Wednesday, July 29, 2009

आपके अहम दिन के लिए ‘ये’, समीर लाल जी

‘.....यूँ ही कभी शौकिया लेखन शुरु किया था, आम हल्की फुल्की भाषा में लिखता गया. जब जो मन में आया, लिख दिया. सबने बहुत उत्साहित किया, सम्मानित किया, स्नेह दिया और मैं अपनी ही रौ में बहता लिखता चला गया’। जब मन भर आता है उसका तो उसकी कलम से ऐसे शब्द निकल आते हैं।

जब ब्लॉगिंग की शुरूआत की थी तो एक शख्स हमेशा ही हौसला अफजाई करने के लिए टिप्पणी कर जाता था। ये पता भी नहीं चलता था कि कब-कब में वो टिप्पणी कर जाते थे। यहां आप ने पोस्ट की और वहां आपके ब्लॉग पर टिप्पणी चस्पा हो गई। जब तक ब्लॉगवाणी में आपकी पोस्ट रिफ्लेक्ट होती उतनी देर में आपके खाते में एक टिप्पणी होती। नए ब्लॉगर की दौड़ कुछ जगहों तक ही होती थी तो ब्लॉगवाणी पर देखा करते कि यार इस शख्स की पोस्ट आए तो देखें कि कौन हैं, क्या और कैसा लिखता हैं वगैरा-वगैरा।

धीर-धीरे उनको जानकर या यूं कहें कि पढ़कर बातचीत शुरू हुई। और फिर कई बार कई विष्यों पर उनसे राय लेने लगे। खास तौर पर दो बातें उनके बारे में बनी कि उन्होंने ऊल जुलुल टिप्पणियों से बचने के लिए अपने ब्लॉग पर मोडरेशन ऑन कर रखा है और ये ही सलाह वो हमेशा ही सब को देते हैं। पर बावजूद इसके वो आपकी टिप्पणियां नहीं पढ़ते। उसका शिकार मैं एक नहीं कई बार हो चुका हूं। पहले मैं उनसे टिपिया कर के ही बात किया करता था पर बाद में उन्हें मेल करने लगा।

दूसरी बात, हिंदी ब्लॉगरों में शायद ही किसी को पता चलता हो कि वो शख्स कैसे हर दिन इतनी मशरूफियत के बावजूद इतनी सारी टिप्पणी करता है। गत वर्ष उनको भी कई बार निशाना बनाया गया कि वो बिना पढ़े ही टिप्पणी करते हैं। उस के जवाब में उन्होंने जो लिखा था वो खासकर ब्लॉगवाणी में सबसे ज्यादा पढ़ने और पसंद की जाने वाली पोस्ट बन गई थी। हिंदी ब्लॉगिंग का हर शख्स उस शख्स को मनाने में जुट गया था कि ब्लॉगिंग और टिपियाना बंद मत करो। आलसी काया पर कुतर्कों की रजाई के जरिए मुंह तोड़ जवाब दिया था उन्होंने।

एक बार मुझे उनके तर्कों से इत्तेफाक नहीं था। फिल्म गुलाल उन्हें अच्छी नहीं लगी साथ ही उसके गाने भी। वहीं मेरे को वो फिल्म पसंद आई थी और साथ ही उस फिल्म के गाने भी। तब उनको संबोधित करके मैं आपसे इत्तेफाक नहीं रखता समीर जी’ एक पोस्ट लिखी थी और उस पर उनकी टिप्पणी काफी संयम भरी थी और जो बात उन्होंने लिखी थी उसको कई टिप्पणीकारों ने सराहया भी था। बहुत-बहुत धन्यवाद हमारा हौसला अफजाई करने का और कामना ये ही है कि आप यूं ही टिपियाते रहें।

आज उन्हीं समीर लाल उड़न तश्तरी वाले समरी लाल जी का जन्मदिन है। हार्दिक बधाई के साथ ये पोस्ट उन्हीं को समर्पित क्योंकि ब्लॉगिंग के अध्याय के रूप में मैंने उनसे काफी कुछ सीखा है।

जन्मदिन मुबारक!!!!!!!

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, July 28, 2009

सावन की पहली बारिश, चलो थोड़ा रुमानी हो जाएं

बारिश में भीगने का एक अलग आनंद होता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता और जो कर पाता है वो कवि बन जाता है। ये एक ऐसी अनुभूति है जो आपको अंदर तक भीगो कर रख देती है। सावन के तीसरे सोमवार को २००९ की पहली बारिश हमारे यहां पर हुई। इससे पहले बारिश तो हुई है पर उसने उमस को जन्म दिया और धरती की तो दूर हमारी प्यास तक नहीं बुझा पाई। पर आज दोपहर से जो बारिश शुरू हुई उसने देर रात तक धरती और हमें तर किया।
झमाझम सावन बरस रहा था और मैं दोनों हाथ फैलाए सड़क पर अपने अंदर मन तक भीगने को महसूस कर रहा था।

आज दोपहर में जब मैं थ्री व्हीलर में बैठने जा रहा था तो दो-चार बूंदों ने हमारा स्वागत किया तो फ्लाइओवर के नीचे रूक कर अपने को भीगने से बचा लिया। इस बात का पूरा भरोसा था कि ये बारिश चंद मिनट के लिए ही होगी और ऐसा हुआ भी। फिर ठहरे हुए हम राह पर निकल पड़े। करीब ६-७ किलोमीटर का सफर तय किया होगा कि थ्री व्हीलर के सामने के शीशे पर एक दम से मोटी-मोटी बूंद गिरने लगी। बादलों और बूंदों की रफ्तार से इस बात को समझने में देर नहीं लगी कि आज कुछ मिनट तक तो राम जी दिल खोलकर बरसेंगे।

थोड़ी देर में ही काले बादलों ने थ्री व्हीलर में मुझे पूरा भीगो दिया। मैंने कहा, अरे यार, पूरा भीग गया....(थोड़े अंतराल के बाद)...चलो अच्छा है कि बारिश तो हुई। थ्री व्हीलर वाला बोला, सर इस बारिश को कौन बुरा कह सकता है खासतौर पर यहां पर और वो भी इस वक्त पर। यकीनन इस मौसम की पहली बारिश थी ऐसा लग रहा था।

अब भीग गया था तो सोचा कि थोड़ा रुमानी हो ही लिया जाएं। मैंने मोबाइल, पर्स, पेपर्स सब बैग में डाला और जींस को नीचे से मोड़ दिया। अब भीगो जी भरकर। थ्री व्हीलर को घर से करीब सौ मीटर दूर रोकर पैदल आने का फैसला किया। झमाझम सावन बरस रहा था और मैं दोनों हाथ फैलाए सड़क पर अपने अंदर मन तक भीगने को महसूस कर रहा था। बारिश करीब १५-२० मिनट तक लगातार होती रही। वो सौ मीटर का सफर मैंने २०-२५ मिनट में पूरा किया होगा जब तक की बारिश बंद नहीं हो गई थी।

मैं दोनों हाथ फैलाए सड़क पर चल रहा था, पीछे बैग टंगा हुआ था। दुनिया देख रही थी एक जवान में छोटा बच्चा। वो अल्हड़ बच्चा, वहां कूदता जरूर है जहां पानी जरूर होता है। बारिश इतनी तेज थी कि आधी सड़क तक पानी भर गया था। मैं अपने बचपन में लौटता हुआ उस छोटे बच्चे के साथ पानी में छप-छप कर रहा था जिसकी मम्मी उसे इस तरह कूदने पर डांट रही थी। मुझे कूदता देख उन्होंने अपनी छतरी बंद की और हमारे संग अपने बचपन के दिनों में लौट चलीं।

आपका अपना
नीतीश राज

Monday, July 27, 2009

क्या सारे अखबार के संपादक मर्द हैं जो कि लड़कियों की तस्वीरों को प्राथमिकता देते हैं?

चार दिन की छुट्टी ली थी और बेगम ने चाहा कि क्यों ना आबो हवा बदल ली जाए। पर उन्होंने यहां सोचा और जब तक हम कुछ फैसला ले पाते उससे पहले वहां उनकी मौसी ने उसे कर भी दिया। यानी की वो अपने बच्चों के साथ हमारे यहां पर आबो हवा बदलने के लिए आ पहुंची। उनका बड़ा बेटा थोड़ा दुखी दिखा क्योंकि 12वीं में उसके सिर्फ 88 फीसदी अंक आए थे। ये बात गर्मी की छुट्टियों की है।

मैंने साले साहब को समझाया की ये तो बहुत अच्छे मार्कस हैं फिर क्यों चिंता कर रहे हो। उसके जवाब ने मुझे थोड़ा संतुष्ट किया। वो बोला, जीजाजी, ‘मैं चाहता था कि दिल्ली में मेरा एडमिश्न एक अच्छे कॉलेज में आसानी से हो जाए पर अब लगता है कि मुझे दौड़ भाग करनी होगी। दूसरी बात कि मैंने कुछ कॉम्पटीशन टेस्ट देने हैं उसमें पूरे भारत से बच्चे एग्जाम देते हैं। साथ ही बारहवीं में जिनके मार्कस अच्छे होते हैं उनको प्राथमिक्ता दी जाती है। मेरी चिंता है कि कहीं मैं पीछे ना रह जाऊं’। दिल्ली आने का दूसरा कारण ये भी था कि अखबार और टीवी के माध्यम से कॉलेजों के बारे में पता आसानी से चल जाता है। सुबह से ही पूरे dedication के साथ वो लग जाता। सबसे पहले सारे अखबार अपने पास रख लेता है और देखता कि कौन-कौन से कॉलेज अच्छे हैं वहीं साथ ही कि किन कॉलेजों में फॉर्म भरने चाहिए। सुबह से वो लंबी लाइन, दौड़-धूप, यहां जाना-वहां जाना और फिर शाम को वापसी।

एक दिन वो कई अखबार लेकर मेरे सामने आया, बोला, ये अखबार वाले हमारी फोटो क्यो नहीं छापते? मैंने पूछा कि क्या हुआ तुमने ऐसा क्या कर दिया कि तुम्हारी फोटो छापी जाए। जवाब में उसने कहा कि तो इन लड़कियों ने क्या कर दिया है जो हर पेपर में लड़के छोड़ लड़कियों के फोटो छपते हैं। हम लोग सुबह से शाम तक लाइन में नहीं लग रहते हैं, क्या हमारे लिए कॉलेज जाने का ये पहला मौका नहीं है? हेडिंग है कॉलेज जाने की तैयारी, तो दिखादी उछलती लड़कियां, कॉलेजों में लंबी लाइन तो दिखा दी 4-5 लड़कियां, आज कॉलेजों में भरे गए लाखों फॉर्म तो 2-3 लड़कियां बैठी हुई फॉर्म भरती हुई दिखा दी। स्कूल के बाद कॉलेज की तरफ बढ़े कदम, दो लड़कियां चलती हुई दिखा दी। क्या जीजाजी, हम लड़कों के लिए कॉलेज जाना जिंदगी की एक नया अध्याय नहीं है? क्यों हम लड़कों के लिए पेपरों में जगह नहीं है? क्या सारे अखबार के संपादक मर्द हैं जो कि लड़कियों की तस्वीरों को प्राथमिकता देते हैं?

