’। मम्मी से जाकर मिली? ‘डॉक्टर मिलने ही नहीं देते’। पता नहीं सिमरन की मां कैसी हैं।
जवाबों से तो ये ही लगता है कि पांच साल की ये बच्ची सिमरन अब शायद बड़ी होगई है। इस धमाके ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। पिता के साए के साथ-साथ ही उसका बचपन भी। मेरे अधिकतर सहयोगी अपने हाथ आंखों पर लिए वहां से चले गए।
'ओ ऊपर वाले, ये दर्द ना दीजो, मुझको क्या मेरे दुश्मन को भी ना दीजो'
आपका अपना
नीतीश राज
Tuesday, September 16, 2008
नपुंसकों की तरह बात करना बंद करो शिवराज पाटील,यदि नहीं कर सकते,तो तुमको देश की सेवा का अधिकार भी नहीं देता ये इंडियन
“एक टीवी इंटरव्यू में देश के गृहमंत्री शिवराज पाटील ने कहा कि, नरेंद्र मोदी के पीएम को जानकारी दिए जाने से पहले ही केंद्र के पास संभावित धमाकों के संबंध में ख़बर थी। हमें सिर्फ जगह, समय और इस बात का नहीं पता था कि आतंकी किस तरीके का इस्तेमाल करेंगे”।
क्या शर्म नहीं आनी चाहिए शिवराज पाटील को। क्या सोचते हैं शिवराज पाटील जी कि ये नापाक इरादा रखने वाले आतंकवादी आपको address लिख कर के देंगे कि इस समय हम यहां पर छुपे हुए हैं, साथ में हमारे पास इतना असला बारुद है, तुम्हारे ही मुल्क के इतने आदमी हमारे संगठन में अपनी इच्छा से काम करते हैं, हम आज फलां जगह पर फलां वक्त पर विस्फोट करेंगे। क्या लगता है शिवराज जी आप को ये बात करनी चाहिए थी। नाकामी का ढिंढोरा यूं पीटना चाहिए था। अब तो ये ढिंढोरा पिट ही गया है तो सब्र रखिए (वैसे भी आपको सब्र की आदत बहुत है), और ये सब्र आपका क्या गुल खिलाता है। कपड़े बदलने पर तो आपकी वैसे ही भद्द पिट चुकी है। इस प्रकरण से और नेताओं को भी सीख मिल गई होगी। जब देश की राजधानी पर हमला हुआ हो और लोग अपनी जान की परवाह किए बगैर दूसरी की सेवा करने में लग गए हों। तब दूसरी तरफ आप अपने कपड़ों पर पड़ने वाली धूल की फिक्र कर रहे थे और उस शाम तीन पोशाकें आपने बदल दी। सच शिवराज जी आप बाहर से ही नहीं अंदर से भी नपुंसक हैं।
“नपुंसकों की तरह बात करना बंद करो शिवराज पाटील, यदि नहीं कर सकते तो तुमको देश की सेवा का अधिकार भी नहीं देता ये इंडियन”।
कांग्रेस शिवराज पाटील का बचाव करने में लगी हुई है। वैसे वो कांग्रेस की मजबूरी है, पर कांग्रेस को ये सोचना चाहिए कि ताबूत में कीलों की जरूरत पड़ती है और शिवराज रूपी कील कहीं आखरी कील तो नहीं है कांग्रेस के ताबूत पर।
वहीं दूसरी तरफ श्रीजयप्रकाश जायसवाल जी कहते हैं कि आतंकवादियों ने हमें चकमा दे दिया इस बार, और हम एक सइस्टम बना रहे है जिससे की हम इन पर काबू पा सकें। अरे, जायसवाल जी कि क्या पागल बना ने के लिए हमारी प्यारी-भोली जनता ही मिली है क्या आपको। अरे इस साल में ही तीन बार आपको आतंकवादियों ने चकमा दिया और बता-बता कर के चकमा दिया है। हर बार वो आपको मेल करके सूचित करते हैं और आप उनका कुछ भी उखाड़ नहीं पाते। और वो मेरे भाइयों का खून बहाकर के अपने आला कमान को ये सूचना देते हैं खुशी से पागल हो जाते हैं।
यदि ये ही हाल रहा तो सिमी यानी दूसरी पहचान इंडियन मुजाहिद्दीन अभी पहले मेल भेजता है और फिर वो हमला करता है। वैसे भी आतंकियों को हमारे देश के लिजलिजे कानून पर पूरा भरोसा है कि यदि वो पकड़े भी गए तो जरूर से ही छुड़ा लिए जाएंगे वरना एक और हाईजैक प्रकरण से इस देश को हिलाते हुए उनको छुड़ा लिया जाएगा।
अब इसका हल सिर्फ ये है कि इन जैसे भी हो हम खास तौर पर धमाकों पर तो सियासी रोटियां सेकना बंद करें और साथ ही इन नपुंसकों को देश की सेवा से हमेशा के लिए मुक्त कर देना चाहिए।
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गूगल)
Friday, September 12, 2008
मुंबई का किंग कौन?
