Tuesday, July 14, 2009

ऐसा है हमारा कानून और ऐसे हैं हमारे कानून के रखवाले, शर्म आती है।

पहले फिल्मों में देखता था ये सब अब इसे सामने देख रहा हूं। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर सब कहते फिरते थे कि फिल्में हमारे समाज का आइना होती हैं और मैं विश्वास नहीं करता था पर आज मानने को मजबूर हूं।
जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं।

एक घटना है परसों की और दूसरी घटना है बरसों पहले घटी थी पर नतीजा कल आया। दोनों ही हरकतें शर्मनाक हैं। फिल्मों में दिखाते थे कि कानून पर कैसे भारी पड़ते हैं नेता, ये बात सच साबित होगई है। दूसरा, कैसे पुलिस और गुंडों-बदमाशों में होती है साठगांठ। कुछ पुलिसवाले ही होते हैं बदमाशों के इनफोर्मर। कैसे बदले जाते हैं दिए हुए बयान और कोर्ट में खुद कई पुलिसवाले कैसे मुकर जाते हैं अपने दिए हुए बयान से।
याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो।


प्रोफेसर सब्बरवाल हत्याकांड के सभी आरोपी बरी। क्यों?

सभी ने देखा था वो हादसा टीवी पर, पर अंधेकानून को नहीं दिखाई दिया, प्रमाण के अभाव में छोड़ दिए सभी आरोपी। जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं। बेटा फरियाद करता रहा कि पिता के हत्यारों को सज़ा मिले पर कानून इस बार अंधे के साथ-साथ बहरा भी निकला।

अगस्त २००६, उज्जैन के माधव कॉलेज के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रोफेसर सब्बरबार को कथित तौर पर अभियुक्तों कॉलेज कैंपस में क्रूरता से पीटा था और पिटाई में गंभीर चोट के शिकार प्रो।सब्बरबाल ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था। याद आती है वो व्हील चेयर जिसमें प्रो।सब्बरबाल को बैठाकर अस्पताल लेजाया जा रहा था, सभी न्यूज चैनलों ने इस को काफी अहमियत से दिखाया था।

याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो। क्यों कह रहा था वो ऐसा क्योंकि अध्यापकों ने उसे फेल नहीं कर दिया था ब्लकि कॉलेज में छात्रसंघ के चुनाव में धांधली के लगे आरोपों के कारण अध्यापकों ने चुनाव टाल दिए थे। वो युवक बीजेपी की यूथ विंग एबीवीपी का अगुवा था। शायद ही कभी किसी अध्यापक ने अपने छात्र से ऐसे संबोधन सुने होंगे। सारे न्यूज चैनलों ने गोला लगा-लगाकर बार-बार दिखाया था इसे। तो क्या कोर्ट को ये सब नहीं दिखाई दिया। कोर्ट ने ये बात कैसे मान ली कि जब ये हादसा हुआ तो ये ६ अभियुक्त वहां पर मौजूद नहीं थे।

सरकारी वकील पर उठ रही हैं उंगली उसके पीछे का कारण ये है कि जब मध्यप्रदेश में इस केस की सुनवाई होनी थी तब वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पहले ही इसे हादसा घोषित कर दिया था। बीजेपी के हैं तो क्या बीजेपी के युवा छात्रसंघ का साथ नहीं देंगे क्या। साथ नहीं देंगे तो ये बात मुख्यमंत्री साहब भी जानते हैं कि फिर सत्ता में आना उनके लिए मुंगेरीलाल के सपनों की तरह हो जाएगा। कहा जा रहा है कि सरकारी वकील ने इस केस में कई कमियां छोड़ रखी थी। दूसरी बात पुलिस पहले दिए हुए अपने बयान से कोर्ट में मुकर गई। जब ये हादसा हुआ था तो २००६ था उसके बाद अभियुक्तों को पकड़ा गया था तो इतने समय से उनको जेल में क्यों रखा गया। कोर्ट ने भी इस बारे में चुप्पी नहीं तोड़ी। क्यों? वर्ना सवाल तो ये ही खड़ा होता है कि पुलिस ने इन लोगों को किस आधार पर पकड़ा जब सबूत ही नहीं था। चार दिन के अंदर प्रो। सब्बरबाल के बेटे हिमांशु सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रहे हैं। पर इस फैसले से कि ६ के ६ सभी अभियुक्त बाइज्जत बरी कर दिए गए सबको हैरानी जरूर हुई है। और इस बात का पता भी चलता है कि कहां-कहां तक कौन-कौन आपस में मिला हुआ है।
यदि शिकायत करेंगे तो पुलिसवाले बदमाशों को आपका पता दे देंगे और फिर वो आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर देगा और आप मरहूम कहलाए जाएंगे।


