Friday, October 24, 2008

मुसलमान की शादी में जाने को आतुर क्यों हो? क्यों?

मेरे एक सहयोगी की हाल ही में शादी थी। शादी में जाने का पूरा प्लान मैंने बना लिया था। जब छुट्टी की बात आई तो जैसे की सभी के ऊपर दायित्व होते हैं वैसे ही मेरे ऊपर भी हैं। ऑफिस के साथ-साथ मैं अपनी सोसायटी में भी काफी एकटिव हूं। ऑफिस की बात बाद में पहले सोसायटी की बात करता हूं। जिस दिन मेरे सहयोगी की शादी थी उस दिन सोसायटी में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तो मेरा वहां पर भी होना जरूरी था। मैंने अपनी बात सभी सोसायटी मैंबर्स के सामने रखी। इस बार मेरे बिना ही ये आयोजन करना होगा। और ऐसा भी नहीं था कि मेरी अनुपस्थिती में इतने बड़े आयोजन में कोई भी व्यवधान या दिक्कत आ सकती थी। सोसायटी के एक एक्टिव मैंबर ने मुझसे जाने का सबब पूछा कि आखिर जाना कहां हो रहा है। मैं टाल गया। फिर बात आई कि दो दिन बाद बिजली विभाग के कमर्चारियों के साथ मीटिंग है। तो उस मीटिंग की अगुवाई मेरे को करनी है। मैं बैकफुट पर था मैंने तुरंत मना कर दिया क्योंकि जिस सहयोगी की शादी में मुझे जाना था उस सहयोगी का रिसेप्शन शादी के दो दिन बाद रखा गया था और ऑफिस के कुछ सहयोगियों के साथ मेरा पहले ही प्लान इन दो दिनों के लिए तय हो चुका था। मेरा इनकार करना वाजिव था। मैंने अपनी बात दोहराई कि इन दो दिन तो मैं उपलब्ध नहीं हूं।
उसी मैंबर ने जिसने की पहले पूछा था कि क्य़ा काम है फिर से सवाल दोहरा दिया। इस बार मैंने बिना झिझक के ये बता दिया कि ऑफिस में मेरे एक सहयोगी.........(नाम) की शादी है। जो नाम मैंने लिया जिसको कि मैं यहां बता नहीं रहा हूं सुनकर उन सब के कान खड़े हो गए। तुरंत जो रिएक्शन था वो मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। क्यों जाना चाहते हो यार, हमें तो लगता है कि कोई जरूरी तो होगा नहीं तुम्हारा जाना, ना भी जाओगे तो चलेगा। मैंने बोला ये आपने कैसे सोच लिया। जवाब था, अरे उस शख्स का धर्म अलग है तो हम ये तो कह ही सकते हैं कि वो आपका भाई-बंधु तो है नहीं, तो सोसायटी के इस आयोजन में तो आपकी तरफ से भागीदारी हो ही सकती है।
मैं चुपचाप सुनता रहा। सब के अपने-अपने तर्क थे। कोई कुछ बता के मुझे रोकना चाह रहा था कोई कुछ बता के। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये लोग मुझे काम के कारण रोकना चाहते हैं या कि कोई और वजह है। मैंने जानने के लिए एक सवाल दोहराया। अरे बिना मेरे भी तो कार्यक्रम आयोजित हो सकता है और फिर ऐसा कोई पहली बार तो हो नहीं रहा है। मैंने पिछले आयोजन का हवाला देते हुए बताया कि काफी मैंबर्स पिछली बार नहीं थे। एक-दो बिना तर्क के कुतर्क सामने रखे गए। तभी एक ने बोला एक मुसलमान की शादी में जाने को इतना आतुर क्यों हो? पहली बार तो मुझे लगा कि ना जाने ये इन्होंने क्या कह दिया? भई, मेरे सहयोगी की शादी और इसमें भी धर्म को सामने रखकर क्यों देखा जा रहा है।
वैसे ये पहली बार ही नहीं था जब कि किसी ने हाल के दिनों में मेरे से ये सवाल पूछा हो। ऑफिस और ऑफिस के बाहर भी इन सवालों से दो चार हो चुका था। लेकिन मैंने कभी भी इन सवालों पर तबज्जो नहीं दी। हाल ही में ऑफिस में ही एक सहयोगी ने ही ये सवाल उठाया था। तब मेरा जवाब था कि यदि वो शख्स तुमको कैफे से कॉफी पिलाता है तो तुम दौड़े-दौड़े चले जाओगे। फिर यदि सवाल उस शख्स की शादी का आता है तब तुम पीछे क्यों हट जाते हो। पहली बात तो वो हमारा साथी है फिर बाद में आता है कि शादी कहां है। उसके बाद भी मेरे ख्याल से तो ये सवाल आता ही नहीं है कि शादी किस धर्म के शख्स की है। और क्या शादी में जाने से दूसरा शख्स उस धर्म का हो जाता है।
अफसोस ये रहा कि जिस दिन उसकी शादी थी उस दिन खबर इतनी ज्यादा आगई कि ऑफिस से हम कई शख्स जा भी नहीं सके। पर रिसेप्शन में हम सभी गए। और इतने लोग गए कि दूल्हे ने पूरा वक्त हमारे साथ ही बिताया और साथ में वो बहुत खुश हुआ। ये एक ऐसी शादी थी कि जिसमें हम सभी धर्म के लोग गए और खूब मजा किया। सवाल करने वालों के मुंह पर ये ऐसा तमाचा था कि फिर अभी तक कोई सामने नहीं पड़ता है मेरे। जब भी मेरी सोसायटी के उन लोगों में से कोई मिलता है तो मैं उन्हें शादी की बात बताना नहीं भूलता और वो वहां से कन्नी काटना नहीं भूलते। ऑफिस में भी बढ़ा चढ़ा कर बताता हूं कि अच्छा है जलने वालों को और जलाओ।
रिसेप्शन का काफी अच्छा इंतजाम किया गया था। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। जो नॉन वेज नहीं खाते थे उनके लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन की भी व्यवस्था थी, और वो भी अलग से। वहां देख कर के लगा कि ऐसा नहीं है कि सभी लोग नॉन वेज खाते हैं, बहुत थे जो कि शाकाहारी थे। उसने हम सब का शुक्रिया किया कि हम लोग इतनी दूर उसके यहां पर हाजरी लगाने पहुंच गए थे। लेकिन कुछ भी हो सवालों के बीच इस रिसेप्शन में जाने का आनंद ही कुछ और आया।