मैं उसे जवाब के रूप में एक झूठी और फीकी सी स्माइल देकर रह गया। वो तो अपनी बात कह कर चला गया। वो जितने अखबार छोड़ गया था उसमें पिछले कई दिनों के अखबार थे। वो कुछ अखबार आगरा से भी लेकर आया था कुछ दिल्ली के थे और एक ही न्यूजपेपर नहीं थे, तीन-चार तरह-तरह के अखबार। मैंने गौर करना शुरू किया तो पाया कि उसकी बात काफी हद तक सही ही है। फिर मैंने पेपर में छपने वाले एड देखने शुरू किए। तो पाया कि एक एड छपा था कि कपड़ों पर 40 फीसदी की छूट और तस्वीर छपी थी एक मॉडल की ब्रा और पैंटी में। मुझे तो समझ नहीं आया कि ये किस पर छूट थी अंडर गारमेंट्स पर या फिर कपड़ों पर। देखा कि पूरे कपड़ों पर थी ये छूट फिर ऐसी तस्वीर क्यों छापी गई।

ऐसे विज्ञापन तो आम हैं, एक लड़की रेजर के साथ खड़ी हुई है, भई रेजर की लड़की को क्या जरूरत पर फिर भी एड में छपी हुई है। मर्दों की सेंडो बनियान को हाथों में लेकर खड़ी हैं एक महिला आखिर क्यों? सेंडो बनियान की उन्हें क्या जरूरत। सेंडो और ब्रीफ के लिए भी लड़कियों की जरूरत महसूस होती है। आखिर क्यो?

टीवी पर तो हमेशा इस बात की शिकायत करते हैं कि अंगप्रदर्शन हो रहा है पर अखबारों में भी जीना मुहाल कर दिया है। कहते हैं कि टाइम्स ऑफ इंडिया के डेल्ही टाइम्स (पंजाब केसरी के बाद डेल्ही टाइम्स ही बना था दूसरा पंजाब केसरी) के पहले सबसे ज्यादा बिक्री पंजाब केसरी की हुआ करती थी वो भी सिर्फ एक दिन। क्योंकि उसकी गुरुवार की बिक्री पूरे हफ्ते के अखबार से ज्यादा हुआ करती थी। क्यों? कारण था कि गुरुवार को सेलिब्रेटीज की बोल्ड रंगीन तस्वीरें हुआ करती थी, जो अब भी होती हैं।

कई बार सोचता हूं कि क्या लड़कियां सिर्फ टीआरपी जोन की वस्तु मात्र रह गई हैं? और दूसरी बात साले साहब की, क्या सारे अखबार के संपादक मर्द हैं जो लड़कियों की तस्वीरों को प्राथमिकता देते हैं? वैसे ये तो बात सही है मर्द प्रधान समाज में शायद ऐसा ही होता है! सोचने पर तो मजबूर हैं.....। अब तो सुधरो अखबार वालों, यारों जब देखो हर आईटम पर लड़की की तस्वीर ना लगा दिया करो।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, July 24, 2009

आखिर आ ही गई अक्ल

१८ जुलाई २००९ को मैंने यूपी में हाल ही में उठे उस बवंडर के बारे में एक पोस्ट ‘ये रेप की राजनीति है यूपी वालों, मायवती की दोगली नीति।’ लिखी थी जिसमें जिक्र किया गया था कि राजनीति का, जो उठी है रेप से। मैंने उस लेख के जरिए कई सवाल खड़े किए थे ‘.....इज्जत की कीमत तो आप २५ हजार दे रही हैं पर उस कीमत को चुकाने के लिए ५ लाख खर्च कर रही हैं। हेलिकॉप्टर से डीआईजी जगह-जगह जाते हैं और खर्च करते हैं करीब ५ लाख सिर्फ फ्यूल में। क्या ये बेहतर नहीं होता कि उस जिले के वरिष्ठ अधिकारी उस पीड़ित परिवार को मुआवजा दे देते……’।

अब सरकार ने ये फैसला किया है कि अब जिस जिले में रेप जैसा कुकर्म होगा तो उस जिले के वरिष्ठ अधिकारी को ही जलील होने के लिए और साथ ही पैसे पहुंचाने के लिए पीड़ित के परिवार वालों के पास जाना होगा। ये फैसला आने वाले दिनों के लिए काफी अच्छा है। क्यों हर बार एक प्रदेश के डीआईजी रैंक के अफसर को अपने ही डिपार्टमेंट के कुछ नाकारा लोगों की नाकामी की कीमत के एवज में अपनी गर्दन झुकानी पड़े। अब जो होगा नाकाम वो ही जाएगा शर्मिंदा होने के लिए। जो भी हुआ अच्छा हुआ अब फिजूलखर्ची तो रुकेगी ही और शायद खुदा ना करे कि कोई रेप का पीड़ित हो पर यदि कोई होता है तो ज्यादा से ज्यादा मुआवजा मिल सके।

कौन कहता है कि ब्लॉग नहीं पढ़े जाते, क्या मालूम हमारी पोस्ट को पढ़कर ही किसी ने ये बात आगे रखी हो। विभाग के अधिकारियों को ज्ञान मिलने के बाद ये फैसला ले लिया गया हो। हो तो कुछ भी सकता है।

आपका अपना
नीतीश राज

ये दो बयान हैं एक मिट्टी के

अब इस बात को ही आगे बढ़ाता हूं, पिछली पोस्ट (मरवा दी आतंकवादियों से अपनी बेटी, चुप क्यों बैठे हो, क्या वो हत्यारे तुम्हारे भाई हैं?) में कई ब्लॉगर भाइयों ने समझा कि मैं पुरानी बातों पर से पर्दा उजागर कर रहा हूं। पर नहीं मैंने बात छेड़ी थी बिल्कुल नई। क्योंकि कुछ दिन पहले ही शोपियां से महज कुछ किलोमीटर दूर एक लड़की को मार दिया गया और परिवार का कहना है कि लड़की को बेमतलब, बिना वजह मारा गया। और मारने वाले हमारे देश के दुश्मन आतंकवादी हैं। पर किसी भी संगठन ने इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई।

वहीं यदि देखें तो शोपियां केस पर ही दो तरह के बयान पढ़ने को मिले हैं। उसी मसले पर मैंने कुछ पढ़ा है वो आपको भी पढ़ाता हूं.....अब उन से ही मैं ये सवाल पूछना चाहता हूं कि अब क्यों चुप हैं ये अलगाववादी। क्या अब उनकी मां-बहन के साथ अन्याय नहीं हुआ।
"......शोपियां के लोगों को सलाम कि भारतीय व्यवस्था से न्याय की आशा उन्होंने नहीं छोड़ी है। शोपियां में आंदोलन चला रही मजलिस-ए-मुशावरत ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है। हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम और विधि विशेषज्ञ सैयद तसद्दुक हुसैन सीबीआई जांच चाहते हैं। उनकी मायूसी के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। मुशावरत ने चेतावनी भी दे दी है कि इंसाफ के लिए वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक जाएगी। दुनिया के मुस्लिम मुद्दों पर विचार के लिए अमेरिकी प्रशासन की विशेष दूत फारहा पंडित से संपर्क करने की आवाजें उठने लगी हैं।"
वहीं दूसरी तरफ ये भी पढ़ा था....
".....हमारे लिए उससे अधिक चिंताजनक आसिया और नीलोफर केस का अंतरराष्ट्रीयकरण होना चाहिए। किसी भी फौजी तैयारी से हजार गुना ज्यादा असरदार कश्मीरी अवाम का यह यकीन होगा कि भारत का निजाम नाइंसाफी नहीं होने देगी। शोपियां का हादसा एक केस स्टडी है कि हम राष्ट्र राज्य की जड़ों को किस तरह मजबूत करना चाहते हैं। न्याय और अन्याय का अहसास तय करेगा कि रूस के चेचेन्या और चीन के उइगुर सूबे से कश्मीर क्यों और किस तरह भिन्न और भारत का अभिन्न अंग है।"

हैं ना दो अलग-अलग बयान, क्या कहेंगे? ये दोनों बयान कश्मीर से ही निकले हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक जैसे ही लोग वहां पर रहते हैं पर हां अभी वहां को काफी सुधार की गुंजाइश बाकी है।

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, July 23, 2009

मरवा दी आतंकवादियों से अपनी बेटी, चुप क्यों बैठे हो, क्या वो हत्यारे तुम्हारे भाई हैं?

क्यों मेरे ब्लॉगर भाइयों, देश की सेना पर सवाल उठाने से तो तुम्हारे हांथ नहीं कांपते पर आतंकवादियों के खिलाफ....।


सभी को याद होगी शोपियां की वो घटना जिसने भारत में एक बहस को जन्म दिया था। कई बार ये भारत कहता रहा है कि जम्मू-कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है फिर भी भारत की अवाम और निजाम दोनों पर ये इल्जाम लगता रहा है कि वो उनके साथ अपनों जैसा व्यवहार नहीं करते। राज्य में घुसपैठियों-आतंकवादियों के कारण हमेशा ही सेना अपनी जान दांव पर लगाकर रक्षा करती रहती है। पर जब शोपियां केस हुआ तो इस इल्जाम ने राज्य में सेना के होने पर ही सवालिया निशान लगा दिया। 29 मई को शोपिया में दो युवतियों के साथ रेप फिर हत्या का मामला सामने आया था। पूरा जम्मू-कश्मीर लामबंद हो गया था। अलगाववादियों ने आह्वान किया कि शोपिया चलो। अलगाववादियों के भड़काने पर तब पूरा कश्मीर सड़कों पर उतर आया। सरकार ने भी एक नहीं दो-दो बार जांच और पोस्टमार्टम करवाए। पहला पोस्टमार्टम करने वालीं डॉक्टर से वहां के लोगों और भाइयों ने कुरान पर हाथ रखवाकर पूछा कि क्या रेप हुआ तो वो फूट पड़ीं और बता दिया कि लगता तो है कि १५-१८ लोगों ने रेप किया था। तो देश भर से आवाज़ उठी कि जिन्होंने भी रेप किया है उन्हें सज़ा जरूर मिलनी चाहिए।

फिर एक लड़की शिकार हुई है वहीं श्रीनगर के शोपियां में। पर इस बार ये बर्बरता पुलिस ने नहीं आतंकवादियों ने मचाई है।


अब अलगाववादियों की बारी थी और ४७ दिन तक कश्मीर की सड़कों पर कोहराम मचा रहा। मजलिस-ए-मुशव्वरात ने हड़ताल का आह्वान किया सभी दुकानें और बिजनेस प्रतिष्ठान पर वो ऐसे हावी हो गए जैसे कि वो खुद सरकार हों और जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।


आप सोच रहे होंगे कि मैं गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहा हूं? क्योंकि फिर एक लड़की शिकार हुई है वहीं श्रीनगर के शोपियां में। पर इस बार ये बर्बरता पुलिस ने नहीं आतंकवादियों ने मचाई है लेकिन हर बार आवाज़ उठाने वाले अलगाववादी इस पर पूरी तरह से खामोश हैं। करीब तीन-चार दिन पहले तीन आतंकवादी रात में एक लड़की के घर में रुके, फिर खाना खाया और जाते-जाते उस लड़की को खाने का नजराना उसकी मौत के रूप में दे गए वो भी बिना वजह। उन्होंने लड़की को गोलियों से भून दिया। और ये सब हुआ महज शोपियां से दस किलोमीटर की दूरी पर। उस दसवीं की छात्रा के जनाजे में कोई नेता, अलगाववादियों की तरफ से कश्मीरियों का रहनुमा, यहां तक कि गांव के लोग भी शरीक नहीं हुए। ना ही किसी पार्टी ने हड़ताल का आह्वान किया ना ही किसी ने कोई पुकार लगाई ना ही कोई सड़कों पर उतरा। क्योंकि वो तीनों आतंकवादी थे।

उस दसवीं की छात्रा के जनाजे में कोई नेता, अलगाववादियों की तरफ से कश्मीरियों का रहनुमा, यहां तक कि गांव के लोग भी शरीक नहीं हुए।


मैं इधर पुलिस वालों को क्लीन चिट देने नहीं बैठा हूं। मैं यहां पर देश के धोखेबाजों से पूछने बैठा हूं कि एक लड़की की मौत पर बवाल तो वहीं दूसरी की मौत पर सौतेली नीति क्यों? यदि एक मौत की कीमत अलगाव है तो दूसरी मौत की कीमत भी अलगाव होनी चाहिए। क्यों अब वहां के कट्टरपंथी आगे नहीं आ रहे हैं उन लोगों को सजा दिलाने के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठा रहे हैं। क्या वो आतंकी उनके भाई है?