बेशक राज ठाकरे सरकार नहीं हैं पर वो आदेश देता है तो महाराष्ट्र की सरकार की जुबान पर ताला लग जाता है। वो जज भी नहीं है पर फिर भी दंड सुनाने का अधिकार सिर्फ उसने अपने पास सुरक्षित रखा है। जिसे चाहे वो अपने आगे झुका सकता है, जिसे चाहे वो कुछ भी कह सकता है गाली तक दे सकता है और कानून उस शख्स के खिलाफ कोई कदम भी नहीं उठा सकता है। वो चाहे तो जिस किसी की फिल्म की रिलीज पर महाराष्ट्र में पाबंदी लगा सकता है, और वो चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता। इस शख्स की सनक के सब गुलाम बन चुके हैं।
ये दादागीरी नहीं है तो और क्या है। अभी मेरी पिछली पोस्ट पर डॉ अनुराग ने कमेंट किया था कि अगले महीने उनका मुंबई जाना हो रहा है। वहां पर चल रही भाषावाद की हवा से वो काफी नाखुश भी हैं और पशोपेश में भी। आपको सच बताऊं तो ऑफिस से मेरे एक सहयोगी को मुंबई जाना था लेकिन वो मुंबई नहीं गए। क्यों? जबकि हमारा भरा पूरा ब्यूरो है वहां पर, लेकिन वहां कि हवा ही ऐसी चल रही है कि हर कोई डरने लगा है। गुंडों से शायद हमलोग अकेले तो लड़ सकते हैं लेकिन परिवार के साथ नहीं। सच माने तो राज ठाकरे का कद ये हो चुका है कि कोई भी इस बड़बोले से पंगा नहीं लेना चाहता और लगता तो ये भी है कि सब के सब इसके रहमोकरम पर ही हैं।
इस दादागीरी और गुंडागर्दी के आग सदी के महानायक तक को झुकना पड़ा। पहले ब्लॉग, फिर हर चैनल पर घूम-घूम कर माफी मांगनी पड़ी। चाहे द लास्ट लियर के लिए दिए जा रहे इंटरव्यू की बात हो या चाहे कोई और, लेकिन हर जगह वो माफी मांगते हुए दिखे। बिग बी यानी अमिताभ बच्चन इस मुद्दे पर कुछ जुमलों को ही हर इंटरव्यू में बोलते नजर आए। माफी मांगने से थोड़े ही कोई छोटा हो जाता है, भई बीत गई सो बात गई, अब आगे क्या, माफी हमने मांग ली है, इसकी जांच हो रही है यदि लगे कि हमने गलत किया है तो हमें जो सजा देना चाहेंगे हमें मंजूर है। हर जगह बचते-बचते अमिताभ ने सभी सवालों के जवाब दिए। कैमरे पर माफी मांगे जाने को लेकर तो बिल्कुल कन्नी काट गए। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि राज तो मेरे दोस्त के हैं और मैं उन्हें अपनी फिल्म देखने का न्यौता देता हूं। अब सवाल ये उठता है कि क्या सदी का महानायक डर गया? हर जगह जा जा कर उन्हें माफी क्यों मागनी पड़ रही है? क्या बिग बी पर द लास्ट लियर के प्रोड्यूसर की तरफ से कोई दबाव है? या फिर फिल्म सही सलामत मुंबई या यूं कहें कि महाराष्ट्र में रिलीज हो जाए ये चाहते हैं अमिताभ। पर जो भी कारण हो जब सदी के महानायक को डरना पड़ सकता है इस नेता रूपी गुंडे से तो फिर आम आदमी की तो औकात ही क्या है। यदि राज ने न्यौता स्वीकार कर लिया तो राज की राजनीति समझ में जरूर आजाएगी ये तो साफ है।