मुंह खोलोगे, मरोगे।

जी हां, यदि आप किसी की कंप्लेंट करने जा रहे हैं तो संभल जाइएगा। शिकायत करनी भी हो तो पर्दे के पीछे से कीजिएगा, किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि आप कौन हैं। क्योंकि आज कल रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। पता नहीं कब कौन पुलिसवाला जाकर उस गिरोह को बता दे कि आप हैं शिकायतकर्ता। और फिर वो गिरोह समय देखकर आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर दे और आप मरहूम कहलाए जाएं।

दिल्ली के अशोक विहार में एक शख्स पार्क में चल रहे सट्टे के धंधे की शिकायत करने पुलिस थाने गया। वहां पर और लोगों के साथ मिलकर शिकायत लिखवाई जो कि पहले भी कई बार लिखवाई जा चुकी थी पर हुआ कुछ नहीं था। इस बार कुछ ऐसा हुआ जो कोई सोच भी नहीं सकता था। तीन पुलिसवालों ने इस शिकायत को जगजाहिर कर दिया और भी किस के सामने उनके जिनके खिलाफ शिकायत हुई थी। इस बात से साफ जाहिर हो गया कि पुलिसवालों की साठगांठ थी गोरखधंधा चलाने वालों से।

फिर क्या था रात के अंधेर में जब वो अपनी राशन की दुकान बंद करके आ रहा था तो उस शख्स को तलवार से काट दिया गया। मृतक के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। कोई अमीर आदमी नहीं था जिसे मारा गया। यतीम हो चुके बच्चों का क्या था कसूर? वैसे तो चार लोगों को नामजद कराया गया है पर माना जा रहा था कि उसने काटने वाले सिर्फ चार नहीं थे दर्जन थे। उन तीन पुलिसवालों को फिलहाल तो सस्पेंड कर दिया गया है।

क्या अब किसी गलत काम की शिकायत करना भी गुनाह है? क्या किसी पर भी अब विश्वास नहीं किया जा सकता खासकर कि कानून से जुड़े लोगों पर? दोनों वारदातों के बाद तो कानूनवालों पर शर्म आई और अपने कानून पर भी।

आपका अपना
नीतीश राज

5 comments:

  1. कानून पर से लोगों का विशवास उठता ही जा रहा है ..ये वर्षों से अमीरों की जेब में रहता है

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  2. प्रोफ़ेसर सब्बर्वाल हत्या कांड ने यह साबित कर दिया कि न्याय को भी हमारे यहां पंगू बना दिया गया है. इस फ़ैसले की तो कतई उम्मीद नही थी, और माननिय जजेज को खुद मजबूरी वश ऐसा करना पडा..अब तो यही उम्मीद है कि शायद उपर की कोर्ट मे न्याय मिले.

    रामराम.

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  3. दो चीजे तय है .कानून रसूख वालो ताकत वालो के लिए अलग है .अदालत तक पहुँचते पहुँचते सबूतों के साथ इतना खिलवाड़ हो चूका होता है की असर खो देते है...ओर मीडिया ओर लोगो की यद् दाश्त वैसे भी कम होती है

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  4. यानि जिस की लाठी उस की भेंस.... अब देश पुरी तरह से गुंडो के हाथ मै हो गया है, क्यो कि कानून नाम की कोई चीज ही नही बची, पुलिस ही गुंडो का साथ दे रही है, अब इन तीनो को उसी तरह से काटा जाये लेकिन धीरे धीरे...

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  5. पुलिस और गवाहों से ऊपर उठ कर अब अदालतों को वैज्ञानिक तौर तरीकों को तव्वजो देनी चाहिए। इसी मामले में वीडियो रिकॉर्डिंग और टेलीविज़न प्रसारणों को को सबूत क्यों नहीं माना गया? शायद द्विवेदी जी कुछ प्रकाश डाल पायें।

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“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”