ये वो ही शोपियां है ना जहां पर उन दो मासूमों की मौत के बाद बाद सियासत की आग भी खूब लगी थी। अलगाववादियों ने सेना पर निशाना साधा था, राज्य से बाहर निकालने की बात कही थी। लोगो का जीना मुहाल हो गया था। पर अब क्या हुआ कश्मीर के चाहने वाले, मौकापरस्त कौम कहां है? क्यों आगे आकर इसी सरकार से दर्ख्वास्त करती कि इन आतंकवादियों को निकालो यहां से। पर पहले खुद इन्हें पनाह देना बंद करना होगा। अफसोस, इस घटना पर अब कोई आवाज उठानेवाला भी नहीं है।


क्यों मेरे ब्लॉगर भाइयों, देश की सेना पर सवाल उठाने से तो तुम्हारे हांथ नहीं कांपते पर आतंकवादियों के खिलाफ लिखने पर तुम्हें क्या हो जाता है। जनतंत्र है...जनतंत्र.....जवाब दो


आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, July 22, 2009

नींबू के आकार के सेब और आम, अब तो इनसे ही चलाना है काम।

कई दिन से हमारी बेगम कह रहीं थीं कि जब भी कुछ काम कहो, हर बार बहाना बना देते हो कि समय नहीं है। कभी तो घर परिवार के कामों के लिए भी समय निकाल लिया करो। वो जब भी ऐसा कहती हैं तो जानता हूं कि काफी दिनों के बाद ही कह रही हैं तो जरूर से एक-दो काम नहीं लिस्ट होगी कामों की। बस दिक्कत ये है कि कई बार ये लिस्ट इतनी बड़ी होती है कि दिन-ब-दिन करते हुए हफ्तों में जाकर काम खत्म होते हैं। मैंने सोचा कि इस बार की पूरी छुट्टी बेगम के काम के नाम मतलब हमारे घर के कामों के नाम कर देते हैं।

सुबह से ही काम में लग गए। कई काम दोपहर तक निपटा दिए गए थोड़ा आराम करने के बाद शाम को कहा गया कि आज जो साप्ताहिक सब्जी मार्केट लगती है वहां से सब्जी ले आते हैं। हम भी सब्जियों के दामों को आसमान में चढ़ते हुए देख तो रहे ही हैं शायद बाजार में ही सस्ती मिल जाए।

जब बाजार पहुंचे तो एक-दो रु तो कम जरूर मिली सब्जी पर यहां भी दाम आसमान छूते ही नजर आए। सबसे मजेदार बात तो लगी कि पहले चटनी के लिए पोधीना, धनिया और हरी मिर्च एक साथ १० रु की लेते थे इस बार तो देने से इनकार कर दिया गया, सब अलग-अलग मिलेंगी। अरे भई १० की दे दो चाहे थोड़ी यहां से काट लो वहां बढ़ा दो, पर नहीं। टमाटर ३० से नीचे नहीं मिले। चंद सब्जी में ही २०० रु खत्म।

अब हम बढ़ चले फल की तरफ। जानते तो थे कि यहां पर कम दाम की उम्मीद ना ही करें तो बेहतर। पहले बात सेब की, एक ठेले वाले भाईसाहब आवाज़ लगा रहे थे सेब ले लो सेब। बेटा हमें वहां ले गया। बड़े आश्चर्य के साथ हमने कहा कि क्या ये सेब हैं? पत्नी बोलीं, हां, ये खट्टे-मीठे सेब होते हैं। इनका आकार इतना ही होता है छोटे अमरूद की तरह। दाम ४५ रु किलो। बेगम से हमने कहा कि छोटे हैं आधा किलो ले लो इसमें ही काफी आजाएंगे।

अब बारी थी आम की। जो आकार में बड़े थे उनके दाम उनके आकार की तरह ही कुछ ज्यादा था। ६० रु के एक किलो, आदमी क्या खाए, क्या स्वाद ले। तो एक किलो में कुल चार-पांच आम चढ़े जो कि दो बार में ही खत्म हो जाएंगे। तो बढ़े चूसने वाले आमों की तरफ। देख कर लगा कि थोड़े बड़े आकार के नींबू रखे हुए हैं। इनके दाम भी कोई कम नहीं थे, ४० रु किलो। तो दिल को बहलाने के लिए २ किलो ये भी ले आए जिस के कारण थैले का वज़न भी बढ़ गया और दिल को तसल्ली भी हो गई की तीन किलो आम ले आए हैं जम कर खाएंगे। साथ ही साथ पत्नी को भी बता दिया कि देखो १४० रु में तीन किलो आम लाए हैं यानी ४७ रु किलो।

हम दोनों घर में आमों को खाते हुए मुस्कुरा रहे थे। आम के आकार ने हमारे पर्स का आकार इतना छोटा कर दिया कि एक छोटे से परिवार पर ३७५ रु ढीले हो गए। सोचता हूं कि शरीर ओवरवेट हो रहा है तो कुछ दिन जमकर डाइटिंग क्यों ना कर लूं....।

आपका अपना
नीतीश राज

Sunday, July 19, 2009

अंग्रेजों की नीति अपना रहा है अमेरिका, भारत-पाक को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है।

किसी भी देश का कोई प्रतिनिधि यदि किसी देश का दौरा करता है तो सबसे पहले माना ये जाता है कि दोनों देशों के बीच संबंध मधुर होंगे और साथ ही कुछ नई राह खुलेंगी। कुछ समझौतों भी हो सकते हैं साथ ही कुछ नए प्रोजेक्ट पर भी चर्चा होगी। और यदि वो देश आतंकवाद का शिकार रहा है तो फिर आतंक से निपटने की बात भी होगी।

जब अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत के दौरे पर मुंबई पहुंची तो लगा कि भारत-अमेरीका के रिश्तों में ये एक अच्छी शुरूआत होगी। अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति के पद से चूक चुकीं हिलेरी ने भारत में आकर रिश्तों को आगे तो बढ़ाया पर इस रिश्ते पर सवाल भी खड़ा कर दिया।

हिलेरी क्लिंटन ने मुंबई में 26/11 आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी साथ ही उसकी तुलना अमेरिका में हुए 9/11 हमलों से कर दी। ताज होटल के कर्मचारियों के जज्बे की तारीफ और बहादुरी की तारीफ की “....मैं आपके जज्बे को सैल्यूट करती हूं...मैं सलाम करती हूं मुंबई के साहस को ...”। हिलेरी वहां मौजूद थी जहां आंतकवादियों ने क़हर बरपाया था। ताज होटल की लॉबी में वो उस जगह पर मौजूद थीं, जहां 26/11 की याद में 'ट्री ऑफ लाइफ' बनाया गया था।

एक तरफ तो हिलेरी ने देशवासियों को ये याद दिला दिया कि अमेरिका भारत के साथ है आतंकवाद की लड़ाई में। पर दूसरी तरफ ट्री ऑफ लाइफ के पास खड़ीं हिलेरी ने पाकिस्तान की तारीफ में कसीदे भी पढ़ दिए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी आतंकवाद को खत्म करने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। सिर्फ वो यहीं पर नहीं रुकी उन्होंने ये भी कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ ठोस कदम उठा रहा है। यहां इस बात का हवाला देने का क्या मतलब। क्या वो यहां पर पाक की पैरोकार बन कर आईं हैं। शायद नहीं क्योंकि उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये कह दिया था कि वो सिर्फ भारत-अमेरिका के रिश्तों पर ही बात करेंगी। तो फिर पाकिस्तान की तारीफ करने का क्या मतलब? या वो भारत में अमेरिका का स्टेंड साफ कर रहीं थी कि अमेरिका क्या सोचता है?

हाल ही में जरदारी ने कहा था कि अमेरिका पर 9/11 हमलों के बाद पाकिस्तान के लिए ही पाक टुकड़ों पर पलने वाले आतंकवादी खतरे का सबब बन चुके हैं। हिलेरी जी को शायद ये नहीं पता कि पाकिस्तान भारत सियालकोट सीमा पर अपने बंकर खड़े कर रहा है। यदि अफ्गानिस्तान का मामला या यूं कहें कि गृह युद्ध की नौबत नहीं होती स्वात, बलुचिस्तान, लाहौर में तो पाकिस्तान अपनी सीमा से सेना कम नहीं करता

इस सब बातों को देखकर लगता है कि अमेरिका फिर दोतरफा चाल चल रहा है। एक तरफ तो भारत के साथ मिलकर आतंकवाद खत्म करने की बात कर रहा है वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान को भी क्लीन चिट देने में लगा हुआ है। इस कूटनीति को भारत को समझना चाहिए और हो सके तो कुछ मुद्दों पर अमेरिका का हस्ताक्षेप बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, July 18, 2009

ये रेप की राजनीति है यूपी वालों, मायवती की दोगली नीति।

माया जी भी तो कुछ इसी लहजे में कभी मुलायम सिंह के परिवार की बेटियों को रेप के एवज में अपने मुस्लिम साथियों से ४ लाख देने की पेशकश कर चुकी हैं।

मैं किसी को गाली दूं तो सब ठीक पर जब कोई मुझे गाली दे तो मुंह तोड़ने की बात करूं। मैं तुम को तमाचा मारूं तो तुम को कोई अधिकार नहीं कि तुम मुझ पर कोई भी पलटवार करो। पर तुम मुझे मारो तो ये मेरा अधिकार है कि मैं तुम्हारी हड्डी पसली तोड़ दूं। ना शिकायत, ना केस, सिर्फ फैसला वो भी मेरे पक्ष में। कुछ यूं ही चल रहा है ये खेल यूपी में।