ये मराठियों की एकजुटता की जीत है या फिर राज ठाकरे के गुंडों का ख़ौफ़ लेकिन भाषावाद का ये घटिया प्रकरण आखिरकार खत्म तो हो गया। अब तो ये लड़ाई राज ठाकरे बनाम मुंबई के ज्वाइंट कमिश्नर के बीच हो चली है। पर इसमें जया और अमिताभ बच्चन को पूरे मामले में शर्मिंदगी बहुत उठानी पड़ी है। साथ ही जाते जाते राज ठाकरे ने जया बच्चन को नसीहत भी दे डाली है कि हो सके तो आगे से लिखे हुए डायलॉग ही पढ़ें तो बेहतर। पर इस प्रकरण ने ये तो बता ही दिया कि, 'मुंबई का किंग कौन?.........राज ठाकरे'।
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गूगल)
Thursday, September 11, 2008
राज ठाकरे, मुंबई तुम्हारे बाप की नहीं
राज ठाकरे के पास गुंडे हैं वो चाहे तो क्या नहीं कर सकते। चाहे तो फिल्म चलने दें या फिर आप का कारोबार। चाहें तो सब तबाह कर दें। मारठी में ही हों दुकान के बोर्ड, हर साइन मराठी में ही हों। अरे, पगला गए हो क्या राज ठाकरे। यदि तुम जैसे लोग सीएम बन जाएं तो संजय गांधी की याद ताजा करा दें। क्या आप को पता है कि मुंबई में कितन लोग बाहर से आते हैं? शायद नहीं, जब ही तो आप ये सवाल उठा रहे हैं। यदि मराठी में बोर्ड लगाएंगे तो रोजी-रोटी कहां से चलेगी। हर किसी को तो मराठी आती नहीं। फिर कैसे बिकेंगे सामान।
क्या तुम राज ठाकरे, हां, राज ठाकरे, क्या तुम बिकवाओगे सामान या फिर खरीदोगे? खुद तो तुम एसी रूम में बैठकर ये सब फरमान लोगों पर थोपते रहते हो। यदि लोग नहीं मानें तो तुम अपने गुंडे भेजकर लोगों को डराते हो उन के साथ मार-पीट करते हो। ये कहां तक जायज है। वैसे अपनी पिछली पोस्ट में मैंने इस बात का जिक्र किया कि ‘राज ठाकरे अपनी चोंच बंद रखो’ तो किसी ने कमेंट किया कि अरे ये तो बोलेंगे ही आप दूसरों को नसीहत दो कि वो इनकी बातों में ना आएं। सही कमेंट था। ये तो वो बुल डॉग हैं जो कि ना चाहते हुए भी भोखेंगे ही। तब बेहतर तो ये है कि महाराष्ट्र की जनता इन जैसों को ना सुनें और मिलकर इन जालिमों का विरोध करे जो कि देश को भाषा में बांटना चाहते हैं।
जया बच्चन के बाद अमिताभ ने भी माफी मांग ली लेकिन कैमरे पर माफी मांगने पर अड़े हुए हैं राज समर्थक। वैसे अमिताभ ने एक बात सही कही कि,
“जो हो गया सो हो गया अब आगे की सोचना चाहिए और आगे क्या होगा। हमने माफी मांग ली है। अब बाकी बचा काम प्रशासन का है कि वो क्या ऐक्शन लेती है। यदि हमने गलत किया है तो हम हर सज़ा के लिए तैयार हैं”।…..
