Thursday, July 24, 2008

इडियट बॉक्स, बेटा और मेरी बेचारगी


ये तो अब रोज की बात हो गई है कि मेरा दोस्त जो कि अभी 4 साल का भी नहीं हुआ है मुझे टीवी पर अपने प्रोग्राम नहीं देखने देता। इस इडियट बॉक्स पर जो कुछ मेरे मतलब का आता है वो मुझे देखने को कतई नहीं मिलता। मैं अपने प्यार दोस्त की शिकायत नहीं कर रहा हूं। पर अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी ही। वैसे भी शिफ्ट हमारी कुछ ऐसी होती है कि देखना हो भी नहीं पाता लेकिन अवकाश (जिस पर बॉस हमेशा से नजर लगाए रहते हैं) के दिन तो देखने की इच्छा होती ही है। कुछ मूड ही फ्रेश हो जाए। या फिर और चैनल क्या कूड़ा चला रहे हैं वो पता भी चल जाए। क्योंकि ऑफिस में तो हम लोग बहुत कूड़ा दिखाते हैं ही। पर हमारा बेटा हमारे सभी प्रोग्रामों पर कुंडली मारे बैठा रहता है। पिता का नाम, मतलब हमारा, ठीक से याद तक नहीं हो पा रहा है लेकिन कार्टून चैनलों के नाम साहबजादे को कंठस्थ हैं। मिडिल क्लास फैमिली में खाना खाते समय अधिकतर परिवार टीवी पर किसी ना किसी चैनल पर हो रही सास-बहू की लड़ाई देखने का शौक रखते ही हैं। फिर साथ ही साथ देखते समय बहू और सास इस प्रकरण को अकारण ही, उस प्रकरण से जोड़ देती है जिसके कारण, टीवी में खिल रहा गुल घर में खिलने लग जाता है।
बहरहाल, हम बात अपने सुपुत्र की कर रहे हैं। उसे याद रहता है कि अब ये कार्टून खत्म हो रहा है तो किस चैनल पर कौन सा कार्टून उस की पसंद का जिसे की उसे देखना है। पहले से ही बात शुरू कर देता है कि अब मेरा वाला वो कार्टून फलां चैनल पर आ रहा है तो अब वहां पर कर दो। वैसे आप को ये बता दूं कि अभी उसे ठीक से नंबर ज्ञान नहीं हुआ है लेकिन लोगो देख कर बता देता कि पापा ने अपना चैनल लगाया है या फिर कार्टून चैनल। साथ ही अपनी मां की तर्ज पर उसे याद है कि अब तो कार्टून चैनल चला नहीं पाएगा क्योंकि मम्मी का पसंदीदा सीरियल...वो...सिंदूरा आंटी वाला....आ रहा है। फिर स्टाइल से बताएगा कि सिंदूरा आंटी को सीरियल में कैसे बुलाया जाता है सिन...
सिन...सिंदूरा...रा...रा....। यदि ये पूछ लो कि सप्ताह में दिन कितने होते हैं? तो, पता नहीं का जवाब जल्द ही निकल जाता है।
मैंने कुछ दिन से गौर किया है कि कई बातें बेटे को ऐसी पता हैं कि जो कि उसे कोई भी नहीं बताता या सीखाता।
जैसे कि जब भी किसी न्यूज चैनल को लगाऊंगा तो वो सिर्फ लोगो देखकर ही यह बता देता है कि मैं कौन सा चैनल देख रहा हूं। खासतौर पर मैं न्यूज चैनलों की बात कर रहा हूं। डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक और एनिमल, हिस्ट्री चैनल आदि के लोगो पहचानने लगा है। शाहरुख खान को तो देखते ही पहचान लेता है। मेरी याद में नहीं आता कि हमारे घर में शाहरुख, आमिर, अमिताभ या किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री का नाम लिया भी जाता हो। अधिकतर टोन पर यानी कि गाने की तरज पर बने विज्ञापन उसे याद हैं। मतलब कि उनकी धुन याद हैं।
कभी-कभी आश्चर्य भी होता है कि ये सब दिमाग पढ़ाई में लगेगा भी या नहीं। कई बार सोचता हूं कि ऐसे याद रखने के मामले से क्या दिमाग तेज होता होगा?
साथ ही कुछ दिन से ऐसा भी महसूस कर रहा हूं कि जब से स्कूल जाने लगा है वो आक्रामक होगया है। स्कूल का असर है या साथ के बच्चों का या फिर इस इडियट बॉक्स का। मैं पहले एक बात यहां पर साफ कर दूं कि हमारे घर में बहुत ही कम समय के लिए टीवी चलता है। २४ घंटे में अधिक से अधिक २ घंटे। कुछ बदलाव तो बढ़ती उम्र के साथ आते ही रहते हैं लेकिन ऐसा बदलाव जिसमें कि वो रिएक्ट करने लगे और वो भी लड़ने के ढंग से तो समझो कि शुभ समाचार तो ये है नहीं। हर बात पर रिएक्ट करने लग जाना तो ठीक नहीं है। रिएक्ट करना अच्छा है तभी आप सीखते हैं लेकिन लड़ने की भावना से रिएक्ट करना तो ठीक नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि लड़ने की भावना उस में ऐसे आगई है जैसे जन्म जन्मांतर से वो लड़ाकू हो।
मैंने कहीं पढ़ा था कि टीवी पर सबसे ज्यादा मारधाड़ कार्टून चैनलों पर ही होती है। शायद इसलिए चाइल्ड साइकलॉजिस्ट ये कहते हैं कि बच्चों को इस इडियट बॉक्स से दूर रखना चाहिए।
टॉम एंड जैरी शो में तो मुझे भी कई बार लगता है कि सबसे ज्यादा हिंसा होती है और उसी हिंसा या यूं कहें कि मारधाड़ को देख कर हम हंसते हैं। शायद बच्चों को भी उससे लड़ाई करना या फिर तरह-तरह के मुंह बनाना ही सीखने को मिलता होगा। लेकिन क्या ‘कहने’ और ‘करने’ में कुछ अंतर नहीं होता है। कितना आसान होता है जुबान से शब्दों को लपेटकर दांतों के बाहर फैंक देना। लेकिन ‘करने’ में खुदा से लेकर अम्मा-बाबूजी सब याद आ जाते हैं। आज कल स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार देखे, बच्चों ने स्कूल में अपने साथी का क़त्ल कर दिया। ये गुस्सा कहां से आया? ये सब कहां से सीखते हैं ये नन्हे नन्हे बच्चे? ये किसका असर है हमारी आने वाली पीढ़ी पर? टीवी का या फिल्मों का या फिर हमारी व्यस्त जिंदगी का? क्या लगता नहीं कि ये बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं? कहीं ये हमारी नाकामयाबी तो नहीं ...?