यूपी में सियासत में जो खेल चल रहा है उसकी आग बहुत पहले से लग चुकी थी। पर यहां एक छोटी सी भूल हो गई रीता बहुगुणा से। वो भूल गईं कि जिस कारण आज उनकी पार्टी केंद्र में अपने जनाधार जमाए बैठी है और बीजेपी विपक्ष में ही खूंटा गाड़े बैठी है उसके पीछे का सच क्या है? सिर्फ उसी हार के कारण आज भी बीजेपी में हाहाकार मचा रहता है। वरुण के जहरीले भाषण या फिर पीएम इन वेटिंग के आरोप या फिर मोदी की चुनाव के बीच में घपलेबाजी को हार की एक वजह माना जाता है। याने ज्यादा जुबान खोलेंगे तो समझो कि हारोगे।

रीता जी शायद भूल गईं और उसी जहरीले भाषण की तरफ बढ़ गईं। वो विवादास्पद ज्ञान उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को यूं ही नहीं दिया उसके पीछे कारण था यूपी की वो २१ सीटें। राहुल की मेहनत के पांच साल ने यूपी में फिर से कांग्रेस के पैर मजबूत किए हैं। कम से कम तीन साल तो हैं ही यूपी में विधानसभा चुनाव को तो अभी से वो कवायद शुरू हो चुकी है लोगों को अपना बनाने की। उस जनाधार या यूं कहें उस वोट बैंक को अपना बनाने की कोशिश जो कि कांग्रेस को केंद्र के साथ-साथ यूपी की गद्दी को भी दिला दे।

उस इज्जत की कीमत तो आप २५ हजार दे रही हैं पर उस कीमत को चुकाने के लिए ५ लाख खर्च कर रही हैं।

उसी कड़ी में रीता बहुगुणा शायद वो कह गईं जो उनके लिए आज आफत बन चुकी है ना निगलते बनता है ना उगलते। अपने भी पराए हो गए, घर फूंक दिया गया, १४ दिन कि न्यायिक हिरासत साथ ही रातें जेल में, जमानत भी नहीं मिली। शायद रीता बहुगुणा याद कर रहीं थी दो-ढाई साल पुरानी ‘वो’ बात जब कि खुद मायावती ने कुछ इसी तरह की टिप्पणी की थी। माना कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं परोक्ष रूप ही सही मायावती ने महिलाओं पर निशाना तो साधा ही था। तो रीता को लगा कि कोई कार्रवाई नहीं होगी पर उन्हें क्या पता था कि वो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल रही हैं।

पर एक सवाल उठता है कि मायावती जी को क्यों गलत लगा रीता बहुगुणा का कहा। क्यों आग लग गई उनको? माया जी भी तो कुछ इसी लहजे में कभी मुलायम सिंह के परिवार की बेटियों को रेप के एवज में अपने मुस्लिम साथियों से ४ लाख देने की पेशकश कर चुकी हैं। क्या तब नहीं हुआ महिलाओं का अपमान। तो अब क्यों हुई लाल माया। ये तो औरतों की ही दोगली नीति है, एक मर्द के परिवार की महिलाओं को कहोगे तो कुछ नहीं पर यदि खुद के लिए उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल होता है तो घर फूंकावा दोगे, आग लगवा दोगे, धमकी दोगे कि घर से निकले तो बच नहीं पाओगे। हमें गुस्सा आ गया तो चूहों की तरह बिल में घुस जाओगे। ये तो सरासर गुंडाराज है।

माना कि कांग्रेस ने एक गलती की। कांग्रेस ने एक कानून बनाया जो कि औरतों की इज्जत की कीमत लगाता है। उस इज्जत की कीमत चुकानी पड़ती है राज्य सरकार को जिसमें वो घृणित कृत्य हुआ होता है। उसके पीछे के कई कारण है कि राज्य में कानून व्यवस्था की चूक की कीमत तो राज्य सरकार को ही चुकानी पड़ेगी। पर उस इज्जत की कीमत तो आप २५ हजार दे रही हैं पर उस कीमत को चुकाने के लिए ५ लाख खर्च कर रही हैं। हेलिकॉप्टर से डीआईजी जगह जगह जाते हैं और खर्च करते हैं करीब ५ लाख सिर्फ फ्यूल में। क्या ये बेहतर नहीं होता कि उस जिले के वरिष्ठ अधिकारी उस पीड़ित परिवार को मुआवजा दे देते।

मायावती जी आप को अपने जीते जी पूरे राज्य में मूर्तियां लगवाने से फुर्सत मिले तो आप इस ओर सोचेंगी ना। आप का क्या जाता है कि कोई कितना खर्च करता है। हर कीमत के पैसे तो हमें ही भरने होंगे। पर अच्छा तो ये होता कि आप धौंस ना दिखाते हुए जब रीता बहुगुणा ने माफी मांगी तो आपको बड़प्पन दिखाते हुए माफ कर देना चाहिए था। सही तो ये ही होता कि मुआवजे के लिए तेल में ५ लाख ना फूंके जाते और ये रकम पीड़ित के परिवार को मिल जाती। मूर्तियां का मोह छोड़ों माया जी कल से हाल खराब है बिजली नहीं आई है। काश आपने पैसे राज्य सरकार की उन्नति में लगाए होते तो आज ये यूपी की हालत ही कुछ और होती।

आपका अपना
नीतीश राज

सावधान! एनएच २४ से जरा बचके(जनहित में जारी)

ये सभी लोगों को एक हिदायत के रूप में लिख रहा हूं कि जो भी सुबह-सुबह या फिर शाम को एनएच२४ के जरिए दिल्ली का रास्ता तय करते हैं वो २१ जुलाई की सुबह तक सावधान! क्योंकि कांवड़ियों की वजह से २० जुलाई की शाम और २१ जुलाई की सुबह तक जाम लगे रहने का अंदेशा बना हुआ है। जो भी गाजियाबाद के रास्ते दिल्ली जाना चाहते हैं वो एनएच २४ की जगह आनंद विहार वाला रास्ता लें। हो सके तो हर दिन ऑफिस जाने के अपने समय से कम से कम आधा-पौन घंटे पहले घर से निकलें। शाम को आते समय ले सकते हैं एनएच २४ का रास्ता पर जितना हो सके उपयोग ना करें। नोएडा वालों के लिए भी थोड़ी हिदायतें हैं कि एनएच २४ पर ज्यादा भीड़ ना हो तो ट्रकों के रास्ते में फेरबदल किए जाएंगे और वो ट्रक नोएडा के रास्ते होते हुए गाजियाबाद के रास्ते पर जाएंगे तो वहां पर भी जाम लग सकता है शाम के वक्त जैसे परसों लगा था।
२० जुलाई को भोलेनाथ शिव शंकर जी का जलाभिषेक है तब तक ध्यान रखें। वैसे दुआ तो ये ही है कि कोईं भी जाम में ना फंसे। पर हमारा फर्ज है कि हम हिदायत तो जरूर बरतें।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, July 17, 2009

अपनों से दुनिया के सामने आंख मिलाते हुए सच का सामना।

खुशवंत सिंह ९३ साल के हैं अब भी वो साल में ४० के करीब किताब लिखते हैं। सारी दुनिया जानती है कि उन्होंने ऐसा साहित्य भी लिखा जिस पर फिल्म बनी और ऐसा जिस किताब की बिकरी ने दुनिया में नए आयाम खड़े किए। उन्हीं किताबों में से एक किताब में औरतों का जिक्र था और खुलकर जिक्र था। वो आत्मकथा कैसे लिखी गई उसके पीछे भी एक छोटी सी कहानी है। खुशवंत सिंह की पत्नी का इंतकाल हो चुका था और उनकी बेटी उनको खाली बैठा देख कर यूं ही पूछ बैठी कि आप तो एक तरह से पूरा विश्व घूम चुके हैं और भारत सरकार में आपने काम किया, कई अखबारों में और कई मैगजीन में काम किया तो आपके पास लिखने को तो काफी होगा तो क्यों ना आप आत्मकथा लिखें।

ये सवाल सुन कर आश्चर्य में पड़े खुशवंत सिंह जी थोड़ी देर तक चुप रहे और फिर उसके बाद उन्होंने अपनी बेटी से कहा कि मेरी जिंदगी का ‘सच’ शायद तुम पढ़ नहीं पाओगी और साथ ही तुम नहीं चाहोगी कि तुम्हारे पापा का सच दुनिया पढ़े। बेटी ने जोर दिया कि ऐसी सच्चाई तो आप की होगी नहीं कि आपके बच्चों को शर्मींदा होना पड़े। खुशवंत सिंह जी एक लेखक नहीं चाहते थे कि उनकी सच्चाई दुनिया को पता चले। सच बात तो है कि जिंदगी में हमने बहुत कुछ ऐसा किया होता है जो कि हम कभी नहीं चाहेंगे कि दुनिया के किसी को पता चले और जब वो ही बात अपनों को पता चलती है तो अंदर-बाहर तूफान आना तो स्वाभाविक ही है। खुशवंत जी ने बेटी को फिर समझाने की कोशिश की पर वो चाहती थी कि उनके पिता के बहुरूपिय व्यक्तित्व को दुनिया जाने। यहां पर खुशवंत जी ने कहा कि जब लिखूंगा तो सच लिखुंगा और वो सच तुम्हारी मां को भी इस सच के पवित्र दलदल में घसीटेगा। बेटी नहीं मानी और बोली कि उसके अंदर है इतनी हिम्मत है की वो अपने माता-पिता का सच सुन सके। तब आई थी खुशवंत सिंह की आत्मकथा।

सच तो सिर्फ सच होता है ना घटाया जा सकता है और ना ही बढ़ाया। ठीक इसी तर्ज पर लोगों के निजी जवाबों को सामने लाता सच की तरह ही एक कार्यक्रम स्टार प्लस पर ‘सच का सामना’ आ रहा है। इसमें हॉट सीट पर बैठे प्रतियोगी से इतने निजी सवाल पूछे जाते हैं जिनका जवाब सिर्फ और सिर्फ वो ही जानता है और कोई नहीं। वहां पर एक महिला प्रतियोगी से पूछा जाता है कि क्या आप कभी अपने पति की हत्या करना चाहती थीं। और ये जवाब देना है सामने बैठे पति के सामने। एक शख्स से पूछा जाता है कि क्या शादी के बाद भी आपने कभी किसी गैर औरत के साथ संबंध बनाए थे, पत्नी के सामने देना होगा ये जवाब। महिला से पूछा जाता है कि क्या आपके पति को पता नहीं चले तो क्या आप किसी गैर मर्द के साथ शारीरिक संबंध बनाना पसंद करेंगी। एक हां या फिर ना में घर तबाह। पति से पूछा जाता है कि क्या आपकी कोई नजायज औलाद है। पत्नी सामने है परिवार बैठा है, जवाब आप को देना है, जवाब दो।