क्या सचमुच ये लगता है कि अमिताभ बच्चन से बड़ा हो गया है राज ठाकरे का कद। राज ठाकरे का नाम यदि गूगल में सर्च करें तो इस भाषावाद के साथ तो आप जोड़ कर देख सकते हैं वरना और किसी के साथ नहीं। लेकिन अमिताभ बच्चन तो अपने में एक लीजेंड हैं। दुनिया उनका लोहा मान चुकी है। जब वो शख्स भी बिन बात के बढ़ी बात पर माफी मांग चुका है तो क्या अलगाव फैलाना अच्छा है? क्या राज ठाकरे जैसा बद दिमाग शख्स सुधरेगा। देश के लिए एक अच्छा काम नहीं किया होगा राज ठाकरे ने।
क्या उस जैसे चरित्र का बिग बी जैसे इंसान के साथ ऐसा व्यवहार करना सही है। मैं कोईं बिग बी का समर्थक नहीं हूं पर भाषावाद और राज ठाकरे जैसे दो कोड़ी के गली के टुच्चे से नेता के खिलाफ तो जरूर हूं।
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो- साभार गूगल)
Wednesday, September 10, 2008
राज ठाकरे अपनी चोंच बंद रखो
चलिए एक सीन तो ये था अब दूसरे सीन पर चलते हैं।
'मैं यूपी की हूं और हिंदी ही बोलूंगी और यूपी के लोगों को हिंदी ही बोलनी चाहिए, महाराष्ट्र के भाईयों से माफी मांगती हूं'। जया बच्चन ने ये बात द्रोण की म्यूजिक लॉन्च पार्टी में कही थी। बात बढ़ी और फिर हरे हो गए आगे-पीछे के जख्म। राज ठाकरे लगे फिर से अपना भोपूं बजाने। जया ने लिखित माफी मांग ली।
"अगर मैंने मुंबई और महाराष्ट्र के मराठी भाषी लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है तो इसका मुझे दुख है। एक हिंदी फिल्म के म्यूज़िक लॉच पर मैंने हिंदी बोलने को लेकर जो कुछ कहा वो बिना किसी छल कपट से कहा था। मैं उस शहर को बदनाम क्यों करूंगी जिसने हमें सबकुछ दिया। क्या हमलोग भी इस शहर के नहीं हैं। मैं इस शहर का मरते दम तक निरादर नहीं करूंगी।"
पर एमएनएस को मंजूर नहीं, लिखित में नहीं, 'कैमरे के सामने ही माफी मांगनी होगी'। महाराष्ट्र का अपमान कैमरे के सामने किया तो कैमरे के सामने ही माफी मांगो। ये कहना है खुद राज ठाकरे का। ये भी एक अजीब और अपने किस्म की दादागीरी है।
वैसे तो, राज ठाकरे को अपनी ये चोंच 8 अक्टूबर तक बंद रखने का फरमान है। पर वो बोल रहे हैं और अपने नापाक इरादों से मराठियों को बरगलाने में लगे हुए हैं। ये तो महाराष्ट्र के गुंडे हैं जो कि देश के गुंडे बनते जा रहे हैं। कभी किसी ने ये सोचा कि देश के और किसी भी प्रांत में राज ठाकरे क्यों नहीं आते-जाते हैं क्योंकि राज को डर रहता है कि कहीं जिंदगी के लाले ना पड़ जाएं। क्या राज ठाकरे को अक्ल नहीं आई है कि देश के अब भाषावाद में बांटने में तुले हुए है। क्या जब तक राज ठाकरे को कोई पीटेगा नहीं तब तक उसको चैन नहीं मिलेगा? या फिर देश के दूसरे हिस्सों में मराठियों को पीटा नहीं जाएगा तब तक राज ठाकरे नाम का बदनुमा जानवर अपनी चोंच बंद नहीं करेगा। ये तो देश के दूसरे हिस्सों के लोगों की अपने देश के साथ ईमानदारी है कि जो अब तक ये सब कुछ सुनने में नहीं आया। वरना कसर तो इन ठाकरे परिवार ने नहीं छोड़ी है। भाषा का मुद्दा बनाकर राज ठाकरे क्या साबित कर देना चाहते हैं कि राजनीति सिर्फ इससे ही चलती रहेगी। अपने गुंडे भेज कर लोगों के ऑफिसों में, दुकानों पर, घर पर उत्पात मचाना। कब तक सहेंगे लोग जिस दिन बिदक गए तो मंच पर चढ़कर मारेंगे और तब इस चोंच से बाप- बाप के अलावा कुछ नहीं निकलेगा। राज को सलाह है, अपनी चोंच बंद रखो राज ठाकरे।
