Sunday, October 26, 2008

वेतन तो पूर्णमासी का चांद और 'बोनस' अमावस्या में निकला चांद

‘वेतन तो बेटा पूर्णमासी के चांद की तरह है जो कि महीने में एक बार दिखता है....’। याद आई ये लाइनें। प्रेमचंद का ‘नमक का दरोगा’ तो पढ़ा ही होगा सबने। ये लाइनें एक पिता की थी जो कि अपने दरोगा बेटे को ऊपरी कमाई के लिए ज्ञान के रूप में दी जा रहीं थी। बेटा मासिक वेतन से तो घर का खर्च भी नहीं चलता, सही होगा कि कुछ ऊपरी कमाई के बारे में सोचो। इसके आगे का कथन इसलिए नहीं लिखा क्योंकि उस कथन का सरोकार सिर्फ और सिर्फ पुलिसिया विभाग के लोगों की ज्ञानवृद्धि के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। अभी उस कथन का जिक्र नहीं करना चाहूंगा, नहीं तो पुलिस वालों की ज्यादा ज्ञानवृद्धि हो गई तो फिर हम सबकी दीवाली का सत्यानाश निश्चित ही समझिए।
पूर्णमासी का चांद महीने में एक बार दिखता है, उसी तरह वेतन भी एक तारीख को अपना सुंदर सलोना मुखड़ा किसी सुंदरी की तरह दिखाकर पूरे एक महीने के अज्ञातवास पर चला जाता है। महीने के मध्य से ही उसकी याद आने लग जाती है और महीने के अंतिम दिनों में तो बेसब्र याद जाती ही नहीं। शरीर में जान फूंकने के लिए उस एक दिन की याद से ही काम चलाना पड़ता है।
पूरे साल में दीवाली वाला ही महीना ऐसा होता है जब कि वेतन का छोटा भाई या फिर छोटी बहन जो भी कहना चाहें कह सकते हैं वो मिलता है। याने कि चांद धीरे धीरे फिर से बड़ा होने लगता है। वेतन का छोटा रूप 'बोनस' मिलता है। वैसे तो हमें वो भी नसीब नहीं होता पर कुछ को तो मिलता ही है। बोनस की राह तो पूरा जमाना बड़ी ही बेचारगी से महीने की शुरूआत से ही तकता है। साल में एक बार मिलने की वजह से इस पर उस दूध वाला(जो लिफ्ट ना चलते हुए भी इस महीने तो सांतवी मंजिल से नीचे नहीं बुलाता, खुद ही सीढ़ियों के रास्ते डोलू लेकर चला आता है), धोबी वाला, डाकिया, प्रेसवाला, कामवाली बाई, बच्चे, श्रीमति जी के साथ-साथ यहां तक कि खुद वेतनभोगी की भी निगाहें टिकी रहती हैं। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस महीने की शुरूआत से ही कैशियर बाबू को, पूरा का पूरा ऑफिस का स्टाफ दुआ सलाम करके निकलता है जो कि वैसे तो महीने के अंतिम दिनों में शुरू हुआ करता था। इस महीने तो कैशियर बाबू का इतना ध्यान रखा जाता है कि खांसें तो लगता है कि पूरे ऑफिस में भुकंप के झटके महसूस किए जा रहे हों। तिमारदारी ऐसे की जाती है जैसे कि लीलावती में अमिताभ बच्चन की डॉक्टर और नर्सें करती हैं।
महीने की शुरुआत से ही बोनस के ऊपर सपने संजोए हमारे बच्चे और उन नन्हों से भी चार हाथ आगे पहुंचती हमारी इकलौती बेगम। पिछले साल बोनस पर बच्चों की जिद्द पूरी नहीं हो सकी थी जो कि इस बार महंगाई दर की तरह अवश्य ही बढ़ भी चुकी होगी। नन्हों की नन्हीं ख्वाहिशें या मांगे तो नन्ही रकम से पूरी हो जाएगी। पर उन नन्हों की मां की बड़ी-बड़ी मांगों को कौन समझाएगा। गृहमंत्रालय को तो कोई भी रुष्ट नहीं करता प्रधानमंत्री तक भी नहीं। जानते हैं कि यदि रुष्ट किया तो गृहयुद्ध छिड़ सकता है। तो हम भी अपने गृहमंत्री को कैसे रुष्ट कर सकते हैं।

जारी है..

(और क्या होगा उस बोनस के साथ, अगली पोस्ट में)

आपका अपना
नीतीश राज


(सभी को धनतेरस और दीवाली की शुभकामना)

9 comments:

  1. वेतन के आने और जाने का तो पता ही नही चलता है ..:)बढ़िया लिखा आपने नीतिश जी ..दीवाली की बहुत बहुत बधाई आपको

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  2. हम भी कुछ ऐसा ही सोंच रहें हैं .........


    आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ।

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  3. बहुत बढिया लिखा आपने ! माया महा ठगिनी मैं जानी ! :)
    आपको दीपावली की परिवार व इष्ट मित्रो सहित हार्दिक शुभकामनाएं !

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  4. सही लि‍खा वेतन पर, मजा आ गया।

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  5. एक नोकरी भुगत की कहानी , अजी नही यह कहानी तो घर घर की है...
    आप को आप की इकलोती बेगम को ओर बच्चो को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

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  6. बहुत बढ़िया..अब आगे बोनस का इन्तजार है.

    आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  7. सब दिन एक समान। क्या दिवाली? आजकल चांद का साइज कुछ छोटा लगता है।

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  8. Nitishji, achha likha hai vetan aur bonus par. jinhen milti hai bonus ve to taktaki lagaye intzar karte hi hain, swabhavik bhi hai, vetan ke alawa isi par kai yojnayen tiki rahti hain.

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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”