जो दुनिया के सामने आपके दिल के अंदर, मन के अंदर है जो आपके अपने नहीं जानते उसे वो आप की ही जुबां से निकाल कर दुनिया के सामने रखते हैं। वो दुनिया को बताते हैं कि आप सच में पंडित के भेष में पंडित ही हैं या फिर कोई बहुरूपिया।विदेशी प्रोग्राम की कॉपी है सच का सामना। विदेशों में कई घरों को बर्बाद कर चुके इस रिएलिटी शो को बाद में बंद करना पड़ा था। पर भारत में टीवी के दीवानों को सच का सामना पसंद आता है कि नहीं या फिर हम ख्याली पुलाव वाले कार्यक्रमों को ही तबज्जो देते रहेंगे ये कुछ दिनों में ही साफ हो जाएगा। पर क्या एक करोड़ की कीमत के लिए कोई अपना संबंधों की बाजी दांव पर लगाना पसंद करेगा? मुझे लगता है जो सच्चा होगा वो ही जीतेगा।

आपका अपना
नीतीश राज

साहित्य की तरफ एक कदम है ब्लॉग।

हाल फिलहाल में कई बार इस पर चर्चा होती आई है कि ब्लॉग आखिर है क्या? अपनी बात कहने का एक मंच, अपनी बात को अपने अंदाज में रखने का एक मंच मतलब अपने अनुभव या फिर अपनी निजी डायरी। अपनी कुंठा निकालने का एक मंच या उन लोगों की एक संगठित जगह जिन्हें लिखने की अभिलाषा है पर कहीं लिख नहीं पाते तो यहां पर हाथ साफ करते हैं या फिर ये एक ऐसा मंच है जो कि हमें साहित्य की तरफ ले जाने का एक जरिया बन रहा है। अभी ये पढ़ने को मिला कि कुछ चुनिंदा लोग तो इसे किसी भी तरह का मंच नहीं मानते। वो कहते हैं कि ये ना तो साहित्यिक मंच है और ना ही निजी डायरी। पर हां, इसके विपरीत अधिकतर लोग ये मानते हैं कि ये एक मंच जरूर है। जहां तक खुद की बात करूं तो मैंने यहां पर ऐसे-ऐसे आर्टिकल पढ़े जो कि बाहर की दुनिया की किताबों में भी नहीं पढ़े। तो आखिर ये ब्लॉग है क्या?

बात कहने का एक मंच या फिर अपने अंदाज को रखने का एक मंच मतलब अनुभव


ब्लॉग लिखने वालों में कई ऐसे हैं जो कि इसे अखबार कि तरह मानते हैं। जो ब्लॉग पर नियमित हैं और हर प्रकार की ख़बरों को अपने ब्लॉग पर छापते हैं और साथ ही उनका विश्लेषण भी करते हैं। कई इसे सिर्फ अपनी बात को कहने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। याने की अपनी बात बस कह दी और कुछ नहीं।

कई हैं अपने अनुभवों को दूसरे के सामने रखते हैं अपने ही अंदाज में जो कि सबसे जुदा और सबसे अलग होता है। थोड़ा रोचक अंदाज में अपने अनुभव या फिर अपनी सोच। उन ब्लॉगर में आते हैं समीर लाल, डॉ अनुराग, शिवकुमार और ज्ञानदत्त, जितेंद्र भगत, अब अनिल कांत और भी बहुत हैं, सबका एक साथ ध्यान नहीं आ रहा।

निजी डायरी या ट्रैबल गाइड


क्या ब्लॉग एक निजी डायरी का रूप ले सकता है? यदि कोई राज भाटिया या फिर प्रीती बड़थ्वाल की वो सीरीज पढ़े तो शायद ये कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि ब्लॉग एक निजी डायरी हो सकता है। जो कि आप अपने निजी और बहुत ही संवेदनशील और पर्सनल अनुभवों को पन्ने पर उड़ेल देते हैं जो कि आप किसी को भी बता सकते हैं। साथ ही कई बार ये बात भी सामने आई कि ब्लॉग पर ये अच्छा नहीं कि आप अपनी पर्सनल बातें शेयर करें।

यहां पर ये भी कहना चाहूंगा कि मैं अमिताभ बच्चन के ब्लॉग को इसी श्रेणी में रखता हूं।

अभी तक सबसे अच्छा इस्तेमाल यदि ब्लॉग का हुआ है तो वो ट्रेबल गाइड के रूप में। लोगों को घर बैठे-बैठे उन जगहों की जानकारी मिल जाती है जहां वो जाना चाहते हैं। कई ब्लॉग ने तो पिछले दिनों इतने अच्छे ढंग से किसी जगह का ब्यौरा और जानकारी दी कि कोई भी उस जानकारियों का इस्तेमाल करके उस जगह पर जा सकता। जितेंद्र, महेंद्र और ममता (...और भी हैं) ने कुछ ऐसी ही तस्वीर पेश की थी। यदि अंग्रेजी ब्लॉग की बात करें तो आप जिस जगह के बारे में सर्च करेंगे तो कई बार गूगल आपकी सर्च को ब्लॉग तक ले जाता है।

अपनी कुंठा निकालने का मंच या लिखने की अभिलाषा

मेरे एक साथी को पता चला कि मैं भी उसी की तरह ब्लॉग लिखता हूं और शायद मुझे ब्लॉग लिखने का सबसे ज्यादा दुख सिर्फ इसी बात का हुआ था कि उसे पता चला। क्यों? उसके पीछे का कारण भी है। उसने कहा था कि अपनी कुंठा को निकालने का सबसे बढ़िया जरिया यदि है तो ये ही है। साथ ही जो बात सबसे बुरी लगी वो ये थी कि उसने मुस्कुराते हुए कहा था, कि यार ये जो ब्लॉग है ना वो है अपने हाथ ज...., जब चाहो जितना चाहो करो। वो आज भी ब्लॉग लिखता है।

....या साहित्यिक मंच


काफी लोगों की तरफ से आया कि अमिताभ बच्चन का ब्लॉग साहित्य की सीमा में आता है। मैं पूछना चाहता हूं कैसे आप उसे साहित्य मान सकते हैं। सवाल के ऊपर सवाल ना दागिए जवाब दीजिए। हो सकता है कि कल वो पढ़ा जाएगा तो सिर्फ इसी कारण से आप उसे साहित्य मानेंगे।

मैं जानता हूं कि बहुत लोगों ने कुरु कुरु स्वाहा, गोली, कसप, अवारा मसीहा पढ़ी होगी, मेरे को उसी श्रेणी में कई ब्लॉगर की लेखनी लगती है। इसमें मैं लिखना चाहूंगा कि क्या किसी ने मौदगिल साहब की कविता, नीरज जी की रचनाओं को पढ़ा है। यदि पढ़ा है तो इन रचनाकारों पर कोई मेरे से प्रश्न नहीं पूछेगा। रंजना भाटिया, मीत की गजलें, प्रीती बड़थ्वाल की कविता पढ़ी हैं(चंद नाम दे रहा हूं यहां)। रंजना जी की यहीं पर कविता कि पुस्तक छपी, योगेंद्र जी तो अपने में ही नायाब हैं। क्या इनके द्वारा लिखी गई रचनाएं साहित्य की तरफ हमको नहीं लेजाती। मैं तो ये मानता हूं कि लेजाती हैं।

कल किसने देखा है पर ये एक पहल है आज जैसे हम पिछले पन्नों को पलट कर देखते हैं उसी तरह ब्लॉग के कुछ चुनिंदा पन्ने यदि ब्लॉग बचा रहता है तो जरूर देखे जाएंगे। पर अभी बड़ी कठिन है डगर पनघट की.......।

आपका अपना
नीतीश राज

Wednesday, July 15, 2009

जब मैं स्कूल में था तब भी ये ही सुनता था अब मेरा बच्चा स्कूल में है तब भी ये ही सुन रहा हूं। आखिर कब तक सुनना पड़ेगा?

जब स्कूल में था तब से देखता, पढ़ता और सुनता आ रहा हूं कि हमारा देश कहीं आगे हो या ना हो पर जनसंख्या में नंबर 2 पर जरूर है। जब-जब ओलंपिक हुआ करते थे तो सारा देश खुद से सिर्फ और सिर्फ एक ही सवाल पूछा करता था कि जनसंख्या के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर वाले देश में ऐसा कोई नहीं, जो कि एक पदक दिला सके। अब तो ये भी माना जा रहा है कि 21 साल बाद 2030 तक भारत चीन को जनसंख्या के मामले में पछाड़कर पहले पायदान पर काबिज हो जाएगा। यदि ये ही हाल चलता रहा तो भारत की जनसंख्या तब तक 148 करोड़ हो जाएगी और चीन की 146 करोड़। तभी तो भारत के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने जनसंख्या दिवस के दिन एक समारोह में कुछ बिल्कुल अलग-अलग ढंग के ज्ञान दिए। ऐसी बात कह दी जिसे कुछ तो सही मानेंगे और कुछ दरकिनार कर देंगे। पर ऐसा नहीं है कि ये आप पहली बार जानेंगे पहले भी कई लोग ये बात कह चुके हैं।

स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि 30 या उसके बाद ही शादी होनी चाहिए। वो ये नहीं कहते कि शादी की उम्र इतनी कर देनी चाहिए पर उनकी खुद की सोच ये है क्योंकि उनकी शादी भी 30 के बाद ही हुई थी। जहां तक मैंने समझा कि ऐसा वो क्यों सोचते हैं तो उसके पीछे की वजह ये हो सकती है। यदि 30 के बाद शादी करें तो कुछ चुनिंदा साल रह जाएंगे बच्चे पैदा करने के लिए। एक-दो साल मस्ती में निकल जाएंगे। जब आप पहले बच्चे के लिए जाएंगे और यदि उस पहले बच्चे की डिलीवरी के समय कुछ भी दिक्कत का सामना करना पड़ा तो जब तक दूसरे बच्चे के बारे में सोचेंगे तब तक उम्र ही निकल चुकी होगी और एक बच्चे से ही लोगों को सब्र करना होगा। क्योंकि खासकर भारत में 35 के बाद अब भी लड़कियों के लिए मां बनना ठीक नहीं माना जाता। यदि कोई रिस्क लेता है तो पैसा भी उसी तरह खर्च होता है और दोनों के ऊपर खतरा भी ज्यादा हो जाता है।

उन्होंने कहा कि गांवों में यदि बिजली पहुंचे तो लोग रात के बारह बजे तक टीवी देखेंगे और फिर वो इतना थक जाएंगे कि बच्चे पैदा करने के लिए वक्त ही नहीं मिलेगा। वैसे भी गांवों में सुबह जल्दी उठने का चलन है तो यदि कोई देर रात तक टीवी देखता है तो वो फिर इस काम में लिप्त नहीं होगा क्योंकि सुबह सूरज उगने तक तो खेत में जाना होता है वर्ना धूप होने पर भी लगे रहना पड़ेगा खेत में और वो कोई भी किसान नहीं चाहता।

हमारे इतिहास के टीचर ये कहा करते थे कि ठंडी में गांवों में लोग इसी काम में लिप्त रहते हैं क्योंकि दिन भी देर से होता है और जल्दी रात हो जाती है तो ज्यादा समय होता है साथ ही ठंड से बचने का उपाय और मनोरंजन के साधनों का अभाव। कई बार जब वो पढ़ाते रहते थे तो हम उनसे लड़ भी जाते थे कि जैसे आप इतनी आसानी से बता रहे हैं उतनी आसानी से बच्चे थोड़े ही पैदा हो जाते हैं। छोटे थे हम तब।