ऐसा नहीं है कि मैं जया बच्चन के समर्थन में हूं। किसी भी मंच पर चढ़कर लोगों की भावना से खेलना गलत है और जबकि उस मुद्दे पर जिसमें आप पहले ही हाथ जलाए बैठे हैं। माना ये कि हंसी मजाक में कह दिया गया और फिर उसे लेना भी उसी अंदाज में चाहिए था। मंच पर इस बात से पहले क्या बात चल रही थी ये भी बहुत ही कम को पता है। प्रियंका चोपड़ा जब अंग्रेजी के चंद शब्दों के बाद हिंदी में बोलने लगी तो ये लाइन जया बच्चन ने हंस कर कही थी। लेकिन इस बात को प्रेजेंट इस अंदाज में किया गया जैसे कि जया बच्चन ने देश की संप्रभुता के साथ खिलवाड़ कर दिया हो। उनको इस बात का इल्म हो गया कि इस बात पर उनके द्वारा चुटकी नहीं ली जानी चाहिए थी। तो उन्होंने माफी मांग ली। अब ये क्या कि नहीं कैमरे पर ही माफी मांगो। ये तो एक तरह से दूसरो को जलील करना ही हुआ। बाल ठाकरे के नक्शेकदम पर चलते हुए राज चाहते हैं कि इस मुद्दे से वो घटिया लोकप्रियता बटोर लें और उनकी राजनीति चलती रहे लेकिन लोगों को ये 'राज-नीति' समझनी ही होगी, खासतौर पर भाषा की इस राजनीति को । वैसे ही देश जगह जगह से जल रहा है एक आग और नहीं चाहिए हमें।
राजनीति क्या-क्या ना कराए। अभी तक जो शख्स बिग बी के बगल में बैठकर ये कहता था कि बिग 'बी' तुम ही अकेले नहीं हो मैं भी तो बिग 'बी' हूं। बाल ठाकरे भी चुप नहीं बैठे वो भी इस भाषावाद की लड़ाई में कूद पड़े। मराठी और हिंदी की लड़ाई में अमिताभ का साथ किसी ने दिया था तो वो बाल ठाकरे ही थे पर कल के सगे आज पराए हो गए। बार ठाकरे सामना में लिखते हैं--
"अमिताभ पूरे देश के महानायक हैं और ऐसा महानायक सदी में एक बार पैदा होता है। कोई भी प्रांत और भाषा की दीवार उनकी कला को रोक नहीं सकती लेकिन अब जया बच्चन ही कह रही हैं कि हम यूपी वाले हैं। इसका मतलब क्या है। अमिताभ बच्चन और उनका परिवार जब मुंबई आया था तब उन्हें कोई नहीं पहचानता था लेकिन मुंबई ने उन्हें पहचान दी, बड़ा किया। पूरी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को महाराष्ट्र की राजधानी ने आसरा दिया लेकिन इन लोगों ने मुंबई और महाराष्ट्र को क्या दिया। ये सवाल जया बच्चन के बयान की वजह से खड़ा होता है।"
बाल साहेब तो शाहरुख पर भी बिफर पड़े। पर बाल ठाकरे को ये कौन समझाए कि यदि बालासाहेब खुद दिल्ली में आकर रहने लगें तो भी वो सबको ये ही बताएंगे कि वो मुबई के ही है। चाहे दिल्ली उन्हें कितना ही कुछ दे दे पर वो रहेंगे तो मुंबई के ही ना। जब वो खुद को मुंबई का बताने से नहीं हिचकते तो फिर क्यों दिल्ली का कोई भी ये मानने से पीछ रहेगा कि वो दिल्ली का नहीं है। मैं बालासाहेब ठाकरे का काफी सम्मान करता हूं पर लगता है कि उम्र का असर अब उनके लेखन पर दिखने लगा है और वो दूर की बातें नहीं सोच पा रहे हैं। वैसे तो अब उनको लिखना ही बंद कर देना चाहिए।
वैसे जया बच्चन के साथ हमेशा से साथ खड़े रहने वाले अमिताभ मुंबई लौट आए हैं और जैसे कि अभिषेक बच्चन ने कहा कि फैसला अमिताभ ही करेंगे की इस पर क्या करना चाहिए। तो देखना ये होगा कि राज की भाषा की इस आग में अमिताभ पानी डालते हैं या पेट्रोल।
आपका अपना
नीतीश राज
