Friday, July 11, 2008

सांप्रदायिकता






मों का संसार फैला है
आग का अंबार फैला है,
आज फिर किसी शहर में
सांप्रदायिकता का बुखार फैला है।


फिर जल रहा है एक शहर
उलझ के धर्मों के आडंबर में,
देखो, मेरे देश का एक राज्य
धधक रहा है शोलों में।

धूं-धूं कर जल रहा है, घर मेरा,
भेंट चढ़ा राजनीति की।
मेरे घर के सामने जल रहा
उस नेता का भी घर
जिसने धधकाई थी चिंगारी दिल में।


इस पाक भूमि को,
किया है नापाक
अपने इरादों से
छिड़का है जहर जिसमें
अब,
जल रहा है खुद,
आज, उसका भी, अपना कोई
उसी कूंचे में,
जहां जला था कुछ देर पहले
मेरा कोई।

आपका अपना,


नीतीश राज




आज जरा हालचाल ठीक नहीं है, रात से बुखार और जुखाम ने तड़पा रखा है। बड़ी ही मुश्किल से ऑफिस से छुट्टी मिली तो सोचा कि चलो कुछ पुराने पन्ने खंगाले जाएं। देखे तो काफी कविता लिखी हुईं है कुछ खुद पर तो कुछ समाज पर। तो कुछ दिन पहले के हालात को देख कर सोचा कि आज ये पेश करूं। सोच भी रहा हूं कि कविता को पन्नों तक ही सीमित नहीं रहने दूं। कविता का संग्रह बना ही दूं। कैसी लगी, बताएं जरूर? विश्वास ही पूंजी है।


इस कविता में कुछ जुल्म दिखेगा, कुछ मेरे साथ होगया अभी, ऑफिस से बुलावा आगया, आजाओ, सिर्फ बैठे रहना, कुछ करना नहीं, लेकिन आजाओ। हद है...




2 comments:

  1. कविता अच्छी है पर कच्ची है जरा और पकाया कीजिए। विचार उत्तम है।

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  2. कविता अच्छी लगी आपको, शुक्रिया।

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पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”