बचपन से ही मैं ये कई जगह पढ़ता और सुनता आया हूं कि हमारे देश में अशिक्षा और मनोरंजन के साधनों के अभाव ने आबादी में इजाफा करने में काफी योगदान किया है। वैसे ये किसी हद तक सच भी है कि यदि गांवों में बिजली की व्यवस्था अच्छी हो जाए तो जो खेत के काम 4 आदमी लग कर करते थे उसके लिए बिजली के औजारों की मदद से सिर्फ दो लोग ही आराम से कर सकेंगे। अशिक्षा के कारण गांवों के लोगों की धारणा बनी हुई है कि खेत में काम करने के लिए भी तो कोई होना चाहिए तो इसके खातिर वो कई बच्चे चाहते हैं। जितने ज्यादा बच्चे उतनी ज्यादा ताकत। और यदि पहली दो लड़कियां हो गई तब तो....।

स्वास्थ्य मंत्री जी के बयान से मैं तो काफी हद तक सहमत हूं। पर इस बयान में कई बातें जोड़ना चाहूंगा कि सिर्फ बिजली ही नहीं किताबों को भी घर-घर तक पहुंचाना होगा। हमें अपनी शिक्षा के स्तर को लोगों के हिसाब से सुधारना और बदलना होगा। शिक्षा के साथ-साथ कानून पर लोगों का विश्वास जगाना होगा। आज भी गांवों में पंचायत और उनके तालिबानी फरमान लोगों को सालते रहते हैं और लोगों को उन फरमानों को मानना पड़ता है क्योंकि हमारे कानून की प्रणाली में इतने पेंच हैं कि कोई भी इसमें उलझना नहीं चाहता। जहां तक शादी 30 साल के करीब या बाद में हो तो शहरों में तो अधिकतर लोगों की उम्र इतनी हो ही जाती है। हां, गांवों में ये नहीं है वहां आज कल भी लोग पेपरों में 18 साल देखते ही लड़की और 21 साल में लड़के की शादी कर देते हैं। कुछ की तो शादी उम्र की सीमा में नहीं बंधती, पहले ही हो जाती है।

यदि हमने जनसंख्या वृद्धि पर लगाम नहीं लगाई तो...कहीं ऐसा ना हो कि आने वाले दिनों में देश को प्राकृतिक आपदा से गुजरना पड़े। पर एक बात का अब भी जवाब नहीं मिल रहा कि जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब भी सरकार ये बात जानती थी और आज जब मेरा बच्चा स्कूल में है तब भी ये ही बात दोहराई जा रही है इस पर काम क्यों नहीं हुआ। कब तक यूं ही हम बताया जाता रहेगा कब जाकर इसको कार्यान्वित किया जाएगा। आखिर कब?

आपका अपना
नीतीश राज

Tuesday, July 14, 2009

ऐसा है हमारा कानून और ऐसे हैं हमारे कानून के रखवाले, शर्म आती है।

पहले फिल्मों में देखता था ये सब अब इसे सामने देख रहा हूं। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर सब कहते फिरते थे कि फिल्में हमारे समाज का आइना होती हैं और मैं विश्वास नहीं करता था पर आज मानने को मजबूर हूं।
जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं।

एक घटना है परसों की और दूसरी घटना है बरसों पहले घटी थी पर नतीजा कल आया। दोनों ही हरकतें शर्मनाक हैं। फिल्मों में दिखाते थे कि कानून पर कैसे भारी पड़ते हैं नेता, ये बात सच साबित होगई है। दूसरा, कैसे पुलिस और गुंडों-बदमाशों में होती है साठगांठ। कुछ पुलिसवाले ही होते हैं बदमाशों के इनफोर्मर। कैसे बदले जाते हैं दिए हुए बयान और कोर्ट में खुद कई पुलिसवाले कैसे मुकर जाते हैं अपने दिए हुए बयान से।
याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो।


प्रोफेसर सब्बरवाल हत्याकांड के सभी आरोपी बरी। क्यों?

सभी ने देखा था वो हादसा टीवी पर, पर अंधेकानून को नहीं दिखाई दिया, प्रमाण के अभाव में छोड़ दिए सभी आरोपी। जज तक ने कहा कि ये अभियुक्त दोषी ठहराए जा सकते थे पर सबूतों के अभाव में ऐसा करना संभव नहीं। तो क्या जज के हाथ भी बंधे हैं। बेटा फरियाद करता रहा कि पिता के हत्यारों को सज़ा मिले पर कानून इस बार अंधे के साथ-साथ बहरा भी निकला।

अगस्त २००६, उज्जैन के माधव कॉलेज के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के हेड प्रोफेसर सब्बरबार को कथित तौर पर अभियुक्तों कॉलेज कैंपस में क्रूरता से पीटा था और पिटाई में गंभीर चोट के शिकार प्रो।सब्बरबाल ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था। याद आती है वो व्हील चेयर जिसमें प्रो।सब्बरबाल को बैठाकर अस्पताल लेजाया जा रहा था, सभी न्यूज चैनलों ने इस को काफी अहमियत से दिखाया था।

याद आता है एक छात्र जो कि अपने अध्यापकों के ऊपर चिल्ला रहा था, कह रहा था कि शिक्षकों के नाम पर कलंक हो। क्यों कह रहा था वो ऐसा क्योंकि अध्यापकों ने उसे फेल नहीं कर दिया था ब्लकि कॉलेज में छात्रसंघ के चुनाव में धांधली के लगे आरोपों के कारण अध्यापकों ने चुनाव टाल दिए थे। वो युवक बीजेपी की यूथ विंग एबीवीपी का अगुवा था। शायद ही कभी किसी अध्यापक ने अपने छात्र से ऐसे संबोधन सुने होंगे। सारे न्यूज चैनलों ने गोला लगा-लगाकर बार-बार दिखाया था इसे। तो क्या कोर्ट को ये सब नहीं दिखाई दिया। कोर्ट ने ये बात कैसे मान ली कि जब ये हादसा हुआ तो ये ६ अभियुक्त वहां पर मौजूद नहीं थे।

सरकारी वकील पर उठ रही हैं उंगली उसके पीछे का कारण ये है कि जब मध्यप्रदेश में इस केस की सुनवाई होनी थी तब वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पहले ही इसे हादसा घोषित कर दिया था। बीजेपी के हैं तो क्या बीजेपी के युवा छात्रसंघ का साथ नहीं देंगे क्या। साथ नहीं देंगे तो ये बात मुख्यमंत्री साहब भी जानते हैं कि फिर सत्ता में आना उनके लिए मुंगेरीलाल के सपनों की तरह हो जाएगा। कहा जा रहा है कि सरकारी वकील ने इस केस में कई कमियां छोड़ रखी थी। दूसरी बात पुलिस पहले दिए हुए अपने बयान से कोर्ट में मुकर गई। जब ये हादसा हुआ था तो २००६ था उसके बाद अभियुक्तों को पकड़ा गया था तो इतने समय से उनको जेल में क्यों रखा गया। कोर्ट ने भी इस बारे में चुप्पी नहीं तोड़ी। क्यों? वर्ना सवाल तो ये ही खड़ा होता है कि पुलिस ने इन लोगों को किस आधार पर पकड़ा जब सबूत ही नहीं था। चार दिन के अंदर प्रो। सब्बरबाल के बेटे हिमांशु सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रहे हैं। पर इस फैसले से कि ६ के ६ सभी अभियुक्त बाइज्जत बरी कर दिए गए सबको हैरानी जरूर हुई है। और इस बात का पता भी चलता है कि कहां-कहां तक कौन-कौन आपस में मिला हुआ है।
यदि शिकायत करेंगे तो पुलिसवाले बदमाशों को आपका पता दे देंगे और फिर वो आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर देगा और आप मरहूम कहलाए जाएंगे।


मुंह खोलोगे, मरोगे।

जी हां, यदि आप किसी की कंप्लेंट करने जा रहे हैं तो संभल जाइएगा। शिकायत करनी भी हो तो पर्दे के पीछे से कीजिएगा, किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि आप कौन हैं। क्योंकि आज कल रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। पता नहीं कब कौन पुलिसवाला जाकर उस गिरोह को बता दे कि आप हैं शिकायतकर्ता। और फिर वो गिरोह समय देखकर आपको आपके जीने के अधिकार से महरूम कर दे और आप मरहूम कहलाए जाएं।

दिल्ली के अशोक विहार में एक शख्स पार्क में चल रहे सट्टे के धंधे की शिकायत करने पुलिस थाने गया। वहां पर और लोगों के साथ मिलकर शिकायत लिखवाई जो कि पहले भी कई बार लिखवाई जा चुकी थी पर हुआ कुछ नहीं था। इस बार कुछ ऐसा हुआ जो कोई सोच भी नहीं सकता था। तीन पुलिसवालों ने इस शिकायत को जगजाहिर कर दिया और भी किस के सामने उनके जिनके खिलाफ शिकायत हुई थी। इस बात से साफ जाहिर हो गया कि पुलिसवालों की साठगांठ थी गोरखधंधा चलाने वालों से।

फिर क्या था रात के अंधेर में जब वो अपनी राशन की दुकान बंद करके आ रहा था तो उस शख्स को तलवार से काट दिया गया। मृतक के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। कोई अमीर आदमी नहीं था जिसे मारा गया। यतीम हो चुके बच्चों का क्या था कसूर? वैसे तो चार लोगों को नामजद कराया गया है पर माना जा रहा था कि उसने काटने वाले सिर्फ चार नहीं थे दर्जन थे। उन तीन पुलिसवालों को फिलहाल तो सस्पेंड कर दिया गया है।

क्या अब किसी गलत काम की शिकायत करना भी गुनाह है? क्या किसी पर भी अब विश्वास नहीं किया जा सकता खासकर कि कानून से जुड़े लोगों पर? दोनों वारदातों के बाद तो कानूनवालों पर शर्म आई और अपने कानून पर भी।

आपका अपना
नीतीश राज

Monday, July 13, 2009

ये तो सरासर लापरवाही है, पर क्या इतनी बड़ी कीमत के लिए तैयार हैं हम।

सुबह 5.45 के करीब मुझे पता चला कि दिल्ली में मेट्रो के निर्माणधीन (कंस्ट्रेक्शन) पुल गिर गया। मेरी पहली प्रतिक्रिया थी की क्या फिर से? मुझे याद है कि विकासमार्ग पर जो हादसा हुआ था वो भी रविवार को ही हुआ था जिसमें एक लांचर मशीन ब्लूलाइन बस पर गिर गई थी।

पिलर नंबर 67 में तीन महीने पहले दरार देखी गई थी और इस बात की जानकारी डीएमआरसी को भी थी तो फिर इसकी तफ्तीश क्यों नहीं की गई
इस बार उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए जमरूदपुर में हादसा हुआ है। दो पिलर के बीच का गडर गिर गया और उसमें कुछ मजदूर दब गए। इस हादसे में 5 की मौत हुई और लगभग 15 मजदूर घायल हुए।
ये माना जा रहा था कि पिलर नंबर 67 में तीन महीने पहले दरार देखी गई थी और इस बात की जानकारी डीएमआरसी को भी थी तो फिर इसकी तफ्तीश क्यों नहीं की गई। इस हादसे ने कई सवाल खड़े किए हैं। तीन महीना कम नहीं होता बहुत समय होता है। इसमें सिर्फ लापरवाही ही दिखती है। 2007 से ही कई बड़े हादसे हो चुके हैं तो आखिर इसकी वजह क्या है? हाल ही में कई बड़े-बड़े हादसे होते-होते बचे हैं।
दो पिलर के बीच का गडर गिर गया और उसमें कुछ मजदूर दब गए। इस हादसे में 5 की मौत हुई और लगभग 15 मजदूर घायल हुए
इस बार माना ये भी जा रहा है कि मेट्रो के पिलर की दूरी के अंतराल के कारण ये हादसा ना हुआ हो। पर श्रीधरन जी की दलील है कि ऐसा तो कई जगह पर किया गया है और इससे कोई असर नहीं पड़ता।

क्या मेट्रो मैन का इस्तीफा इस लापरवाही की कीमत है? यदि हां, तो कहीं ये कीमत ज्यादा तो नहीं?