आपका अपना
नीतीश राज

10 comments:

  1. नीतीश जी, यह कोई अनहोनी बात नहीं आज कल माहौल ही ऐसा ही बनाया जा चुका है। वरना हमारे यहाँ तो हाल यह कि कुछ परिवारों में फेरों के स्थान पर निकाह के अलावा सारी रस्में एक जैसी होती हैं। एक मित्र की पुत्री की शादी में तो सारी किस वक्त क्या क्या करना है उन की और मेरी पत्नी मिल बैठ कर सब कुछ तय किया और उसे निष्पादित भी किया।

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  2. आ. द्विवेदी का कथन बिल्कुल सही है ! आपने बहुत सटीक लिखा !
    आपको दीपावली पर्व की हार्दिक बधाई !

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  3. कुछ लोग समय के साथ बह जाते हैं मगर आप जैसे लोग न केवल समय से लडते हैं बल्कि उससे जीतते भी हैं। मैं भी बचपन मे मुस्लिम बहुल मुहल्ले मे रहा हूं। मुहल्ला छूटे ज़माना हो गया मगर आज भी मैं मुहल्ले वालों के लिये वही पुराना नन्हा सा खुराफ़ाती बच्चा हूं।मुहल्ले के ही मो अकबर मंत्री भी बने,वो स्कूल मे भी सीनियर थे।उन्होने भी आज तक मुझे पत्रकार नही वही मुहल्ले के छोटे भाई जैसा प्यार दिया।मुहल्ले के रिश्ते आज-तक नही बद्ले।समय ज़रुर बदला और कुछ लोग भी बदले मगर आप और जैसे बहुत से लोग नही बद्ले जो आज समाज के लिये बहुत ज़रुरि है।सलाम करता हूं आपको।

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  4. तकलीफ होती है जब कोई धर्म या दीन का वास्ता देकर अडंगा लगाता है। हालांकि इसमें आज के हालात का भी हाथ है फिर भी यह सत्य है कि हिंदुस्तान ही नहीं पूरे एशिया, अफ्रीका में आपका धर्म ही आपकी पहचान है।

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  5. सर क्या बताऊं.. ऐसा मेरे साथ भी हो चुका है.. मेरे सबसे घनिष्ठ मित्रों में एक है अफ़रोज आलम.. सच कहूं तो जैसा उसका व्यवहार है और जितना सीधा है उतना तो मैं अपने किसी भी मित्र को नहीं देखा हूं..
    मेरे पिताजी के सबसे घनिष्ठ मित्र भी मुसलमान ही हैं.. क्या कहूं खानदानी बिमारी है.. ;)

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  6. शायद कार्ड में शुद्ध-शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है - लिखा हो तो फेंस पर बैठे हम जैसे लोगों की झिझक खत्म हो जाये!

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  7. आप के साथ ऐसा हुआ सोचनीय है,...पर अक्सर होता नहीं है...मुझे किसी ने नहीं रोका आज तक..आपने छोटी सी बात को खींच कर लंबा कर दिया ...वैसे ऐसे टॉपिक वाली पोस्ट हिट बहुत होती है

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  8. नीति‍श जी, दोस्‍ती से बड़ा धर्म तो वैसे भी कोई नहीं है, धर्म तो सि‍र्फ बाँटने का काम करता रहा है।
    (शादी की मि‍ठाईयॉं अकेले जाकर खा आए।
    पर दीवाली की मि‍ठाई मेल कर देना जी।)

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  9. मिहिरभोज जी से सहमत, आजकल हिन्दी ब्लॉग जगत में ब्लॉग का "खास" टाइटल डालने का फ़ैशन चल रहा है…

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  10. संकीर्ण मानसिकता वाले लोग किसी भी धर्म में सहज ही बहुतायत मिलेंगे.ऐसे लोग धार्मिक नही तंगदिल होते हैं बस.धर्म इनके लिए एक बहाना होता है विद्वेष को पालने पोसने के लिए.

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पोस्ट पर आप अपनी राय रख सकते हैं बसर्ते कि उसकी भाषा से किसी को दिक्कत ना हो। आपकी राय अनमोल है, उन शब्दों की तरह जिनका कोईं भी मोल नहीं।

“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”