आपका अपना
नीतीश राज

4 comments:

  1. पिता का नाम बेचारे को कैसे याद हो-कित्ता कठिन तो है.. नितिश राज...अरे, लालू रखते, सरल सा तो याद भी कर लेता. :) तब सिन्दुरा की तर्ज पर बुलाता..ला ला लालू..उउउउ!!

    अभी तो यही मान कर चलें कि दिमाग तेज है, जैसे हमारे पिताजी ने कभी माना था बरसों पहले, वो तो बाद में हमारे हर साल के रेजल्ट उनका हवा महल तोड़ते रहे और हम मुस्कराते रहे.

    ये ही बच्चे एक एक कर ऐसे ही हमें याद दिलाते चलेंगे कि हमारे माँ बाप ने क्या क्या न झेला होगा हमको लेकर. :)


    वैसे, चिन्ता न करें. यह सब नार्मल है बच्चों के लिये. बालक बहुत तरक्की करेगा. अनेकों आशीष और शुभकामनाऐं.

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  2. हर जगह का बस यही हाल है..

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  3. समरी जी, सच कहा है पिता का नाम ही बहुत भारी है बेचारा याद कैसे करे। पर आप लोगों का आशीष रहा तो शायद हमारे हवा महल ना टूटें।

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  4. बच्चे बहुत जल्दी अच्छा बुरा सीखते हैं और इस बुद्धू bakse से तो बहुत कुछ :)

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