1963 में रेलवे मिनिस्टर अवॉर्ड, 2001 में पद्मश्री, टाइम्स ऑफ इंडिया ने 2002 में मैन ऑफ द ईयर सम्मान

मेट्रो के इस हादसे के बाद मेट्रो मैन ने इस्तीफा दे दिया। मेट्रो के एमडी ई श्रीधरन ने दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित को इस पूरे हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया। ई श्रीधरन वो शख्स हैं जिन्होंने कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो प्रोजेक्ट को समय से पहले और बजट के अंदर पूरा किया।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेशन के साथ स्कूल में एक ही क्लाश शेयर कर चुके श्रीधरन जी रेलवे में आने से पहले लेक्चरर थे। 1990 में रेलवे से रिटायर होने से पहले श्रीधरन साहब ने रेलवे में कई ऐसे मकाम छुए जो कि उनकी कामयाबी बताते हैं। सबसे पहले अपने काम का हुनर रामेश्वरम में रेलवे पुल का निर्माण करके दिखाया जिस काम को करने के लिए कम से कम 90 दिन का वक्त दिया गया था उस काम को उन्होंने निर्धारित वक्त से आधे समय में ही पूरा कर दिया और रेलवे से खिताब भी लिया। कोलकाता में देश की सबसे पहली मेट्रो को अंजाम देने के लिए ई श्रीधरन को प्लानिंग, डिजाइन से लेकर काम की पूरी जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

ये पहली बार नहीं है जब कि कंस्ट्रेक्शन कंपनी गैमेन इंडिया की गलतियों का खामियाजा उसके मजदूरों को भुगतना पड़ा है।

2005 में दिल्ली मेट्रो के लिए श्रीधरन जी को मेनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया। जिस बात के लिए श्रीधरन जी प्रसिद्ध थे उन्होंने दिल्ली में भी वो ही किया। दिल्ली में मेट्रो का काम अभी तक या तो समय पर हुआ है या फिर समय से पहले हुआ। साथ ही साथ हर प्रोजेक्ट बजट के अंदर ही रहा। श्रीधरन जी ने 2005 के अंत तक डीएमआरसी से रिटायरमेंट की बात कही थी। पर दिल्ली मेंट्रो के दूसरे चरण के कारण उनका कार्यकाल 3 साल और बढ़ा दिया गया था।
फ्रांस सरकार ने 2005 में नाइट ऑफ द लीजन ऑफ हॉनर का सम्मान दिया था। हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने लाहौर में मेट्रो के प्लान के लिए श्रीधरन जी को पाकिस्तान बुलाया था। साथ ही यूएई सरकार भी 2005 में दुबई में प्रोजेक्ट लगाने के लिए बुला चुकी है। पर श्रीधरन ने दोनों ऑफर ठुकरा दिए थे।

1963 में रेलवे मिनिस्टर अवॉर्ड, 2001 में पद्मश्री, टाइम्स ऑफ इंडिया ने 2002 में मैन ऑफ द ईयर सम्मान, टाइम ने वन ऑफ एशियाज हीरोज का खिताब 2003 में दिया, 2008 में पद्मभूषण खिताब से भी उनको नवाजा गया साथ ही कई और खिताब भी दिए गए।

तो क्या इस मेट्रो मैन को मेट्रो से खोने के लिए तैयार हैं हम। मुझे तो नहीं लगता कि हम तैयार हैं पर हां ये भी मानता हूं कि एक व्यक्ति के ऊपर पूरा भरोसा नहीं दिखाना चाहिए पर यहां उन्होंने ऐसा किया है कि विश्वास करना ही पड़ता है।

कठघरे में कंस्ट्रेक्शन कंपनी गैमेन इंडिया

ये पहली बार नहीं है जब कि कंस्ट्रेक्शन कंपनी गैमेन इंडिया की गलतियों का खामियाजा उसके मजदूरों को भुगतना पड़ा है। इससे पहले हैदराबाद में 2007 में एक पुल निर्माण के दौरान भी हादसा हुआ था जिसमें 2 को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था और साथ ही कुछ मजदूर गंभीर रूप से घायल हुए थे। आंध्रप्रदेश सरकार ने एक जांच कमेटी बनाई थी जिसने गैमेन इंडिया और कंस्लटेंट और सिविक अथॉरिटी को दोषी पाया और उन पर कार्रवाई की बात कही थी।

तकनीकि खामी के कारण हादसा हुआ या फिर कोई और कारण था पर डीएमआरसी ने 4 सदस्यों की कमेटी बना दी है पर अब भी ये ही सवाल उठता है कि क्या कमेटी की रिपोर्ट को माना जाएगा?

आपका अपना
नीतीश राज

Saturday, July 11, 2009

दोस्त के पिता का इंतकाल और निगमबोध घाट का हादसा

उसका जवाब होता कि, सिर्फ वो सांस ही खुद ले सकते हैं।
सुबह-सुबह पता चला कि हमारे साथ काम करने वाले एक सहयोगी के बाबूजी की हालत नाजुक है। वैसे भी उसके पिताजी काफी दिन से बीमार चल रहे थे। उनकी किडनी जवाब दे चुकीं थी उपर से वो डायबेटिक भी थे। काफी दिन से उनका इलाज गंगाराम और एम्स में इलाज चल रहा था। बार-बार खून चढ़ाया जाता और बदला जाता, पहले तो उनका हर रोज डायलिसिस होता था पर फिर थोड़ा अंतराल के बाद होने लगा। अब तो आते-आते उनके शरीर के कई हिस्सों में दर्द होने लगा था। जब भी कोई उससे पूछता कि तुम्हारे पिताजी कैसे हैं? उसका जवाब होता कि, सिर्फ वो सांस ही खुद ले सकते हैं। तो उसके जवाब ही पूरी तबीयत बयान कर देते हैं। साथ में ये वो जरूर जोड़ता कि वो दिमाग से अब भी बहुत पक्के हैं, वहां कमजोरी की कोई झलक नहीं दिखती यानी यार्दाश्त हमसे भी अच्छी।
मैं निगम बोध घाट देर से पहुंचा, पर वक्त पर पहुंचा। उसके पिताजी अपनी अंतिम यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके थे। मेरा सहयोगी अंतिम चक्कर लगा कर मुखाग्नि देने को झुक चुका था।
हम में से कुछ ने तो सुबह ही ये मान लिया था
कि शायद ही अब वो बचें। पर जहां तक हमारी बात थी तो हमें उसकी छुट्टी की आदत पड़ चुकी थी। वो एक-दो दिन की छुट्टी करता और फिर ऑफिस ज्वाइन कर जाता। हमें इस बार भी ऐसा ही लग रहा था। पर पता नहीं कैसे बातों ही बातों में एक सहयोगी के मुंह से निकल भी गया कि अरे अब तो वो लंबी छुट्टी पर गया। ये महज सुबह का इक्तेफाक भर था पर शाम का सच बन गया।
मैं निगम बोध घाट देर से पहुंचा, पर वक्त पर पहुंचा। उसके पिताजी अपनी अंतिम यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके थे। मेरा सहयोगी अंतिम चक्कर लगा कर मुखाग्नि देने को झुक चुका था। मैं हाथ जोड़कर कायदे अनुसार उस सेज पर एक लकड़ी रख ऑफिस से ही आए एक दूसरे साथी के पास खड़ा होगया। वो अपने रीति-रिवाज के साथ उस काम को अंजाम देने में लगा था जिसे इस धरती पर सबसे बड़ा(कड़ा या भारी) माना जाता है। हम सब शून्य में ताक रहे थे और पुजारी, हवा में हम रुकावट ना बनें, हमें वहां से हटाने में लगे थे।
सभी कोने में खड़े हो गए और फिर अंकल जी के बारे में बात शुरू हो गई।मैं उसके पास पहुंचा तो उसने कहा कि आज १० तारीख है, मुझे भी याद है ये तारीख क्योंकि पिछले महीने ही उसने और मैंने पार्टी का प्रोग्राम बनाया था और कल तक सब ठीक था और आज...। यहां हम बात कर रहे थे और उधर ‘कपाल क्रिया’ का वक्त आ गया। सहयोगी ने जा कर इस काम को भी पूरा किया और वापस आ कर बैठ गया। जब भी कपाल क्रिया होती है तब उसके बाद घी डाला जाता है। वहां पर अधिकतर को इस बारे में नहीं पता था। मेरा सहयोगी गया और चला आया पर पंडित जी ने नहीं बताया कि क्या करना होता है। घी का पूरा एक कैन वहां पर रखा हुआ था पर उसका इस्तेमाल नहीं किया गया। एक दो हमारे से बड़े भी खड़े थे उनमें से एक ने कहा कि जाकर देखो तो घी कुछ है या नहीं। तो छोटे ने जाकर देखा और पाया कि घी वैसा का वैसा ही रखा हुआ था। उसने वेदी पर पूरा घी डाल दिया।
जिसे जहां से लूटने का मौका मिल रहा है वो वहां लूटने में लगा है।
वक्त आ गया था कि जब हम अपने अजीज को
वहां जलती हुई और चिताओं के साथ नित्य अकेला छोड़ चलें। जैसे ही शमशान घाट से बाहर निकल कर पार्किंग में आए तो मेरे होश उड़ गए। आज मैं कार से नहीं बाइक से आया क्योंकि शाम को जाम में एक बार फंसे तो रात कब हो जाएगी पता नहीं चलेता। मेरी बाइक की डिक्की टूटी हुई थी और उसमें रखा सामान गायब था। कहीं रास्ते में बारिश ना आजाए और मेरे को रुक कर अपने पर्स को पन्नी में डाल कर डिक्की में ना रखना पड़े तो ये काम मैंने घर पर ही कर लिया था। अलबत्ता जब मेरे साथियों ने पूछताछ की तो किसी ने बताया कि बंदर डिक्की तोड़ गया है और वो बटुआ लेकर भागा है। थोड़ी मशक्कत के बाद मेरा बटुआ मुझे मिल गया जो-जो चीज बटुए में थी वो भी मिल गई। हां, करीब ५०० का चूना लग गया पर ये बहुत बढ़िया रहा कि मेरे कार्ड मुझे मिल गए वर्ना बहुत दिक्कत होती। वो लोग भी जानते हैं कि जिसका भी पर्स मारेंगे वो कुछ कहेगा नहीं क्योंकि गम में आया है। तो थोड़ा सावधान रहिएगा।
इसे कहते हैं कलयुग। एक पंडा शव के ऊपर पड़ने वाले घी की चोरी करना चाहता था और वहीं दूसरी तरफ गम में डूबे लोगों को चूना लगाया जा रहा था। इल्जाम लगाया जा रहा है कि बंदर बटुआ लेकर भागा। बंदर को और कोई समान नहीं मिला डिक्की में से, देखिए ये भी एक अलग बात है कि बंदर को भी इतना ज्ञान हो गया है कि ये दुनिया सिर्फ पैसों से ही चलती है।
जिसे जहां से लूटने का मौका मिल रहा है वो वहां लूटने में लगा है। यहां मैं कमाना जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा क्योंकि कमाते तो मजदूर लोग हैं लूटते तो लुटेरे हैं। शुरू से अंत तक लुटिए, अब अंतिम पड़ाव पर भी आपको चैन नहीं। हम सब उसके घर आगए और प्रार्थना की, भगवान वो जहां भी हों उनकी आत्मा को शांति दीजिएगा।