(कल बजरंग दल के कार्यकर्ता एक इलाके में गए और वहां के लोगों को निकालकर पीटा। फिर उन्हें एक जगह इकट्ठा कर उनसे वंदे मातरम, भारत माता की जय के नारे लगवाए। ये सब बांग्लादेशी थे। ये आग फैल रही है ना फैले तो बेहतर।क्योंकि भेड़चाल चलने वाले कम नहीं हैं देश में।)
(फोटो साभार-गूगल)
Thursday, September 4, 2008
एक चिट्ठी से सरकारी गलियारे में हलचल
देश में हलचल तो स्वाभाविक थी। पीएम आवास पर तुरंत कांग्रेस की एक बैठक हुई। और भारत सरकार की तरफ से ये साफ किया गया कि भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु करार में कोई भी फेरबदल नहीं होगा। परमाणु परीक्षण पर भारत ने खुद ही अपनी तरफ से पाबंदी लगा रखी है। भारत पर इस मामले में कोई भी दबाव नहीं है। भारत अमेरिका के अंदरुनी मामलों में हस्ताक्षेप नहीं करता। पर सवाल उठता है कि यदि इन सब बातों की जानकारी मनमोहन सिंह को थी तो फिर आननफानन में बैठक क्यों बुलाई गई।
क्या इस चिट्ठी में जो भी लिखा है उसकी जानकारी भारत सरकार को थी। मनमोहन सिंह बार-बार ये
कहते रहे है कि इस करार से हमारी स्वतंत्रता पर कोई भी असर नहीं पड़ेगा। इसका मतलब कि भारत के परमाणु कार्यक्रमों पर इस करार का कोई भी असर नहीं पड़ना। जबकि अमेरिकी राजदूत डेविड मलफर्ड का कहना है कि इस चिट्ठी के कंटेंट के बारे में भारत सरकार को पूरी जानकारी है।
यदि ऐसा है तो चिट्ठी में लिखी बातों का असर भारत और अमेरिका के संबंधों पर नहीं पड़ेगा और इस से भारत को घबराने की जरूरत भी नहीं है। बुश प्रशासन या यूं कहें कि अमेरिका को भी इतना आसान नहीं होगा इस करार से पल्ला झाड़ना। खुद अमेरिका इस करार को लेकर इतना आगे आ गया है कि इतनी आसानी से तो वो पीछे हट नहीं सकता।
पर भारत के लिए मुश्किल ये है कि ये चिट्ठी उस वक्त आई है जब कि भारत 45 देशों के न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप याने एनएसजी को परमाणु करार पर राजी कराने में जुटा है। देश में बहुमत मिल जाने से और सरकार बचा लेने से ये साबित नहीं होता कि करार होगया। अभी तो मंजिल बहुत दूर है।
आपका अपना
नीतीश राज
फोटो साभार-गूगल
Monday, September 1, 2008
ये दर्द का सैलाब है...
हमें ये एहसास बार बार मार डाल रहा था कि क्या इतनी देर पानी में रहने के बाद ये जिंदा बच पाएंगे। और जब रात होगी और काल बनी कोशी अपने प्रचंड रूप में पुकारेगी तब क्या ये बच पाएंगे। अभी तो दिन है कुछ किया भी जा सकता है पर रात में क्या होगा। दूर-दूर तक सिर्फ काला-मटमैला पानी, कोई ओर क्षोर नहीं, खाने को दाना भी नहीं जगह जगह से लाशें बहती हुई आ रही हैं, ऊपर से चोर-डाकुओं का डर। इस समय जिसके पास नाव है वो राजा है। और ये राजा कोई और नहीं चोर-डाकू हैं। औरतों के साथ बलात्कार भी हो रहा है। ये सारी बातें और उन तस्वीरों ने आंखों से आंसूओं की धारा बहा दी। मैंने अपने एंकर से कहा कि इन तस्वीरों को फिर से बता दो। लेकिन एंकर कुछ नहीं बोली। वो भी तो अपने रूंधे हुए गले से कुछ भी कह नहीं पा रही थी। बाद में उसने मुझसे कहा कि तुम लोग तो वहां खड़े रो लिए पर हम तो रो भी नहीं सकते थे, लोग हमारी आवाज सुन लेते।
आपका अपना
नीतीश राज
‘मैंने घर में अपनी पत्नी को जब ये वाक्या बताया तो पूरा सुनने के बाद वो मेरे पास से उठ कर चली गई। हम दोनों की आंखें नम थी। दोनों एक दूसरे को इस बेचारगी के हाल में देख नहीं सकते थे’।
“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”