Wednesday, September 17, 2008

ओ ऊपर वाले, ये दर्द ना दीजो, मुझको क्या मेरे दुश्मन को भी ना दीजो

दिल्ली के साथ-साथ दिल भी दहल चुका था। पूरे ऑफिस में तरह-तरह की बातें हो रही थी। कुछ कह रहे थे कि जब दो महीने पहले हमले की जानकारी दे दी गई थी तब भी ये चूक क्यों और कैसे होगई। इस बीच विचलित कर देने वाली तस्वीरें सामने आ रहीं थी। बार-बार एंकर को ये कहना पड़ रहा था कि दिल्ली वाले धैर्य रखें साथ ही तस्वीरें विचलित करने वाली हैं। मेरे घर वालों ने जब ये खबर देखी तो उनका फोन आना स्वाभाविक था। सब ठीक ठाक है? सवाल में विश्वास छुपा था कि इस जंग में हम नहीं हारेंगे और बेटा तुम भी नहीं हारना, जहां पर भी हो भगवान तुम्हें सुरक्षित ही रखे।
वो तीनों रास्ते जहां पर बम फटे ब्लास्ट से कुछ घंटे पहले ही मैंने क्रॉस किए थे। दो रास्ते तो नियमित ही हैं हर रोज उन के पास से गुजरता हूं, पर एक रास्ता मैंने अपने मित्र के जन्मदिन की पार्टी की तैयारी करते हुए क्रॉस किया। लेकिन मेरी जैसी किस्मत शायद सभी की नहीं। भगवान का शुक्र है धमाकों की चपेट में मैं नहीं आया।
लेकिन कुछ परिवार ऐसे हैं जो चपेट में क्या आए कि अब जिंदगी मौत पर भारी पड़ने लगी है। कइयों का तो पूरा का पूरा परिवार ही खत्म हो गया। धमाकों के अगले दिन दिल्ली की जिंदगी तो फिर पटरी पर आगई पर कुछ परिवार ऐसे थे जो चाह कर के भी काफी वक्त तक पटरी नहीं पकड़ सकेंगे।
इनमें से ही एक बच्ची की ख़बर जब ऑफिस में हम लोगों ने देखी तो पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। पांच साल की बच्ची सिमरन, रोते-रोते बार-बार कह रही थी, ‘मेरे पापा मेरे लिए खिलौने लेने गए हैं, वो खिलौना जरूर लेकर आएंगे’।
ऑफिस में जितने भी बाप ये देख रहे थे सब की आंखें नम होने लगी। खास तौर पर वो तो रोने ही लगे जिनकी बिटिया ही उम्र या लगभग इतनी ही है।
थोड़ी देर बाद ही वो सिमरन फिर बोलती है कि, ‘पापा घर आजाओ, अब जिद नहीं करुंगी, मत लाना खिलौने, पर घर आजाओ’।
मेरा लिखते-लिखते कलेजा मुंह को आ रहा है, क्या ये आवाज़, ये फरियाद किसी भी आतंकवादी को सुनाई नहीं देती होगी। उनका भी तो परिवार होता होगा, उनके भी तो अपने होंगे। तब भी ऐसा क्यों। क्यों उजाड़ देते हैं एक भरा पूरा चमन वो?
एक दिन बाद फिर सिमरन से पूछा गया कि, ‘आप के पापा कहां हैं’? सिमरन बोली, ‘मर गए’। आपके बाबा कहां हैं? ‘वो भी मर गए’। आपकी मम्मी कहां हैं? ‘अस्पताल में’। मम्मी से जाकर मिली? ‘डॉक्टर मिलने ही नहीं देते’। पता नहीं सिमरन की मां कैसी हैं।
जवाबों से तो ये ही लगता है कि पांच साल की ये बच्ची सिमरन अब शायद बड़ी होगई है। इस धमाके ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। पिता के साए के साथ-साथ ही उसका बचपन भी। मेरे अधिकतर सहयोगी अपने हाथ आंखों पर लिए वहां से चले गए।
'ओ ऊपर वाले, ये दर्द ना दीजो, मुझको क्या मेरे दुश्मन को भी ना दीजो'

आपका अपना
नीतीश राज

5 comments:

  1. मैं भी कई बार यही सोचती हूँ ..कि जब यह सब करने वाले टीवी पर यह सब अपने किए का दर्दनाक अंजाम देखते होंगे तो इनका दिल क्या इतना पत्थर हो चुका है कि फ़िर अगले धमाकों कि बात सोचते हैं यह ? क्या इनके घर में बच्चे नही ?

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  2. माना जाता है कि‍ डाक्‍टर और मीडि‍याकर्मी दि‍ल से नहीं दि‍माग से काम लेते हैं। उनका प्रोफशन इसी की इजाजत देता है। इस क्रम में लोगो के मन में ये बात पैठ गई कि‍ इनके पास दि‍ल होता ही नहीं। आपकी पि‍छली दो-तीन पोस्‍ट पढने के बाद मेरे साथ-साथ कई लोगों को ये अहसास हो गया होगा कि‍ सर्जरी करते वक्‍त एक डाक्‍टर को और खबरों की तह तक जाते हुए एक पत्रकार को अपनी भावुकता से कि‍स हद तक लड़ना पड़ता है।

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  3. गली नंबर ४२ यही है न वो गली.....जिस पर इस बम के घाव कई सालो तक रहेगे ...कई घर दुबारा खड़े होने में सालो लगा देगे...

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  4. "मेरे पापा मेरे लिए खिलौने लेने गए हैं, वो खिलौना जरूर लेकर आएंगे’।"

    आपने इतना मार्मिक चित्रण किया है की आँखे भीग आई है ! बहुत ही दरिन्दे हैं इनके दिल पत्थर हो चुके हैं !

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  5. "मेरे पापा मेरे लिए खिलौने लेने गए हैं, वो खिलौना जरूर लेकर आएंगे’।"

    आपने इतना मार्मिक चित्रण किया है की आँखे भीग आई है ! बहुत ही दरिन्दे हैं इनके दिल पत्थर हो चुके हैं !

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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”