आपका अपना
नीतीश राज

Friday, July 3, 2009

क्यों छापें काली लड़कियों को, बिक्री नहीं होगी पेपर की, है ना.......।

यदि लीड स्टोरी है और फोटो अच्छी नहीं है तो उसे लीड बनाएंगे पर फोटो दूसरी या फिर तीसरी लीड की लगा देंगे।

जब मैंने पिछली पोस्ट की तो कई लोगों ने कहा कि हां यार ये तो सही है कि सारी खबर हर जगह छपी और साथ ही कई चैनलों पर भी चली पर यार किसी भी पेपर में महिला खिलाड़ी की फोटो नहीं दिखी। मैंने कहा, हां क्यों दिखेगी। ढूंढने से भी नहीं मिलेगी किसी भी महिला की फोटो। यदि मिलेगी भी तो एक दो में जिस की बिक्री काफी कम होगी। कारण क्या है?
आम का सीजन चल रहा है और आम भी कई प्रकार के आ रहे हैं। चाहे इनको इंजेक्शन से वो पका रहे हों या फिर किसी भी कारण से पर रेट उनके वो ही ३० रु किलो होंगे। उनके एक किलो जब वो थोक में लेते होंगे तो १२-१३ रु प्रति किलो पड़ता होगा। फिर यदि वो आपको १५ में दे देगा तो खाएगा क्या और बचाएगा क्या?
मैंने बताया कि एक टीवी या फिर मॉनिटर की कीमत १०-१२ हजार के करीब होती है। हमारे ऑफिस में हो ना हो तो तीन हजार के करीब टीवी और मॉनिटर लगे हुए हैं। तो सोचो १० साउंड मिक्सर, १०० के करीब कैमरा, हजारों लाइटस, हजारों कंप्यूटर की कीमत कहां तक पहुंच जाती होगी। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में इसलिए कोई भी वो ख़बर जो टीआरपी नहीं दे सकती वो ज्यादा नहीं चल सकती।
वैसे ही जहां तक अखबार का सवाल है तो भई वो भी तो ऐसा ही करते हैं ना। यदि लीड स्टोरी है और फोटो अच्छी नहीं है तो उसे लीड बनाएंगे पर फोटो दूसरी या फिर तीसरी लीड की लगा देंगे। यदि तीनों स्टोरी की फोटो अच्छी नहीं है तो बस ब्रह्मास्त्र याने की एड की कोई तस्वीर।
कभी कोई क्यों छापने लगा काली-पीली लड़कियों को। पर मैंने उनको रोक कर बताया कि वैसे हम सब को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हां रंग, चेहरा, इन सब को देख कर कोई भी फैसला नहीं होना चाहिए। वैसे सभी को मैं मिला देता हूं ममता खरब से। पहचान लीजिए, कहीं मिले तो शुक्रिया अदा कीजिएगा। सच्ची श्रद्धा से देश के लिए काम करने के लिए दीजिएगा शुक्रिया।

~~~~ये हैं ममता खरब। (दिल से कह रहा हूं बहुत मुश्किल से देश की महिला हॉकी प्लेयर की फोटो गूगल पर ढूंढ पाया हूं।)

आपका अपना
नीतीश राज

Thursday, July 2, 2009

कौशिक जी, ये तो होना ही था, आपकी लड़कियां इतनी सुंदर जो नहीं हैं।



हमारे देश में कौन जानता है कि सीता गोसाई, मुधु यादव, प्रीतम सिवाच, रानी रामपाल, सुरिंदर कौर, सबा अंजुम, ममता खरब कौन हैं।

कौशिक जी ये तो होना ही था। इसका इल्म तो पहले से ही था हमें तो, आपको नहीं था ऐसा मैं सोच नहीं सकता। मुझे तो ये मालूम था कि ऐसा ही होगा। आपकी लड़कियों से कोई भी नहीं मिलने आएगा। आपकी कोई लड़की भी तो ऐसी नहीं कि जिसे कोई देखना पसंद करे। अधिकतर के पास तो रंग ही नहीं है, सभी तो काली हैं, शरीर ऐसा है कि कोई लड़की मानने को तैयार नहीं। खुद आप के घर के लोग उन्हें देखना पसंद नहीं करते। कौशिक जी, ये सब आप क्या सोचते थे कि दुनिया उमड़ पड़ेगी आपकी लड़कियों को देखने के लिए। नहीं, कतई नहीं।
हमारे देश में कौन जानता है कि सीता गोसाई, मुधु यादव, प्रीतम सिवाच, रानी रामपाल, सुरिंदर कौर, सबा अंजुम। चक दे के कारण ममता खरब को लोग जानने और पहचाने लगे वर्ना ममता खरब को भी कोई नहीं जानता। अरे, महिला हॉकी टीम की कप्तान कौन है? कौन बताएगा? यदि सर्वे कराया जाए तो शायद ही पूरे देश में आंकड़ा १०० को छू पाएगा। मैं प्रतिशत की बात नहीं कर रहा हूं कौशिक जी, पूरे देश में १०० लोग भी नहीं बता पाएंगे। यदि महिला हॉकी टीम के परिवार, रिश्तेदार और आस-पड़ोस को छोड़ दें तो। आप तो महिला हॉकी टीम की बात कर रहे हैं मैं ये दावा करता हूं कि पूरे देश में ५०० से ज्यादा लोग ये नहीं जानते होंगे कि पुरुष भारतीय हॉकी टीम का कप्तान कौन है। शर्त वो ही कि परिवार वगैरा को छोड़ कर साथ ही इंटरनेट में सर्च नहीं कर सकेंगे। आखिरकार ये आपके देश का राष्ट्रीय खेल है। है कि नहीं है, मुझे तो इस पर भी कई बार शक होता है।

>अरे
कौशिक जी आप ने तो मुगालता पाल रखा है
कि आप की टीम गर कोई टूर्नामेंट जीतकर आएगी तो आपकी लड़कियों को कोई सर-आंखों पर बैठाएगा। जी कौशिक साहब आपको तो जाते हुए इस बात का एहसास हो जाना चाहिए था जब कि आपकी लड़कियां पूरी रात एयरपोर्ट पर खड़ी रहीं और उनका ट्रांजित वीजा नहीं आया। और इस कारण से वो इस टूर्नामेंट में एक दिन की देरी से पहुंची। नहीं जी नहीं, कतई नहीं बदल सकता इनका भविष्य। आप मेहनत करके देखना चाहते हैं तो देख लीजिए पर कोई फायदा नहीं, आप अपने मन के खुद मालिक हैं। अरे हमारे देश में तो हमारे खेल मंत्री पुलेला गोपीचंद को भी नहीं जानते।
आपके देश के पीएम भी दो दिन बाद बधाई संदेश भेजते हैं। अब से कुछ देर पहले ही पीआईबी ने प्रेस रिलीज जारी किया गया है। गर ये ही हाल पुरुष हॉकी टीम के साथ हुआ होता तो पहाड़ टूट जाता और इससे भी अधिक यदि ये ही हाल यदि भारतीट क्रिकेट टीम यानी टीम इंडिया के साथ हुआ होता तो भूचाल आजाता।
कोई नहीं जानता कि रानी रामपाल हमारी टीम में सबसे कम उम्र की खिलाड़ी हैं। १६ साल की इस बाला ने इस टूर्नामेंट में सबसे ज्यादा गोल किए हैं। रानी पुरुष टीम के दिवाकर राम की तरह मानी जा रही हैं। पर लोग उसे क्यों जानेंगे वो सानिया मिर्जा कि तरह सुंदर जो नहीं है। वो सायना नेहवाल की तरह गुड लुकिंग भी नहीं है। वर्ना हमारे खेल दिग्गज तो ये कहते हैं कि आजकल सानिया मिर्जा को बहुत पीछे छोड़ दिया है सायना ने। पर कहीं देखी थी सायना की वो खबर जब सायना ने चीन की वॉग को हराकर चैंपियनशिप जीती थी। शायद नहीं। सानिया क्वार्टर फाइनल में भी पहुंचे तो खबर हो जाती है।
मुझे किसी भी खिलाड़ी से कोई शिकायत नहीं पर सोच ये है कि चेहरा और कद देख कर खासकर देश के मामले में प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए। एक दो अखबार को छोड़ दें तो किसी ने भी महिला टीम की तस्वीर नहीं छापी। क्यों छापें काली लड़कियों को, बिक्री नहीं होगी पेपर की, है ना.......


आपका अपना
नीतीश राज


नोटभारतीय महिला हॉकी टीम ने कप्तान सुरिंदर कौर की अगुवाई में रूस में एफआईएच चैंपियंस चैलेंज टू जीता है। जो कि पिछले २५ साल में भारत ने पहली बार जीता है। ये भारतीय महिला टीम ने रचा है इतिहास। अब उसे सीधे चैलेंज वन के लिए क्वालिफाई कर लिया है। पहले तो जाते हुए टीम को ट्रांजित वीजा के लिए पहले एयरपोर्ट पर फिर होटल में रात भर इंतजार करना पड़ा था और अब जीत कर लौटने पर महिला टीम का स्वागत के लिए कोई भी अधिकारी हॉकी इंडिया की तरफ से नहीं पहुचा। सिर्फ ये शिकायत है कौशिक साहब की। अब हॉकी इंडिया के महासचिव मोहम्मद असलम खानापूर्ती करने में लगे हुए है। हॉकी इंडिया अब सारी टीम को एकत्र करके टीम के सम्मान में कार्यक्रम करेगी। पर असलम साहब टीम के स्वागत के लिए अधिकारी क्यों नहीं पहुंचे? हां, एक बात और एम के कौशिक साहब टीम के कोच हैं।


“जब भी बोलो, सोच कर बोलो,
मुद्दतों सोचो, मुख्तसर बोलो”